संसद के संयुक्त अधिवेशन की ओर भूमि विधेयक

-प्रमोद भार्गव-

parliament-india-संदर्भः भूमि अधिग्रहण विधेयक-
भूमि अधिग्रहण विधेयक पर संसद में गतिरोध टूटने के आसार न बीते संसद के सत्र में थे और न ही भविष्य के किसी सत्र में दिखाई देंगे ? बावजूद केंद्र में सत्तारुढ़ नरेंद्र मोदी सरकार का हठ है कि यह विधेयक हर हाल में कानूनी रूप ग्रहण करे। लिहाजा सरकार के पास अब एक ही रास्ता बचता है कि 30 सदस्यीय सांसदों की सर्वदलीय समिति की रिपोर्ट आने के बाद वह ऐन-केन-प्रकारेण इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन से पास करा ले। यह ऐतिहासिक अवसर सरकार को तब मिलेगा जब वह इसे लोकसभा से पारित करने के बाद राज्यसभा में पेश करे। राज्यसभा में विधेयक पारित होने से रहा, क्योंकि सरकार के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है। इसके बाद विधेयक को कानूनी रुप देने के वास्ते सरकार संयुक्त अधिवेशन बुलाएगी, ताकि राज्यसभा में अल्पमत की आपूर्ति लोकसभा के बहुमत से की जा सके ? ऐसा करके विधेयक तो पारित हो जाएगा, लेकिन इससे सरकार एक साथ दो मोर्चों पर बैकफुट पर दिखाई देगी ? एक तो उसे देशव्यापी किसानों का विरोध झेलना होगा, दूसरे कांग्रेस को उभरने का अवसर मिल जाएगा। गोया, गले की हड्डी बना यह विधेयक भाजपा के भविष्य के लिए बड़ी चुनौती साबित होने जा रहा है।

‘उचित मुआवजा एवं भूमि अधिग्रहण तथा पुनसर््थापन में पारदर्शिता अधिनियम- 2013‘ में संशोधन भाजपा के लिए जी का जेजाल साबित हो रहा है। क्योंकि वह अब तक इसमें नए सिरे से संशोधनों के औचित्य को संसद में सिद्ध करने में नाकाम रही है। इस कारण किसान और खेती से जुड़े मजदूर यह सोचने को विवश हुए हैं कि सरकार हमारी जमीनें हड़पकर उधोगपतियों के हित साध रही है। किसान-मजदूर व खेती के हित सरंक्षक तबके में यह धारणा भी बन रही है कि मोदी सरकार संप्रग सरकार द्वारा बनाए विधेयक का इसलिए सरलीकरण करना चाहती है, जिससे जिन औद्योगिक घरानों ने मोदी को सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचाने के लिए जो अकूत धनराशि खर्च की, उसे ब्याज सहित वसूलने की आसान सुविधा हासिल हो जाए। अन्यथा क्या कारण है कि जिस विधेयक को कठोर से कठोरतम बनवाने में भाजपा ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया था, उसी ताकत से उसे हठपूर्वक शिथिल करने में लग जाए ? जबकि देश में अभी भी सरकारी विभागों, पूर्व सामंतों, तथाकथित कल्याणकारी न्यासों और बंजर भूमि के रूप में लाखों हेक्टेयर ऐसी भूमि पड़ी है, जिसे बिना कोई मुसीबत मोल लिए उद्योगपतियों को दिया जा सकता है। ये जमीनें इन औद्योगिक घरानों के लिए इसलिए मुफीद साबित होंगी, क्योंकि इनकी रुचि उद्योग लगाने से कहीं ज्यादा द्वार-बंद बस्तियां, मॉल, मल्टीप्लेक्स, पांच सितारा होटल और बहुमंजिला आवासीय इमारतें बनने में है।

देश के रेलवे, रक्षा और शिक्षा विभागों के पास ऐसी हजारों हेक्टेयर भूमि पड़ी है, जो शहरी आबादी में है और उसका कोई कारगर उपयोग भी नहीें हो पा रहा है। बल्कि कई जमीनों की सीमा-दीवार नहीं होने के कारण उन पर अतिक्रमण हों रहे है, और विभाग हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं। रेलवे ने अनेक मीडियम और नैरो गेज रेल पथ बंद कर दिए हैं। नतीजतन इन पथों से जुड़े रेलवे स्टेशन के परिसर खाली पड़े हैं। ऐसे ही भूमि बैंक पूर्व सांमतों, जमींदारों और तथाकथित लोक कल्याकारी ट्रस्टों के नाम से सुरक्षित हैं। ये ट्रस्ट किसका कल्याण कर रहै है, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। अब तो धार्मिक न्यासों और वक्फ र्बोडों के पास भी हजारों हेक्टेयर भूमियां हैं। जो खाली पड़ी हैं। यौनाचार के प्रकारण में आसाराम बापू जैसे संत जेल में है और इनके आश्रम वीरान हैं। ज्यादातर आश्रमों की भूमियां राज्य सरकारों की हैं, जो लीज पर दी गई हैं। क्यों नहीं राज्य सरकारें इन जमीनों की लीज समाप्त करके इन्हें उद्योगपतियों को दे देतीं ?

देश में ऐसे कई उद्योग परिसर हैं, जिनमें अनेक कारणों से उत्पादन दशकों से बंद है। ये बदलती तकनीकों के कारण भी अप्रासंगिक हुए हैं। नतीजतन उजाड़ पड़े होने के कारण ये परिसर अनाचार के अड्डे बने हुए हैं। तीन साल पहले मुबंई के एक एक ऐसे ही मिल क्षेत्र में एक युवती के साथ बलात्कार हुआ था। चंबल के बीहड़ों को भी समतल करके उद्योग लगाए जा सकते हैं। ऐसे स्थलों को विकसित किया जाता है तो विस्थापन, पुनर्वास और मुआवजे जैसी समस्याओं से भी दो-चार होना नहीं पड़ेगा ? सरकार उन जमीनों की भी समीक्षा कर सकती है, जो भूमण्डलीकरण के दौर में औद्योगिक घरानों को अधिगृहीत करके सस्ते दामों पर दी गई हैं। विशेश आर्थिक क्षेत्र के बहाने ही दो लाख हेक्टेयर जमीन उद्योगपतियों की दी गई थी। सीएजीकी ऑडिट रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि इनमें से बमुश्किल 15 फीसदी भूमि का ही सदुपयोग हुआ है। क्यों नहीं सरकार शेश भूमि वापस लेने के उपाय करती ? साफ है राजग सरकार विधेयक में संशोधन लाने के जो उपाय कर रही है, उससे राश्ट्र का नहीं, केवल पूंजीपतियों के ही बारे-न्यारे होने हैं।

गोया, संयुक्त अधिवेशन के जरिए इस विधेयक को कानूनी रुप दिया जाता है तो कांग्रेस को मजबूती के साथ खड़ा होने का अवसर मिल जाएगा। केवन किसान-मजदूर ही नहीं, देश की संपूर्ण ग्रामीण आबादी को इस हथियार के जरिए कांग्रेस भुनाने में लग जाएगी। कांग्रेस जनता में संदेश देगी कि मोदी सरकार ने औद्योगिक घरानों के आगे घुटने टेक दिए हैं। जिस निजी अचल संपत्ति पर किसान का संवैधानिक अधिकार है, उस कानूनी अधिकार को शिथिल करके पूंजीपतियों को कृषि भूमि हड़पने के बंद रास्ते खोलना चाहती है ? इसलिए सोनिया गांधी, राहुल गांधी और जयराम रमेश ने कहा भी है कि कांग्रेस किसी भी कीमत पर इस नए कानून को मौजूदा स्वरूप में लागू नहीं होने देगी। ये संशोधन किसान हित में नहीं होने के कारण भाजपा के सहयोगी दल शिवसेना और अकाली दल भी असहमति जता रहे हैं।

कठोर भूमि अधिग्रहण कानून बनवाने में संप्रग सरकार के दौरान भाजपा जिद्द रही थी। तब सर्वदलीय संसदीय स्थायी समिति की अध्यक्ष रहीं सुमित्रा महाजन ने 28 सिफारिशें की थीं। इनमें से 26 सिफारिशें मनमोेहन सिंह सरकार ने मानी थीं। जो दो सिफारिशें नहीं मानी थीं, वे थीं कि निजी कंपनियों को किसी भी कीमत पर अधिग्रहण न हो और बहुसिंचित व बहुफसलीय भूमि का किसी भी हाल में अधिग्रहण न किया जाए। लेकिन अब प्रत्यक्ष औद्योगिक घरानों के हित साधनें में लगी मोदी सरकार ने 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में आमूलचूल परिर्वतन करके जो प्रारूप तैयार किया है, वह कतई किसान हित में नहीं है। गोया, मोदी सरकार अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम करने के साथ नंदीग्राम और सिंगूर जैसे हालात पैदा कर रही है। जिसके परिणाम उसे अगामी विधानसभा चुनावों में दिखाई देने लग जाएंगे।

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