जज या थानेदार

      कल २५ अप्रेल को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर एक महिला के यौन उत्पीड़न के मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस अरुण मिश्रा ने जो धमकी दी, साधारणतया कोई थानेदार भी सार्वजनिक रूप से किसी को नहीं देता। सुनवाई के दौरान जस्टिस मिश्रा ने कहा — अमीर-ताकतवर, सुन लो, आग से मत खेलो। हमें और मत भड़काओ। हम अमीर और ताकतवर लोगों को बताना चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट से खेलना आग से खेलने जैसा है। जस्टिस मिश्रा की यह धमकी कही पीड़ित महिला के लिए भी तो नहीं है। इसपर विचार करना पड़ेगा। जांच के पूर्व ही न्यायिक पीठ में शामिल एक जज की आक्रोश भरी टिप्पणी से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि जस्टिस मिश्रा पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं और उनके रहते पीड़ित महिला को न्याय मिल पाएगा, इसमें गंभीर सन्देह है। उन्होंने आगे कहा कि न्यायिक प्रणाली में कोई मैच फिक्सिंग नहीं। सभी जानते हैं कि देश के सभी न्यायालयों में मैच फिक्सिंग आम बात है। जब आप हाई कोर्ट में स्टे लेने या हटाने या किसी और मामले के लिए जाते हैं और सुनवाई के लिए जल्दबाज़ी के लिए अपने वकील से आग्रह करते हैं, तो वकील का उत्तर होता है — जल्दी मत कीजिए। अभी फ़ेवरेबुल बेन्च नहीं बैठ रही है। फ़ेवरेबुल बेन्च बैठते ही पीटिशन दायर कर दूंगा। मैंने विभागीय मुकदमों के सिलसिले में कई बार हाई कोर्ट के चक्कर लगाए हैं। मुझे अक्सर वकील से यह उत्तर सुनने को मिलता। फ़ेवरेबुल बेन्च का रहस्य किसी से छिपा नहीं है। क्रिकेट से भी ज्यादा मैच फिक्सिंग न्यायपालिका में होती है। क्या पंजाब के एक वकील उत्सव बैंस को अपने समर्थन के लिए खड़ा करना और बिना स्टीकर के उसकी कार को सुप्रीम कोर्ट में प्रवेश की अनुमति देना मैच फिक्सिंग की प्रक्रिया का अंग नहीं है? सुप्रीम कोर्ट की ही वरिष्ठ अधिवक्ता इन्दिरा जयसिंह ने इसपर गंभीर आपत्ति दर्ज़ कराई है।

      केन्द्र में लोकायुक्त की नियुक्ति में विलंब को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की कई बार जबर्दस्त खिंचाई की थी। अब जबकि लोकायुक्त की नियुक्ति हो गई है, तो यौन उत्पीड़न जैसी संवेदनशील घटना की जांच की जिम्मेदारी लोकयुक्त को न सौंपकर अपने ही मित्र न्यायाधीश को सौंपना कहां का न्याय है? मुख्य न्यायाधीश द्वारा गठित अपने फ़ेवरेबुल बेंच से पीड़ित महिला को न्याय मिलना आकाश कुसुम पाने जैसा ही असंभव कार्य है। जस्टिस मिश्रा जिस मैच फिक्सिंग से इंकार करते हैं, वह तो हो चुकी है। हमें परिणाम भी पता है। पीड़ित महिला को तो जेल जाना ही है। वह हिम्मत वाली महिला वाकई आग से खेल रही है। अदालत से फैसला आने के पूर्व ही अपना फैसला सुनाने वाले टीवी चैनल, मोमबत्ती गैंग और पुरस्कार वापसी गैंग ने भी अपने मुंह में दही जमा लिया है। सुप्रीम कोर्ट का आतंक विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और प्राकृतिक न्याय की प्रक्रिया पर भारी पड़ रहा है। महिलाओं को सतर्क रहना पड़ेगा। उन्हें यह स्वीकर कर लेना चाहिए कि विशेषाधिकार प्राप्त लोगों द्वारा किए गए अपराधों के लिए उन्हें दंडित करने की व्यवस्था भारत के संविधान में नहीं है। मेरी तरह की आम जनता पीड़ित महिलाओं के साथ सिर्फ सहानुभूति व्यक्त कर सकती है। इससे आगे बढ़ने पर जस्टिस मिश्रा आग से खेलने की सज़ा देने के लिए तैयार बैठे हैं। धन्य है हमारा संविधान और धन्य है हमारी न्यायपालिका!

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