काट औ छाँट जो रही जग में !

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काट औ छाँट जो रही जग में,
दाग बेदाग़ जो रहे मग में;
बढ़ा सौन्दर्य वे रहे प्रकृति,
रचे ब्रह्माण्ड गति औ व्याप्ति !

 

कष्ट पत्ती सही तो रंग बदली,
लालिमा ले के लगी वह गहमी;
गही महिमा ललाट लौ लहकी,
किसी ने माधुरी वहाँ देखी !

 

सेब जो जंगलों में सेवा किये,
दे के फल पक्षियों को पाला किये;
काटे वे कीट से गये जब तब,
हो के बद-रंग मनुज कब भाए !

 

देह मन भोगे बिपद औ बाधा,
कहाँ सुन्दर वे रहे मर्यादा;
आत्म का स्वाद कौन पहचाना,
कृष्ण अन्तस की लखी कब राधा !

 

विराट विश्व द्रश्य है चमका,
बहार बहावों में रस उनका;
महकता ‘मधु’ है मर्म हर में,
छवि हर बिखरी प्रभु के उर में !

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