कहो कौन्तेय-५८ (महाभारत पर आधारित उपन्यास अंश)

(श्रीकृष्ण का विराट रूप दर्शन और महासमर की घोषणा)

विपिन किशोर सिन्हा

दुर्योधन का क्रोध दावानल की भांति बढ़ता जा रहा था। सांप की तरह फुफकारते हुए अपने सैनिकों को आदेश दिया –

“मथुरा के कारागार में जन्म लेनेवाले इस यादव को इसके मूल स्थान पर भेजना अत्यन्त आवश्यक है। बांध लो इस छलिया को और डाल दो कारागृह की अंधी कोठरी में, जहां प्रकाश की एक किरण भी न पहुंचने पाए। धूर्त पाण्डवों का यही मुख्य सलाहकार है। इसके बिना उनकी अवस्था नख-दन्त विहीन सिंह और बिना मणि के नाग जैसी हो जाएगी। हस्तिनापुर की ओर वे आंख उठाकर देखने का साहस भी नहीं कर पाएंगे । भिक्षाटन द्वारा जीवन यापन करना ही उनकी नियति बन जाएगी। शीघ्रता करो, यह जादूगर भागने न पाए।”

जिसने अपने तीन पगों से तीनो लोकों को नाप दिया था, उसी को बांधने के लिए दुर्योधन उद्यत हो रहा था। मूर्ख का सबसे प्रिय मित्र मौन होता है। इस तथ्य को भूल जब भी वह चतुर बनने के प्रयास में मुंह खोलता है, उसका यथार्थ जगत के सामने प्रकट हो जाता है।

कोई बालक चन्द्रमा को उछल कर छू सकता है? वायु को हाथ में पकड़ा जा सकता है? पृथ्वी को सिर पर उठाया जा सकता है? कदापि नहीं। लेकिन जड़बुद्धि मूर्ख ऐसा प्रयास करते हैं।

सात्यकि, कृतवर्मा, भगवान वेदव्यास, महर्षि परशुराम, महर्षि कण्व, देवर्षि नारद और महात्मा विदुर ने पलक झपकते श्रीकृष्ण के चतुर्दिक एक सुरक्षा घेरा बना लिया। लेकिन वे पर्वत की भांति अविचल रहते हुए सम्मोहक मुस्कान बिखेर रहे थे। सबसे अपना-अपना आसन ग्रहण करने का आग्रह किया। उनका मेघ गर्जन जैसा स्वर पुनः राजसभा में गूंजा –

“अज्ञानी दुर्योधन, जाओ, तुम्हारे राज्य में जितनी और जिस तरह की भी शृंखलाएं उपलब्ध हों, सब मंगवा लो और सामर्थ्य हो, तो मुझे बांध लो। यह गगन, यह पवन, यह धरती वह समुद्र, ये ग्रह, वे नक्षत्र, यह सूर्य, वह चन्द्रमा, सबके सब मेरे भीतर समाए हैं। मूर्ख! किस किसको बांधोगे? विश्वास नहीं, तो सबको एकसाथ देखो – यदि तेरी आंखों में शक्ति हो।”

श्रीकृष्ण ने अट्टहास किया और बंद कर लिए अपने विशाल नेत्र। उनके अंगों से निकली विद्युत-कान्ति से संपूर्ण सभागृह आलोकित हो उठा। सबकी आंखें चौंधिया गईं। उनकी ओर देखने का अर्थ था – धृतराष्ट्र की अवस्था को प्राप्त हो जाना। सिर्फ भीष्म, विदुर, संजय और ऋषि-महर्षियों ने ही इस अद्‌भुत दृश्य को अपनी आंखों से देखा और सार्थक किया अपन जीवन।

आदित्य, रुद्र, वसु, समस्त देवता और महर्षिगण उस विराट रूप के भिन्न-भिन्न अंगों में अंगुष्ठाकर दृष्टिगत हो रहे थे। ललाट में ब्रह्मा, वक्षस्थल में रुद्र, भुजाओं में लोकपाल, मुख में साक्षात अग्निदेव विद्यमान थे। इन्द्र, विश्वदेव, अश्विनी कुमार , यक्ष, गंधर्व और राक्षस – सबके सब शरीर से अभिन्न प्रतीत होते थे। दाईं भुजा से अर्जुन और बाईं भुजा से बलभद्र प्रकट हुए। भीम, युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव पृष्ठ भाग में, सात्यकि, प्रद्युम्न सामने दीख रहे थे। असंख्य भुजाएं वातावरण में लहरा रही थीं – किसी में शंख था, किसी में चक्र था, किसी में गदा थी, तो किसी में धनुष था। ऐसा लग रहा था कि विराट दिव्य शरीर से निकलने वाले असंख्य प्रकाश -वलयों से सभागृह के कठोर पाषाण-स्तंभ कही पिघल न जाएं। समस्त कुरुयोद्धा, सेवक-सेविकाएं उस तेज के आगे नतमस्तक थे, लोट रहे थे।

“युद्ध! महायुद्ध!! विनाशकारी युद्ध!!! यही एक विकल्प शेष बचा है। इस महाविनाश से निर्माण का बीज अंकुरित होगा। अब कोई संधि नहीं, कोई प्रस्ताव नहीं। मैं स्वयं भयंकर युद्ध की ज्वाला प्रकट करूंगा जिसमें अन्याय और अधर्म की राह पर चलने वाले दुरात्मा धू-धूकर जल उठेंगे। जिस मिट्टी से तुमलोगों ने जन्म लिया है, जिसके रस से सिक्त धन-धान्य खाकर तुम्हारा पालन-पोषण हुआ है, उसी मिट्टी में तुम्हारे अपवित्र शरीरों को चैतन्यहीन करके मिला दूंगा। अपनी प्रतिज्ञा से बद्ध यद्यपि मैं स्वयं शस्त्र-धारण नहीं करूंगा, फिर भी अर्जुन, भीम और धर्म के पक्ष में आए युयुत्सु योद्धाओं के माध्यम से धरती पर भार बने तुम्हारे गर्वीले उन्मत्त शरीरों को कुरुक्षेत्र की मिट्टी में एकरूप कर धूल-धूसरित कर दूंगा। यह महासमर संसार को तुम्हारे अहंकार, अन्याय, अधर्म, पथभ्रष्टता, कपट, क्रूरता और प्रतिशोध की कथा पीढ़ियों तक सुनाता रहेगा।”

सभा सन्न थी, चुप थी, अचेत थी या मृत थी; श्रीकृष्ण ने देखने-सुनने की आवश्यकता नहीं समझी। विद्युत वेग से बाहर निकल गन्तव्य की ओर प्रस्थान किया। उन्हें कौन रोक सकता था, कौन बांध सकता था?

माता कुन्ती विदुरजी की कुटिया में थीं। वनवास के बाद पुत्रों के अनिश्चित भविष्य को लेकर मानसिक द्वंद्व मे उलझी थीं। हस्तिनापुर छोड़ने के पूर्व, श्रीकृष्ण ने उनके दर्शन किए। श्रीकृष्ण के मुख से युद्ध का निर्णय सुन उनके क्लान्त मुखमण्डल पर अचानक प्रसन्नता की चमक उभर आई, बोलीं –

“पुत्र कृष्ण! तुम पाण्डवों से कहना कि क्षत्राणियां जिस कार्य के लिए पुत्र उत्पन्न करती हैं, उसे पूरा करने का समय आ गया है। तुम युधिष्ठिर से कहना कि पृथ्वी का पालन करना उसका धर्म है। इसे वृथा न खोए। इस समय वह अपनी बुद्धि से जिस संतोष को लिए बैठा है, उसे मैंने, उसके पिता पाण्डु ने या पितामह ने कभी नहीं चाहा। मैं सर्वदा उसके यज्ञ, दान, तप, शौर्य, प्रज्ञा, महत्ता, बल और ओज की कामना करती हूं। क्षत्रिय के लिए भिक्षावृत्ति निषिद्ध है। उसके लिए उसका बाहुबल ही आजीविका का साधन है। उसके जिस पैतृक राज्य को शत्रुओं ने हड़प लिया है, उसे अपने पराक्रम द्वारा पुनः प्राप्त करना उसका प्रथम कर्त्तव्य है। मैं उसे युद्ध करने कि आज्ञा देती हूं।

हे कृष्ण! भीम को मेरा संदेश देना कि शत्रुओं का संहार करने के लिए ही उसका जन्म हुआ है। ईश्वर ने उसे दस सहस्र हाथियों का बल, भोजन और शयन के लिए नहीं दिया है। शत्रुओं का दमन और जय प्राप्त करने का समय आ गया है। इसे वह गंवाए नहीं।

केशव! तुम अर्जुन से कहना कि उसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि वह इन्द्र के समान तेजस्वी होगा, वीरवर भीमसेन के साथ युद्धभूमि में अपने रणकौशल, अद्वितीय पराक्रम और अलौकिक शौर्य से शत्रुओं को व्याकुल कर देगा, कौरवों को जीतकर, अपने पैतृक राज्य को प्राप्त करेगा और अपने भ्राताओं के साथ तीन-तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा।

नकुल और सहदेव से कहना कि वे किसी की कृपा से प्राप्त राज्यलक्ष्मी कि कामना न करें। वे दोनों महापराक्रमी हैं। उन्हें अपने प्राणों की बाजी लगाकर पराक्रम से प्राप्त भोगों को भोगने की इच्छा करनी चाहिए।

गोविन्द! मेरी पुत्रवधू द्रौपदी से कहना कि वह एक उत्तम कुल में उत्पन्न हुई है। उसने सदैव धर्मानुकूल व्यवहार किया है। वह धैर्य रखे। मेरे पराक्रमी पुत्र उसके एक-एक अपमान का गिन-गिनकर बदला लेंगे।

माधव! मुझे राज्य को द्यूत में हार जाने या पुत्रों के वनवास का दुख नहीं है। मेरे हृदय में जो बात शूल बनकर चुभती है, वह है मेरी सुशीला युवती पुत्रवधू का भरी सभा में घोर अपमान। पति के स्वर्गवास के समय भी मुझे उतना दुख नहीं हुआ था जितना द्रौपदी के चीरहरण को याद करके होता है। मेरे पांचो पुत्रों के जीवन के वे सबसे अपमानजनक क्षण थे। भीम और अर्जुन को उन क्षाणों की याद दिला देना। द्रौपदी, पाण्डव और मेरे पौत्रों को मेरे आशीर्वाद कहना।”

श्रीकृष्ण ने मां कुन्ती को प्रणाम किया, प्रदक्षिणा की और विराटनगर के लिए प्रस्थान किया।

क्रमशः 

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