पत्रकारिता वर्तमान में साहित्य की सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण, प्रभावकारी एवं संभावनाओं से भरी विधा है। यदि आपमें मानव जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने की अभिलाषा है तो साहित्य की उपलब्ध विधाओं में तो इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं दिखता। साहित्य की अन्य विधाओं की संरचना ही इस प्रकार की है कि लाक्षणिकता और संकेतात्मकता उनकी आधारभूत आवश्यकताएं हैं। उपन्यास और कहानी एक विस्तार और ठहराव माँगते हैं तथा यथार्थ का एक विम्ब पाठक के मस्तिष्क में छोड़ जाते हैं। कविता -चाहे वह हमारे संस्कृत काव्य शास्त्र के सिद्धांतों का अनुसरण करे या पाश्चात्य समीक्षा के मानकों को स्वीकारे -दुरूह ही होती है। रचना कर्म में रत साहित्यकार के पास दो विकल्प होते हैं- या तो वह पाठक की रूचि और समझ को अपने स्तर तक उठाने का प्रयास करे अथवा पाठक के स्तर के अनुसार रचना करे। यदि लेखन स्वान्तः सुखाय नहीं है और लेखन की सफलता अधिकाधिक पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित करने पर निर्भर करती है तो इनमें से कौन सा विकल्प अधिक वरेण्य है यह सहज ही समझा जा सकता है।
पत्रकारिता आज के आपा-धापी युक्त जीवन का साहित्य है। पत्रकारिता सूचना, ज्ञान और मनोरंजन का जैसा समन्वय करती है वह आज की -हर चीज इंस्टैंट एवं फ़ास्ट चाहने वाली -पीढ़ी के टेस्ट से बिलकुल मेल खाती है। यह युग शास्त्रीय एवं शाश्वत का नहीं है,सरल और संक्षिप्त तथा क्षणिक एवं क्षणभंगुर का है। सूचना क्रांति ने वैचारिक अंतर्क्रिया को इतना तीव्र कर दिया है कि कोई विचार उत्पन्न होते ही परिपक्व और कालातीत हो जाता है। यदि साहित्य को स्वयं को पठनीय बनाए रखना है तो उसे पत्रकारिता से सरलता,संक्षिप्तता और सामयिकता के गुण अपनाने होंगे। ऐसा नहीं है कि शास्त्रीयता का महत्व घटा है वह उसी तरह कायम है क्योंकि बिना शास्त्रीय परंपरा के ज्ञान के इसका सार्थक सार संक्षेप निकाल पाना संभव नहीं है।
टेक्नोलॉजी ने समय और स्थान के बंधन तोड़े हैं, आकाशवाणी और दूरदर्शन का नियंत्रित मनोरंजन उस समय घर के खाने की तरह एकरस और विविधताहीन लगने लगा था जब प्राइवेट चैनल्स का आगमन हुआ। अब अपने पसंदीदा कार्यक्रम के अनुसार अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करने की मजबूरी नहीं थी बल्कि अपनी दिनचर्या के अनुरूप उपलब्ध विकल्पों में से पसंदीदा विकल्प का चयन करने की समस्या थी। लेकिन अभी भी स्थान का बंधन बरक़रार था क्योंकि टी वी और रेडियो को अपने साथ रखना कठिन था, स्मार्ट फ़ोन के आगमन ने इस बंधन को भी तोड़ दिया अब आप 24×7 और ऑन द् मूव, कभी भी कहीं भी अपने पसंदीदा कार्यक्रम देख सुन सकते हैं। समाचार देखना, सुनना और पढ़ना अब समय और स्थान का मोहताज नहीं रहा।
हर समय हर स्थान पर पढ़ने, सुनने और देखने योग्य सामग्री भारी-भरकम, जटिल और एकाग्रता की माँग करने वाली होगी तो अस्वीकार कर दी जाएगी इस लिए समाचार,साहित्य,धर्मोपदेश- सब को एक खास शैली में ढलना पड़ रहा है ताकि इनका लाभ और आनंद लंबी कतारों में अपनी बारी आने की प्रतीक्षा करते हुए,शौचालय में अपने कब्ज से जूझते हुए या कार्यालय में किसी जटिल असाइनमेंट को पूरा करते हुए आसानी से लिया जा सके।
पत्रकारिता में कॉर्पोरेट जगत का प्रवेश अनेक परिवर्तनों का जनक रहा है। पत्रकारों को साधन और सुविधा तो प्राप्त हुए ही हैं, आधुनिक टेक्नोलॉजी का साथ भी उन्हें मिला है। अब किसी भी घटना का लाइव टेलीकास्ट आसानी से संभव है, इस सुविधा ने पत्रकार को सूचना प्रदाता से हस्तक्षेपकर्ता बना दिया है। वह किसी भी घटित हो रही घटना का भाग बनकर उसके स्वरुप पर प्रभाव डालने की स्थिति में आ गया है। टी वी पत्रकारिता में ऑडियो विजुअल सपोर्ट के कारण नैरेशन की आवश्यकता कम हुई है इस कारण कम समय में अधिक और अधिक सार्थक कहना संभव हुआ है। उदाहरणस्वरूप अकालग्रस्त गाँव की कवरेज करने पर बंजर जमीन, खेतों में पडी दरारें किसानों के मुरझाए चेहरे, कुपोषित बच्चे, प्रश्न पूछने पर हड़बड़ाते जनप्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी आदि अपनी कहानी स्वयं कहते हैं इससे पत्रकार को इतना समय मिल जाता है कि वह इस समस्या के विविध पहलुओं यथा इतिहास, नीतिगत अपूर्णताओं, संभावित हल आदि पर अपना शोधपरक अभिमत रख सकता है।
पत्रकारिता में ग्लैमर और धन दोनों में वृद्धि हुई है। पत्रकारों के लिए कॉर्पोरेट्स ग्रुप्स की प्रतिस्पर्धा में अपना बाजार भाव बढ़ाना आसान हुआ है और अपने मालिक के प्रति वफादार रहने या उसके प्रति अपनी निष्ठा बदलने-दोनों की ही कीमत भरपूर उन्हें मिल रही है। फिल्म जगत की भाँति चकाचौंध से भरपूर पुरस्कार समारोह आयोजित-प्रायोजित होने लगे हैं और इनमें अवार्ड जीते- जिताए जाने लगे हैं। पत्रकारों की सेलिब्रिटी स्टेटस कॉर्पोरेट जगत की बिज़नेस स्ट्रेटेजी का एक बाइ प्रोडक्ट है। कुछ पत्रकारों को लार्जर दैन लाइफ इमेज को जीने का सौभाग्य मिला है तो कुछ अपनी ब्रांड वैल्यू बनती देख नए फाइनेन्सर जुगाड़ कर मीडिया समूहों के मालिक का मुखौटा पहन रहे हैं। बहरहाल इस मोल तोल और चमक दमक के खेल में कुछ निहायत ही उम्दा पत्रकारों का सर्वश्रेष्ठ हमें नहीं मिल पाएगा। जिस प्रकार रवीश कुमार जैसे पत्रकार को एक संकीर्ण विचारधारा विशेष का नायक बनाने की चेष्टा की जा रही है और उस नायक के रूप में उन्हें महिमा मंडित किया जा रहा है, भय होता है कि वे अमिताभ बच्चन की भांति एक छवि विशेष से आबद्ध सुपर स्टार बन कर न रह जाएं और उनके भीतर का पत्रकार अमिताभ बच्चन के अभिनेता की भांति अपनी वास्तविक ऊंचाई को स्पर्श करने से रह जाए।
कॉर्पोरेट जगत की अपनी कार्यशैली होती है, असीमित धैर्य इस कार्यशैली का एक अपरिहार्य अंग है। प्रारम्भ में कॉरपोरेटीकरण पत्रकारों को एक अवसर की भांति प्रतीत होता था। अवसर-साधनों और पैसे की कमी से निजात पाने का, अवसर-सरकारी नियंत्रण से मुक्ति पा कुछ अपना रचने का। कॉर्पोरेट जगत निष्पक्ष पत्रकारिता की हिमायत करता जान पड़ता था। कॉर्पोरेट बॉस के लिए कोई भी दल,कोई भी विचारधारा, कोई भी धर्म तब तक अस्वीकार्य नहीं है जब तक कि वह उसके व्यावसायिक हितों की सिद्धि में रोड़े न अटकाए। यही कारण है कि प्रथम दृष्टया कॉर्पोरेट पत्रकारिता स्वतंत्र और निष्पक्ष जान पड़ती है। हर धर्म, हर संस्कृति, हर भाषा, हर पर्व,हर उत्सव, हर नेता, हर महापुरुष, हर वह सब कुछ जिसका बाजार मूल्य है कॉर्पोरेट मीडिया को शिरोधार्य है। कॉर्पोरेट मीडिया ने जब पत्रकारों को अपनी विलासितापूर्ण जीवन शैली का अभ्यस्त बना लिया तब उनसे काम भी कसकर लिया जाने लगा। क्रिस्टोफर मार्लो की अमर कृति Doctor Faustus का स्मरण अनायास ही हो आता है जिसमें Doctor Faustus ज्ञान की खोज में मैजिक की ओर आकृष्ट होता है और अपनी आत्मा को लुसिफर के पास समर्पित करने का अनुबंध कर 24 वर्षों का समय प्राप्त करता है किंतु ज्ञान प्राप्ति के बजाए तुच्छ क्रियाकलापों में डूब जाता है और कारुणिक तथा दुखद अंत को प्राप्त होता है। सबसे बड़ा खुलासा, सबसे बड़ी कवरेज, महा कवरेज जैसे शीर्षक, कभी क्रिकेटर तो कभी लोक नर्तक तो कभी जासूस का बहुरूप धरे, खेलते नाचते-गाते पत्रकार, अपने अल्प ज्ञान और अधूरे होम वर्क का बेबाक और बेझिझक प्रदर्शन करते एंकर, शाम की बहसों में राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं( जिनके शरीर में लगता है केवल मुख ही है) को मुर्गों की भांति सिर से सिर टकराकर लड़ाने की कोशिश करते आक्रामकता का हास्यास्पद स्वांग भरते संचालक जो खुद डब्लू डब्लू इ की नूरा कुश्तियों के रेफरी की भांति दीन हीन लग रहे होते हैं, अपने अतीत के शौर्य को भुना रहे नामचीन पत्रकारों के टॉक शो जिनका उद्देश्य सेलिब्रिटीज की पॉजिटिव पब्लिसिटी कर उनसे अपने रिलेशन्स को पुख्ता करना होता है, किसी अभिनेत्री और क्रिकेट खिलाड़ी की संभावित शादी की स्टोरी पर अंतहीन और अर्थहीन सवाल पूछते एंकर और उनके उतने ही निरर्थक जवाब देते फील्ड रिपोर्टर्स जो सिक्योरिटी गार्ड्स द्वारा दुत्कारे जाने के बाद चिलचिलाती धूप या कड़कड़ाती ठण्ड में इन सितारों के बंद बंगलों से एक सुरक्षित दूरी बनाकर खड़े होते हैं- लगता है कि टी वी पत्रकारिता की स्थिति उस गणिका की भांति हो गई है जो शरीर और मन से थक गई है किन्तु जिसे ग्राहकों के मनोरंजन के लिए बाध्य किया जा रहा है। दुधारू पशुओं से भी अधिक दूध लेने के लिए उन्हें हार्मोन के इंजेक्शन देने पड़ते है तो ये तो जीते-जागते सुशिक्षित नौजवान हैं, इन्हें इस तरह 24×7 बनने के लिए अपनी आत्मा और शरीर से कैसे समझौते करने पड़ते होंगे यह भगवान ही जानता है।
इधर टी आर पी का खेल कॉर्पोरेट मालिकों ने इस लिए बनाया है कि अपने मातहत मीडिया कर्मियों पर कुछ न्यू, सेंसेशनल,हॉट और इनोवेटिव करने के लिए दबाव बना सकें। इसका नतीजा यह हुआ है कि मनोहर कहानियाँ, दफा 302, माधुरी, मायापुरी, सत्य कथाएं, क्रिकेट सम्राट जैसी जीवित-अजीवित पत्रिकाओं का टी वी रूपांतर परोसा जा रहा है। एक चैनल पर कोई स्टिंग ऑपरेशन चालू होता है तो उसके खत्म होते होते दूसरे चैनलों पर स्टिंग दिखाने की होड़ लग जाती है। इन स्टिंग का क्या परिणाम निकलता है यह जुदा बात है। चुनाव की घोषणा के पहले ओपिनियन पोल और सभी स्थानों पर मतदान के बाद मतगणना से पहले एग्जिट पोल- भले ही गलत निकलते हैं,भले ही गंभीरता से नहीं लिए जाते- लेकिन देखे खूब जाते हैं। चाय और मेरी बिस्कुट के साथ क्रिस्प मनोरंजन में इनका शुमार होता है। ऐसा लगता है पतन भी न्यूक्लियर चेन रिएक्शन की भाँति है, चंद सेकण्ड्स में पतन की पराकाष्ठा तक पहुँचा जा सकता है।
आज प्रिंट मीडिया के सामने इस बात का संकट नहीं है कि क्या छापें? विभिन्न एजेंसीज के माध्यम से हर विषय पर हर स्तर की सामग्री उपलब्ध है। अख़बारों का एक बड़ा हिस्सा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया की खबरों से आच्छादित होता है। अख़बार का एडिटर पहले फिल्म के डायरेक्टर की तरह पूरे अख़बार पर अपने विज़न और व्यक्तित्व की छाप छोड़ता था। किन्तु अब वह फिल्म के एडिटर की तरह उपलब्ध रॉ मटेरियल को कट-पेस्ट कर प्रेजेंटेबल बनाता है। प्रिंट मीडिया का वास्तविक संकट अपनी अस्मिता को बचाए रखने का है क्योंकि यह सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का लिखित संस्करण बनने की ओर अग्रसर हो रहा है जिसकी उपयोगिता तकनीकी निरक्षरता से ग्रस्त लोगों के लिए अधिक है। प्रिंट मीडिया के सम्मुख दूसरी चुनौती विभिन्न विषयों पर उपलब्ध वर्गीकृत सामग्री ने प्रस्तुत की है जिस तक कमोबेश हर समाचार पत्र की पहुँच है और इस कारण हर समाचार पत्र की थाली में एक जैसे व्यंजन सजे नजर आते हैं, एक ही रसोई से तैयार होने के कारण इनका स्वाद अच्छा होते हुए भी एकरस होता है।
प्रिंट मीडिया पर कॉरपोरेटीकरण का प्रभाव पड़ा है लेकिन यह मर्यादित एवं संयत आचरण के आवरण में छिपा है। प्रिंट मीडिया का एक पुराना और गौरवशाली इतिहास रहा है। इस सुनहरे अतीत की ब्रांड वैल्यू है। जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और कॉरपोरेटीकरण हम उम्र हैं,इनकी दोस्ती उच्छृंखलता की सीमा तक पहुँच सकती है लेकिन बुजुर्ग प्रिंट मीडिया को तो सम्मान से टैकल करना होगा। फिर भी धीरे धीरे कॉर्पोरेट संस्कृति अपना असर दिखाने लगती है, आज से कुछ दशक पहले जब समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ प्रामाणिक और महत्वपूर्ण ख़बरों के दस्तावेज हुआ करते थे और अख़बारों की सुर्खी बनना एक मुहावरा था तब इस बात की कल्पना भी असम्भव थी कि किसी अख़बार का पहला पृष्ठ प्रायोजित होगा या फुल पेज एडवरटाईजमेन्ट से अख़बार की शुरुआत होगी। यदि स्वाधीनता संग्राम के नायकों से (जिन्होंने संपादक को वह दर्जा दिया जो हमारी और पश्चिमी साहित्य मीमांसा में कवि को प्राप्त था और जिन्होंने समाचार पत्रों को देश के नवजागरण एवं स्वतंत्रता के विचार का संवाहक माना) पेड न्यूज़ की चर्चा की जाती तो शायद कई अहिंसावादी, अहिंसक न रह पाते लेकिन आज पेड न्यूज़ एक सामान्य घटना है और अधिकाँश बार तो प्रायोजित शब्द का प्रयोग भी करना आवश्यक नहीं समझा जाता। कई बार कॉर्पोरेट बॉस सोचता है कि एक ही घटना को कवर करने के लिए हर क्षेत्र में हिंदी और अंग्रेजी के दो दो संवाददाता-समाचार संपादक क्यों रखे जाएं बल्कि हेड ऑफिस में एक अनुवादक बैठाकर इंग्लिश एडिशन का हिंदी संस्करण तैयार कर लिया जाए। कॉर्पोरेट कल्चर एक सिस्टम और मशीनरी पर निर्भर करती है। परिणामतः खेल, मनोरंजन,अर्थ जगत, साहित्य,संस्कृति- सभी विषयों पर जाने माने विशेषज्ञों द्वारा तैयार सामग्री का पूरा पूल बना हुआ है जिसमें से चयन करने के लिए किसी खुर्राट सिद्धांतवादी संपादक की आवश्यकता नहीं है। संपादक को मार्केट में उसकी इमेज और गुडविल की कीमत दे दी गई है, यही उसके लिए पर्याप्त है।
प्रयोग के अवसर छोटे समाचार पत्रों के लिए अधिक हैं बशर्ते वे अपनी मौलिकता और स्थानीयता की रक्षा कर सकें और बावजूद चिंताजनक आर्थिक संकट के स्थानीय पूंजीपतियों तथा राजनेताओं से एक सम्मानजनक दूरी बनाए रख सकें। वह दिन दूर नहीं जब कॉर्पोरेट समूहों द्वारा संचालित समाचार पत्रों के स्थानीय संस्करण जिला मुख्यालय स्तर से प्रकाशित होने लगेंगे। इनके पास विपुल संसाधन होंगे, आधुनिक पत्रकारिता का विधिवत अध्ययन करने वाले टेक्नॉलॉजी में दक्ष पत्रकार होंगे, इनके विज्ञापन व्यापक पाठक वर्ग तक पहुंचेंगे, कई आकर्षक स्कीम्स चला कर ये ग्राहकों को आकर्षित भी कर लेंगे, ऐसी दशा में स्थानीय समाचार पत्र यदि सच्चाई की बुनियाद पर खड़े नहीं होंगे और अपने लोकल कलर को बरक़रार रखते हुए बेबाकी से अपनी राय नहीं व्यक्त करेंगे तो इनके लिए अपनी अस्तित्व रक्षा मुश्किल हो जाएगी।
दरअसल पत्रकारिता को अपने बेसिक्स की ओर लौटने की जरूरत है। जिस दिन पत्रकार अपने व्यक्तिगत संबंधों को समाचार की न्यूज़ वैल्यू पर तरजीह देने लगेंगे, समाचारों को छाप कर या छिपा कर समाज के शक्तिशाली वर्ग को उपकृत करने लगेंगे उस दिन यह समझ लेना चाहिए कि न केवल समाज के बल्कि पत्रकारिता और पत्रकारों के भी बुरे दिन प्रारम्भ हो गए हैं। यदि सिंह, सिंहनाद करना छोड़ कर लोगों के चरणों में लोटने लगे और दुम हिलाने लगे तो उसका पिंजरे में कैद होना तय है। जब पत्रकारिता एक मिशन और पैशन के स्थान पर बिज़नेस, एम्प्लॉयमेंट और फैशन बन जाए तो यह प्रजातंत्र के लिए भी खतरे की घंटी है। विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बाद मीडिया को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ माना गया है। विधायिका और कार्यपालिका का तो मीडिया ट्रायल भी होता है और ज्यूडिशिअल ट्रायल भी किन्तु न्यायपालिका और मीडिया की “पवित्रता” इनसे प्रश्न पूछने की इजाजत नहीं देती। न्यायपालिका और मीडिया की दशा उन डॉक्टर्स की भांति हो गई है जिनका स्वयं का नासूर सड़ने लगा है और जिन्हें सर्जरी की नितांत आवश्यकता है लेकिन इनकी सर्जरी का अधिकार किसी के पास नहीं है। किसी को तो आगे आना होगा, किसी को तो पहल करनी होगी, संभवतः ये मीडिया और ज्यूडिशियरी के ही लोग हों, इन्हीं की आंतरिक संस्थाएं हों जो इस सड़न का इलाज प्रारम्भ करें।
कॉर्पोरेट मीडिया ने केवल इतना सिद्ध किया है कि तकनीकी निपुणता और प्रबंधन कौशल से पाठकों-दर्शकों की चिंतन प्रणाली को प्रभावित किया जा सकता है एवं मार्केटिंग स्किल्स से पत्रकारिता की अर्थव्यवस्था को सुधारा जा सकता है। यदि इन मैनेजरियल एवं मार्केटिंग स्किल्स का सकारात्मक उपयोग किया जाए तो बहुत जल्दी, बहुत अच्छे परिणाम आ सकते हैं। इसी प्रकार सोशल मीडिया के माध्यम से जनता कितने ही जीवंत और ज्वलंत मुद्दों को अनगढ़ तरीके से उजागर कर रही है, सार्थक स्टोरीज की तलाश में भटकते प्रशिक्षित पत्रकार के लिए तो यह स्वर्ण अवसर है कि वह अपने ज्ञान और अनुभव से इन स्टोरीज को माँजकर देश और समाज का कल्याण करे। सोशल मीडिया आपको एक खास तरह की प्रतिक्रिया (सकारात्मक अथवा नकारात्मक) देने के लिए बाध्य कर आपकी कंडीशनिंग करता है। एक सुलझा हुआ पत्रकार सोशल मीडिया के इस तिलिस्म को बड़ी आसानी से तोड़ सकता है।अपनी अनुभवसिक्त शैली के माध्यम से दक्ष पत्रकार नई पीढ़ी को दैनंदिन के वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तरों से आगे निकाल कर जीवन के लघुत्तरीय और निबंधात्मक प्रश्नों के समाधान में सक्षम बना सकते हैं।
हमारे देश में पत्रकारिता का एक गौरवशाली अतीत रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास भारतीय पत्रकारिता का इतिहास भी है। दोनों में इतने गहरे अन्तर्सम्बन्ध हैं और दोनों आपस में इतने सघन रूप से अन्तर्ग्रथित हैं कि इन्हें पृथक करना कठिन हो जाता है।यही स्थिति हिंदी साहित्य और हिंदी पत्रकारिता की है। हिंदी साहित्य की सैद्धांतिक पाठशाला में पढ़कर कितने ही पत्रकार निखरे हैं और पत्रकारिता की व्यावहारिक कार्यशाला में प्रशिक्षण ले कितने ही साहित्यकार सुलझे-संवरे हैं। यह विषय इतना व्यापक है कि इस पर अनेक शोध ग्रन्थ रचे जा चुके हैं और अनेक रचे जा सकते हैं। कहने का आशय यह है कि प्रेरणा के लिए हमें बहुत दूर और बहुत पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है। यदि साहित्य को लोक रंजन, लोक सुधार और लोक परिष्कार का महती दायित्व निभाना है तो उसे पत्रकारिता की भाषा और शिल्प का अवलंबन लेना ही होगा और यदि पत्रकार को प्रजातंत्र के चतुर्थ स्तंभ के गरिमापूर्ण दायित्व का निर्वाह करना है तो उसे साहित्य के शाश्वत मूल्यों को अपनाना ही पड़ेगा। हमारे कलमकारों में इतनी शक्ति है कि वे क्षण भर में क्षणभंगुर को शाश्वत बना सकते हैं, स्थानीयता को वैश्विकता में बदल सकते हैं, सामयिक को चिरस्थायी बना सकते हैं। आइए संकटों में छिपे हुए इन अवसरों को पहचानें।
डॉ राजू पाण्डेय