कभी कुछ भी नज़र नहीं आए !

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कभी कुछ भी नज़र नहीं आए !
शिकागो के गगन से

 

कभी कुछ भी नज़र नहीं आए,
धुँधलका आसमान में छा जाए;
श्वेत बादल बिछे से नभ पाएँ,
व्योम में धूप सी नज़र आए !

 

ज्योति सम-रस सी रमी मन भाये,
मेघ लीला किए यों भरमाएँ;
धरा से देख यह कहाँ पायें,
रुचिर शोभा में शून्य स्वर आये !

 

नहीं कुछ द्रष्टि में यहाँ आये,
यात्री विश्वास यान धर धाये;
मार्ग अवरुद्धता कभी पाए,
उड़ता ऊपर है वह चला जाये !

 

रहे जीवन भी कभी ऐसे ही,
परे नीरसता रस से ओझल भी;
साधना करके मन उठा चलना,
प्रयोजित होता है ध्यान धरना !

 

धारणा समाधि प्रचुर करके,
समर्पण इष्ट में गति करके;
पार हो जाते ‘मधु’ के झटके,
पराशक्ति से बनें जब रिश्ते !

 

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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