-बीनू भटनागर-
थोड़ी सी बूँदे गिरने से,
धूल बूँदों मे घुलने से,
हर नज़ारा ही साफ़ दिखता है।
रात सोई थी मैं,
करवटें बदल बदल कर,
शरीर भी कुछ दुखा दुखा सा था,
पैर भी थके थके से थे,
मन अतीत मे कहीं उलझा था।
खिड़की की ओर करवट लिये,
रात सोई थी मैं।
अचानक नींद खुली,
चार बजे थे तब,
दो ऊँची इमारतों के बीच,
चाँद सुनहरा सा,
चमक रहा था तब,
मानो मुझसे ही कुछ कहने के लिये,
रुका हुआ था वो।
चाँद तो रोज़ ही निकलता है,
पर रात मैं और वो थे बस।
कुछ उसने अपनी कहीं,
कुछ मेरी सुनी,
फिर बोला ‘’सो जाओ अब,
अभी सुबह मे दरी है।‘’
मैंने कहा,
‘’नींद नहीं मेरी सहेली है।‘’
वो बोला
‘’मुझे देखती रहो……’’
देखते ही देखते नींद ने,
मुझसे दोस्ती करली।
वो न जाने कब छुप गया,
फिर मिलने का वादा करके।
ऐसे ही पलों मे कभी कभी,
एक आध्यात्मिक अनुभूति होती है,
जो न पूजा,आरती या कीर्तन मे मिलती हो
जो न व्रत उपवास से खिलती हो,
ऐसे ही पलों से वो अपने होने का,
अहसास दे जाता है कभी कभी।