कलियुग, मानव और व्यवस्था

राकेश कुमार आर्य

 

कलियुग को लोग अक्सर कोसते हैं। कहते हैं कि घोर कलयुग चल रहा है, कब क्या हो जाए? कुछ नही कहा जा सकता। मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि वह अपने दोषों को, त्रुटियों को अथवा भूलों को छिपाने के लिए दूसरों पर दोषारोपण करने में शीघ्रता करता है। कलियुग चल रहा है-ये तो माना जा सकता है पर चला कौन रहा है? चलाने वाला तो मनुष्य ही है ना। जो मनुष्य सत्ययुग में था वही आज भी है। पर सत्ययुग का सत्यवादी हरीशचंद्र आज सत्यवादी और धर्मवादी नही रहा-पर इसे मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए इस प्रकार कहना आरंभ कर दिया है कि मनुष्य यदि अपनी भूमिका से भटक रहा है-तो यह युग का प्रभाव है। वास्तव में मनुष्य के कृत्य ही काले हैं उसके हर कार्य में कालापन है और अपने इसी कालेपन को छिपाने के लिए वह युग को दोषी ठहराता है।

धार्मिक क्षेत्र में स्थिति और भी विकट है। लोग किसी की जमीन पर अवैध कब्जा करते हैं। रातों रात उस पर अवैध निर्माण करते हैं। पुलिस और अधिकारियों से पहले ही सांठगांठ करते हैं और उनके सुविधा शुल्क का पूरा ध्यान रखते हैं। फिर उस भूमि पर रातों-रात एक मूत्र्ति की स्थापना की जाती है। सुबह एक दूसरे के विरूद्घ प्राथमिकी दर्ज होती है। अधिकारियों से पहले से ही मिलीभगत के कारण प्रकरण में झूठी आख्या लगाई जाती है कि अमुक स्थान पर तो देवमूत्र्ति लगी है, जो कि 15-20 वर्ष पुरानी प्रतीत होती है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए न्यायालयों में झूठे गवाह प्रस्तुत किये जाते हैं। गवाह और भी अधिक आगे चले जाते हैं-कहते हैं कि देवमूत्र्ति अब से लगभग 40-50 वर्ष स्थापित की गयी थी। यदि गवाह 40-50 वर्ष से कम आयु का है तो कहता है कि मूत्र्ति मेरी याद से भी पहले की है। इसके पश्चात न्यायालय से केस जीतने की सारी युक्तियां खोजी जाती हैं। ….और एक दिन केस जीत लिया जाता है। तब उसी देवमूत्र्ति की ‘कृपा’ से अभिभूत झूठा केस डालने वाला व्यक्ति भण्डारे तथा कीर्तन का आयोजन करता है। बड़ी संख्या में लोग आते हैं। सब मुकदमा जीतने और झूठी देवमूत्र्ति के संवैधानिक होने की प्रक्रिया पर उस व्यक्ति को बधाईयां देते हैं। इस प्रकार एक झूठ का पूर्णत: संवैधानीकरण हो जाता है। इस सारे खेल में कलियुग तो कहीं नही लग रहा। हां, कलियुग के व्यक्ति, कलियुग के अधिकारी, कलियुग के महात्मा और कलियुग के न्यायालय अवश्य लगे हैं, फिर भी कलियुग के लिए दोष देना कितनी बुद्घिमानी है? ऐसे खेल हम समाज में नित्य देखते हैं, जब अन्याय को न्याय के रूप में स्थापित करने के लिए रातों-रात कहानियां गढ़ी जाती हैं और प्रात:काल उन पर व्यवस्था की मुहर लगवा ली जाती है।

ऐसा नही है कि समाज में व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य ही ऐसा होता है। आज की सारी व्यवस्था ही इसमें लिप्त है। जब धर्म को खुलेआम सडक़ों पर बेचा जा रहा हो, तब न्याय की अपेक्षा व्यवस्था से नही की जा सकती। अब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र और राज्य सरकारों को फटकार लगायी है कि केन्द्र और प्रांतों की सरकारें समय  पर सरकारी जमीनों पर अवैध अतिक्रमण करने वालों पर कठोर कार्यवाही नही करातीं। जबकि बहुत से धार्मिक स्थलों को लोग जानबूझकर सार्वजनिक मार्गों में बना लेते हैं। सरकारी संपत्ति पर कब्जा करने का यह एक उत्तम मार्ग है। देश के कितने ही सडक़ मार्ग ऐसे हैं जिनके बीचों-बीच धर्मस्थल बना दिये गये हैं और लोग हैं कि उन्हें हटाने को तैयार नही होते हैं। जबकि किसी धार्मिक व्यक्ति का कार्य देश की आम सहमति और मुख्यधारा में बाधा न पहुंचाकर उसे और भी अधिक बलवती करने का होता है। पिछले दस वर्षों में मा. सर्वाेच्च न्यायालय ने केन्द्र और राज्य सरकारों को ऐसा करने से कई बार टोका है। वोटों की राजनीति में व्यस्त हमारी सरकारों और अधिकारियों के पास इस प्रकार के प्रकरणों में पडऩे की बजाए इनसे बचने का प्रयास किया जाता है। कहने का तात्पर्य है कि सारी व्यवस्था ही दोषी है-पर व्यक्ति या व्यवस्था अपना दोष न मानकर अपने दोष को भी दूसरों के ऊपर डालने का प्रयास कर रही हैं। सरकारों की ऐसी मानसिकता के कारण न्याय और न्यायालयों की गरिमा को ठेस लगती है, और धर्म अनावश्यक ही अपयश का भागी होता है।

यह तर्क उचित नही है कि राज्य सरकारों पर मा. सर्वोच्च न्यायालय को सदा कड़ी नजर रखते हुए अपने निर्देशों का पालन सुनिश्चित करने के लिए उचित दबाव डालना चाहिए। न्यायालय की अपनी सीमाएं हैं, इसलिए उसे अपनी सीमाएं जानते हुए अपना कार्य करके पीछे हट जाना चाहिए और न्यायालय के आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए सरकारों को आगे आना चाहिए। कार्यपालिका का यह विशेष दायित्व है कि वह कानून व्यवस्था को बनाये रखे।

किराये के ‘झूठे भगवानों’ को मार्गों के बीच में बैठाने की हमारी प्रवृत्ति से स्वयं भगवान भी अप्रसन्न ही होंगे। पर हम अपनी प्रवृत्ति से बाज नही आ रहे हैं। महाभारत का एक प्रसंग यहां उल्लेखनीय है।  अर्जुन ने एक बार एक बड़ा यज्ञ कराने का निर्णय लिया। उन्होंने उस समय के एक प्रसिद्घ विद्वान के पास अपने अधिकारियों को भेजा कि उन्हें यज्ञादि कराने के लिए लेकर आओ।

राज्य कर्मचारी अर्जुन के आदेश को पाकर उस ब्राह्मण के पास पहुंचे। कर्मचारियों ने उस ब्राह्मण से कहा कि यदि आप हमारे साथ चलते हैं तो आपको भारी दक्षिणा मिलेगी। यह सुनकर ब्राह्मण ने नीची नजरें कर लीं। उन राज्यकर्मियों ने पुन: दूसरी बार वही बात दोहराई तो इस बार वह ब्राह्मण रोने लगा। राज्यकर्मचारी यह देखकर आश्चर्य में पड़ गये और वहां से अर्जुन के पास लौट आये। तब अर्जुन को उन्होंने पंडित जी के न आने का सारा वृत्तांत सुना दिया। तब उन्होंने अर्जुन से उस ब्राह्मण के रोने का कारण जानना चाहा। पर यह क्या? ये तो स्वयं अर्जुन भी ब्राह्मण के वृत्तांत को सुनकर रोने लगे।

इसके पश्चात तो उन राज्यकर्मिचारियों का कौतूहल और भी अधिक बढ़ गया। तब उन्होंने सोचा कि क्यों न इस समस्या का निदान श्रीकृष्णजी से पूछा जाए? इसलिए वे सभी श्रीकृष्णजी के पास चल दिये। वहां पहुंचकर उन लोगों ने कृष्णजी को भी सारा वृत्तांत कह सुनाया। जिसे सुनकर कृष्णजी पहले तो हंसे पर बाद में वे भी रोने लगे। राज्यकर्मियों ने सोचा कि बड़ी विचित्र बात हो रही है जिसके पास भी जाते हैं वही रोने लगता है। तब उन्होंने कृष्णजी से पुन: अनुरोध किया कि महाराज कृपा करके हमें हमारी समस्या का निदान दो। कृष्णजी बोले-‘‘देखो वह ब्राह्मण इसलिए रोया कि आपने उससे दक्षिणा की बात कह दी। उसने समझा कि आप उसे लालची समझते हैं। अर्जुन इसलिए रोया कि शायद मेरे अन्न में पाप है। इसीलिए उस ब्राह्मण ने उसे स्वीकार नही किया। ….और मैं …..मैं इसलिए मुस्कराया कि आज जबकि कलियुग आरंभ हो चुका है तो आज भी ऐसे ब्राह्मण और क्षत्रिय हैं, और रोया इसलिए कि आगे चलकर यह अवस्था रहेगी नही। ब्राह्मण बिगड़ जाएंगे क्षत्रिय भी बिगड़ जाएंगे। सबके मन में लोभ जाग जाएगा। तप और त्याग की भावना रहेगी नही। लोग अपनी संस्कृति को भूल जाएंगे। तप के महत्व को भूल जाएंगे।’’

आज कृष्णजी की बात सत्य हो रही है, ब्राह्मण भगवान को बेच रहा है, ‘अर्जुन’ उसमें सहायक है और कृष्ण (सुप्रीम कोर्ट) चुप एक कोने में खड़ा अपने आदेशों की अवहेलना होती देखकर दु:खी है। विषम परिस्थिति है। मानव की चाल ढाल बिगड़ गयी है, अपनी व्यवस्था को अपने आप बिगाड़ रहा है और दोष कलियुग को दे रहा है।

 

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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