‘ज्योति जला निज प्राण की’

जब -जब भारत माता को अपनी ज्योति को ज्योतित रखने के लिए वीरों के प्राण रूपी तेल की आवश्यकता पड़ी है तब इस देश के अनेकों बलिदानियों ने मां भारती की सेवा में निज प्राणों की आहुति देकर राष्ट्ररक्षा, धर्म-रक्षा और संस्कृति रक्षा के लिए जीवन आहूत करने में देरी नहीं की है। आरएसएस का अपना इतिहास भी इस प्रकार के बलिदानों से भरा पड़ा है। इस तथ्य को श्रीमाणिकचन्द्र वाजपेयी और श्रीधर पराडकर जी ने अपनी पुस्तक ‘ज्योति जला निज प्राण की’ में जिस सुंदरता से स्पष्ट किया है उससे यह पुस्तक हर देश भक्त के लिए संग्रहणीय बन गयी है। लेखकद्वय ने तथ्यों को बड़ी सहजता से स्पष्ट किया है और अनावश्यक तीखी आलोचना करने से बचने का भी प्रयास किया है। जहां गांधीजी या नेहरूजी की प्रशंसा करने की आवश्यकता हुई है-वहां ऐसा करने में भी लेखक चूके नहीं हैं। जिससे पुस्तक की निष्पक्षता और भी अधिक प्रशंसनीय हो गयी है।
विभाजन के समय देश में आरएसएस की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण हो गयी थी। इसके हजारों कार्यकर्ताओं ने पंजाब, दिल्ली और पाकिस्तान के कई शहरों में रहकर अनेकों हिंदुओं की प्राणरक्षा की थी, इतना ही नहीं जहां आवश्यक समझ गया वहां उनकी मानवता ने मुस्लिमों की भी रक्षा की। यही कारण है कि उक्त पुस्तक का पहला अध्याय इन पंक्तियों से आरंभ होता है-‘‘पाकिस्तान से कुट पिटकर अपना सर्वस्व गंवा अपने संबंधियों की बलि चढ़ाकर जो भी भारत आ रहा था उसकी जबान पर एक ही नाम था-राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ। सभी हिंदू एक स्वर से कह रहे थे कि यदि संघ के लोग अपनी जान हथेली पर रखकर हमारी मदद को न आते तो जितने यहां आ सके हैं उतने भी न आ पाते।’’ उस समय श्री ए.एन. बाली ने लिखा था-‘‘पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थी भारत में चाहे जहां भी रह रहे हों, एक स्वर से यही कहेंगे कि वे सच्चे मानव संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के परम आभारी हैं। जब सबने उनका साथ छोड़ दिया था ऐसे आड़े समय में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने ही उनका साथ दिया।’’
बाली जी की यह भी मान्यता थी कि गांधीजी, सुचेता कृपलानी और डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे लोगों ने जो उस समय हमारे हिंदू भाइयों को अहिंसा पर चलने का परामर्श दिया था और उन्हें भगवान भरोसे  रहने को कहा था-वह केवल आदर्श परामर्श ही था, जो सुरक्षित दुर्ग की अटारी से दिया जा रहा था। तब मैदान में उतरकर लोगों की सहायता करने का दायित्व संघ ने संभाला था, जिसमें उसने अपने सैकड़ों कार्यकर्ताओं की बलि भी दे दी। उस समय के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने संघ के इस महान कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी ने 2 अक्टूबर 1949 के जालंधर से प्रकाशित आकाशवाणी साप्ताहिक के पृष्ठ 6-7 पर लिखा था-देश विभाजन के दुर्दिनों में संघ के नवयुवकों ने पंजाब और सिंध में अतुलनीय वीरता प्रकट की।
उन नवयुवकों ने आततायी मुसलमानों का सामना करके हजारों स्त्रियों व बच्चों के मान व जीवन बचाए। अनेक नवयुवक इस कत्र्तव्य पालन में काम आये। उन्होंने यह भी कहा कि साम्यवादियों के लिए लेनिन, स्टालिन तथा अन्य रूसी नेता देवता तुल्य हैं-जबकि संघ के नवयुवकों के लिए भारत माता के समान  पूज्य है, जिस पर सर्वस्व अर्पण करना ही वे अपना जीवनोद्देश्य समझते हैं।
उस समय गुरूजी ने भी मराठी के ‘पुरूषार्थ’ मासिक में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने बताया कि संघ के कार्यकत्र्ताओं की वीरता व शौर्य की प्रशंसा उन सैन्याधिकारियों ने भी की थी, जिनके सामने लोगों की रक्षा करने मंव संघ के कार्यकर्ताओं ने अपनी प्राणों की बाजी लगा दी थी। सैन्याधिकारियों का गुरूजी से कहना था कि-‘‘इन्हें (स्वयं सेवकों को) तुमने क्या और कैसी शिक्षा दी है? ये इतने साहसी व सूरमा कैसे बने? जो बात हमारी सेना के जवान नहीं कर सके वह पराक्रम ये कैसे दिखा सके?’’
यह संघ ही था जिसने पाकिस्तान से आ रहे अपने ही देशीय भाइयों को रिफ्यूजी या शरणार्थी मानने से इंकार कर दिया था। वसंतराव ओक ने ‘श्री गुरूजी: जीवन प्रसंग’ के पृष्ठ 32 पर लिखा लुटपिटकर पाकिस्तान से भारत आ रहे बंधुओं के लिए ‘रिफ्यूजी या शरणार्थी’ यह संबोधन संघ ने कभी स्वीकार नहीं किया। उन्हें विस्थापित कहा या पुरूषार्थी। संघ की यह मान्यता थी और है कि संपूर्ण राष्ट्र एक है, कोई अपने ही देश में शरणार्थी कैसे हो सकता है?
गुरूजी की और संघ की लोकप्रियता उस समय अपने चरम पर थी। पूरे पाकिस्तान में हर हिंदू की जुबान पर संघ का नाम रहता था।  यही कारण था कि 5 अगस्त 1947 को जब गुरूजी ने करांची में अपनी सभा का आयोजन किया तो वहां की तीन लाख हिंदू आबादी का आधा भाग उस मैदान में आ गया था- जहां गुरूजी ने अपना भाषण देना था। यही स्थिति हैदराबाद की थी जहां केवल 65000 हिंदू रहते थे  पर 7 अगस्त की सभा में 35000 हिंदू गुरूजी को सुनने के लिए सभा स्थल पर उपस्थित हो गये थे। यह वही हैदराबाद था-जिसमें 1946 में नेहरूजी ने भी एक सभा को संबोधित किया था। उस समय कांग्रेस ने पाकिस्तान की मांग स्वीकार नहीं की थी। ऐसे में नेहरूजी के पाकिस्तान की मांग के विरूद्घ बोलने पर किसी अप्रिय घटना की आशंका थी। तब कांग्रेसी नेता चिमनदास तथा लाला किशनचंद संघ के अधिकारियों के पास गये और उन्होंने नेहरूजी की सुरक्षा के लिए स्वयंसेवकों की मांग की।
सभा में भारी संख्या में स्वयंसेवकों के पहुंचने से किसी भी उपद्रवी का साहस उपद्रव करने का नही हो सका था। बाद में नेहरूजी और उनकी कांग्रेस लीग की पाकिस्तान की मांग के सामने आत्मसमर्पण कर गये तो यह संघ और उसके कार्यकर्ताओं को तथा हिंदू महासभा जैसे राष्ट्रवादी संगठन को बहुत ही बुरा लगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि कांग्रेस के नेताओं को अंत तक अपनी भूलों का प्रायश्चित नहीं हुआ। ‘भारत विभाजन के अपराधी’ में उन्हें डा. राममनोहर लोहिया जैसे चिंतक और समाजवादी नेता ने भी यह कहकर लताड़ा था कि-‘‘पश्चात्त्ताप से प्राय: पाप धुल जाता है, किंतु जिनकी आत्मा को विभाजन के कुकृत्य पर संतप्त होना चाहिए था-वे ही लोग अपनी अपकीत्र्ति की धूल में लोट लगाकर प्रसन्न हो रहे हैं। आइये, जनता ही पश्चात्ताप कर ले, न केवल अपनी भूल चूक के लिए बल्कि अपने नेताओं के कुकर्मों के लिए भी ….।’’
संघ को भी इस बात का दु:ख रहा कि जिन कांग्रेसियों पर 1945 के आम चुनावों के समय भरोसा कर देश की सत्ता सौंपने का जोखिम उठाया गया उन्हीं कांग्रेसियों ने 3 जून 1947 को बिना देश को विश्वास में लिए देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं 14 अगस्त 1947 तक जो लोग ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे थे, उन्हें भारत में रखने पर भी अपनी सहमति व्यक्त कर दी। इस पर सत्यदेव नारायण ने लिखा था-‘‘यदि मैं मुसलमान होता। मैंने रात दिन पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाये होते, अपने पड़ोसी हिंदू के साथ मैं नहीं रह सकता- क्योंकि हम अलग अलग राष्ट्र हैं- यह कहा होता और फिर पाकिस्तान बनने के बाद उन्हीं हिंदुओं के साथ रहने की नौबत आ गयी होती तो हिंदू मेरे बारे में क्या सोचता-यह अलग प्रश्न है, प्रश्न यह है कि मैं अपने बारे में क्या सोचता? मेरी स्वयं की नजरों में मेरी क्या स्थिति होती? क्या मैं आत्मग्लानि से मर नहीं जाता? क्या मैं अपने से न पूछता कि यदि हिंदुओं के ही साथ रहना था तो पाकिस्तान की मांग क्यों की? और भारत में रहे अधिकांश मुसलमान इसी श्रेणी में आते हैं।’’
अपने इस भारत के साथ संघ का ममत्व भरा संबंध रहा है। जिसे पं. दीनदयाल उपाध्याय जी ने यह कहकर स्पष्ट किया था कि हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है। केवल भारत नहीं। माता शब्द, हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र रह जाएगा। इस भूमि का और हमारा ममत्व तब आता है जब माता वाला संबंध जुड़ता है।
गांधीजी के विषय में पुस्तक की यह पंक्तियां उद्घृत करने योग्य हैं-‘‘गांधीजी आजादी की लड़ाई के दौरान भी कांग्रेस को सचेत करते थे कि वह सत्ता के न्यायसंगत बंटवारे के साम्राज्यवादी षडय़ंत्र में न फंसे। अंग्रेजों के बताये गये अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के समीकरणों को अनावश्यक वैधता प्रदान न करे। परंतु सत्ता पाने के लिए उतावली कांग्रेस ने उन्हें न सुना। आज भी सैक्यूलर नेता उसी साम्राज्यवादी नारे के शिकार हैं।’’
यही संघ था-जिसने पंजाब में 30000 पंजाबी मुसलमानों की सुरक्षा करते हुए और उनके भोजनादि की व्यवस्था करते हुए उन्हें पाकिस्तान भेजने में सहायता की थी। उस समय आबादी की अदला-बदली में बड़ी संख्या से लोग मरे थे, जिस पर अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। यह संख्या और भी बढ़ जाती, यदि उस समय संघ के कार्यकर्ता सामने न आते।
यद्यपि उन्हें इस महान कार्य में अलग-अलग स्थानों पर अपने 500 से अधिक कार्यकर्ताओं का बलिदान देना पड़ा था-जिन्हें लेखकों ने स्पष्ट किया है। गुरूजी की पीड़ा को आज देश का हर देशभक्त नागरिक समझ रहा है और उन बलिदानियों का बलिदान रंग ला रहा है, तभी तो देश में एक मनोरम बयार का सर्वत्र अनुभव हो रहा है।
1961 में यादव राव जोशी ने कहा था कि-‘‘14 अगस्त को जो भूमि भारत से कटी उसका दु:ख नहीं। दु:ख इस बात का है कि हमने यह याद ही छोड़ दी कि वह भूमि हमारी है, भारतमाता का ही एक अंग है और हम उसे वापस लेंगे। उलटे हमारे नेता ही जनता को समझाने लगे कि वह भूमि हमारी नहीं। आज भी वह कहते हैं कि पाकिस्तान एक बिल्कुल पृथक राष्ट्र है। भू प्रदेश गया दु:ख उसका नहीं-जिस प्रवृति के कारण गया दु:ख उसका है।’’
जो लोग इस देश की भूमि से माता पुत्र का संबंध रखते हैं-वही जानते हैं कि मातृभूमि के कटने की वेदना कितनी होती है और जो इसे ‘डायन’ कहते हैं उनके लिए तो यह एक भूमि का टुकड़ा मात्र है, मां पुत्र का संबंध रखने वालों का इससे शाश्वत संबंध है जिससे इस देश की संस्कृति का निर्माण होता है, जबकि इसे भूमि का टुकड़ा मानने वालों से इसका कोई संबंध नहीं है उस विचार से हमारी ‘विकृति ’ का निर्माण हुआ है। अब संस्कृति और विकृति में से किसी एक के चयन करने का समय आ गया है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here