कब तक सताई जाती रहेंगी, अबला निर्भयाएं!

0
176

(लिमटी खरे)

लगभग सात साल पहले 2012 में जब दिल्ली में निर्भया काण्ड के चलते जनाक्रोश चरम पर था, तब माना जा रहा था कि केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा रियाया के मन को पढ़ लिया जाएगा और इस तरह के जघन्य कृत्यों पर विराम लग पाएगा। एक के बाद एक घटते घटनाक्रमों से लग नहीं रहा है कि जल्द ही इस तरह के घिनौने और माफ न किए जाने वाले कामों को रोकना हुक्मरानों के बस में है। हाल ही में हैदराबाद में एक महिला डाक्टर के साथ घटी घटना ने देश को झझकोर कर रख दिया है। सोशल मीडिया पर तो चीख पुकार मची है पर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया का मौन आश्चर्य जनक है!

2012 में 16 दिसंबर को देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली के मुनरिका में आधा दर्जन लोगों के द्वारा पैरामेडिकल की एक छात्रा से गेंगरेप कर दरिंदगी की सारी हदों को पार कर लिया गया था। पीड़िता और उसके पुरूष मित्र को दोषियों ने मारपीट कर बस से फेंक दिया गया था। दो दिन बाद आरोपियों को पुलिस ने पकड़ा था। सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 में 05 मई को इस काण्ड को सदमे की सुनामी तक करार दिया गया था।

जब देश इस मामले में उबल रहा था तब सरकार सहित सियासी दलों और समाज के एक बड़े तबके ने यह संकल्प लिया था कि इसके बाद निर्भया जैसी हरकतों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उस दौरान लगा था मानो इस तरह की दरिंदगी और वहशीयाना हरकतों पर विराम लग जाएगा। इस दौर में जिस तरह का माहौल बना था, उससे हुक्मरानों पर इस बात का जबर्दस्त दबाव था कि देश की बालाओं की सुरक्षा ही सरकारों की अहम जिम्मेदारी है।

पिछले लगभग एक सप्ताह में रांची के बाद हैदाराबाद में हुए घटनाक्रम यही साबित कर रहे हैं कि 2012 के बाद जो कुछ भी हुआ था वह समय के साथ घटा घटनाक्रम था। सरकारों के साथ ही साथ रियाया ने भी इसे बिसार ही दिया। रांची में एक छात्रा का अपरहण कर उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ था।

इसके बाद हैदराबाद में जो हुए वह मानवता को शर्मसार करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है। एक महिला पशु चिकित्सक के दो पहिया वाहन के पंचर हो जाने पर उसके साथ मदद के नाम पर जो कुछ हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। इस मामले में सोशल मीडिया पर तो गुस्सा उबाल पर दिख रहा है, किन्तु प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया आश्चर्य जनक रूप से खामोश ही दिख रहा है।

ये दोनों ही घटनाएं प्रदेशों की राजधानी में घटित हुई हैं, इसलिए ये लोगों की नजरों में आ गई हैं। सुदूर ग्रामीण अंचलों में आज भी इस तरह के घटनाक्रम हो रहे हों और ये लोगों की नजरों में नहीं आ पा रहे हों तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ये दोनों ही घटनाएं इस ओर इशारा करती दिख रहीं हैं कि निर्भया काण्ड के बाद हुक्मरानों ने जो भी कदम उठाए हैं वे इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए पर्याप्त नहीं थे।

निर्भया काण्ड के उपरांत कानून में कुछ बदलाव भी हुए थे। इनमें मुख्यतः बलात्कार से जुड़े कानूनों में बदलाव ही प्रमुख माने जा सकते हैं। इसमें बदलाव लाने के लिए जस्टिस जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन भी किया गया था। इस समिति ने अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे। इसके बाद कानून में बदलाव भी हुए थे। कानून में बदलाव के साथ ही इस तरह की घटनाओं में कड़े दण्ड का प्रावधान भी इस मंशा के साथ किया गया था कि बलात्कारियों को कड़ा दण्ड देकर एक संदेश लोगों के बीच दिया जाए ताकि इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोका जा सके।

अमूमन नशे की हालत में मनुष्य का दिमाग काम करना बंद कर देता है। नशे की हालत में व्यक्ति जो भी सोचता है उसे ही वह सही मान बैठता है। इसके बाद उसके द्वारा किए गए व्यवहार, बर्ताव, मारपीट आदि के बारे में उसे भी पता नहीं होता है कि वह क्या कर रहा है। कहा जाता है कि नशे में व्यक्ति काफी हद तक उग्र भी हो जाता है। लोग इस बात को बेहतर जानते हैं उसके बाद भी हुक्मरानों के द्वारा नशे के खिलाफ तो कानून बनाए जाते रहे हैं पर नशे का उत्पादन रोकने के लिए किसी तरह के प्रयास नहीं किए जाते हैं।

2012 में हुए निर्भया काण्ड के आरोपियों को अब तक फांसी पर नही लटकाया जा सका है। इसे क्या माना जाए। देश में कानूनी व्यवस्था में इतने छेद और पेंच छोड़ दिए गए हैं कि आरोपी को दोषी करार दिए जाने के बाद उसे दी गई सजा को मिलने में ही सालों बीत जाते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि कानून में संशोधन किया जाए और जघन्य अपराधों की सुनवाई के लिए समय सीमा तय की जाए। इसके अलावा निचली अदालतों के द्वारा अगर किसी को दोषी करार दिया जाता है तो बड़ी अदालतों में इन प्रकरणों को हल करने में समय सीमा निर्धारित की जाए।

निर्भया काण्ड में जिस बेटी के साथ यह सब हुआ उसकी मॉ अभी भी अदालतों के चक्कर काटे जा रहे हैं। निर्भया मामले में फैसला आने के बाद अब मामला राष्ट्रपति के पास दया याचिका के रूप में लंबित है। कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति ने दया याचिका को सरकार के पास भेज दिया गया है। देखा जाए तो सजा की प्रक्रिया की धीमी गति ही अपराधियों के हौसले बुलंद करती नजर आती है।

समाज शास्त्री भी मानते हैं कि अपराध करने वाले को बच निकलने के रास्तों को बंद कर दण्ड देने के मामले में कड़े कदम उठाने जरूरी है। यह काम अपराध कम करने में सहायक हो सकता है पर इससे अपराध खत्म होने की गारंटी कतई नहीं दी जा सकती है।सरकारों को यह सोचना होगा कि इस तरह के अपराधों में बढ़ोत्तरी कब से हुई और इसके कारक क्या हैं! कहीं टीवी पर लगातार ही फैल रही अश्लीलता और विवाहेत्तर संबंधों का टीवी पर बेहिचक परोसना कारण तो नहीं है! सरकार के पास अन्वेषण, रिसर्च आदि का दल प्रथक से होता है। सरकारों को चहिए कि इस बारे में हर पहलू पर गंभीरता से विचार कर ठोस कदम उठाए जाएं ताकि इस तरह की घटनाओं को रोका जा सके।

Previous articleवो 2-3 दिसम्बर की दरम्यानी रात…
Next articleस्तन कैंसर से होने वाली मौतों को रोकने के लिए और जागरूक होने की जरूरत
लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here