कनिष्क: वो दरिया था,आकर उन्हे बुझा जाता

0
213

मैं शौक से मनाता जश्न उनकी जीत का
उस रौशनी में लेकिन कई घर जल रहे थे
मलाल तो था जरूर उनके जलने का
उनकी छावं मे हम कब से पल रहे थे
वो दरिया था,आकर उन्हे बुझा जाता
दूर कहीं शायद पत्थर पिघल रहे थे
नही थी खबर ज़िन्दगी बसती हैं यहीं
हम तो बस यूं ही उधर से निकल रहे थे
कैसे गुजारे तुमने इतने दिन मेरे बगैर
ये पुछ्ने को मेरे अरमां मचल रहे थे
मैंने न झुकाया पलकों को पल भर
उन्हे देख कर हर गम बहल रहे थे
उस रोज तो रास्तों ने सलाम किया
उस रोज वो मेरे साथ चल रहे थेcouple-holding-hands

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here