कनु भाई पर क्यों सहानुभूति?

mahatma-gandhikanubhaiविवेक सक्सेना

पत्रकारिता में मैंने जो सबसे अहम बात सीखी और याद रखी, वह यह है कि लोगों की याददाश्त जितनी कमजोर होती है तो जानने की इच्छा उतनी ही प्रबल होती है। कम से कम जिस तरह से महात्मा गांधी के पोते कनु भाई मीडिया पर छा गए है उससे तो यह एक बार फिर सच साबित हुई है। मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक यह खबर गर्म है कि महात्मा गांधी के पोते कनु भाई अपनी पत्नी डा. शिवलक्ष्मी के साथ दिल्ली की सीमा पर स्थित एक वृद्धाश्रम में रह रहे हैं।
बदरपुर के निकट स्थित गुरु विश्राम वृद्धा आश्रम में उनसे मिलने आने वालों का ताता लग गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फोन पर उनका हाल-चाल पूछ रहे हैं। केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा उन्हें देखने जा रहे हैं। चैनलों के रिपोर्टर वहां पहुंच कर उनका इंटरव्यू ले रहे हैं। वैसे भी पिछले कुछ दिनों से बिहार में कोई नया अपराध नहीं हुआ है और उत्तराखंड का संकट भी निपट चुका है। असल में कनु भाई को मिले प्रचार की एक बड़ी वजह अखबारों में छपी वह बहुचर्चित तस्वीर है जिसमें एक छोटा सा बच्चा महात्मा गांधी का डंडा पकड़े हुए उनके आगे चल रहा है।

इसके साथ ही बापू के परिवार की दुर्दशा, कनु भाई की दशा, सरकार की बेरुखी की खबरें भी छपने लगी हैं। दिल्ली सरकार के कल्याण मंत्री उनकी खबर लेने पहुंच गए। जिस आश्रम में आम बूढ़ों को जमीन पर लिटाया जाता है वहीं महात्मा गांधी के इस पोते के लिए आश्रम का आईसीयू खाली कर दिया गया है जहां की वे आराम से एसी में बिस्तर पर लेटे देखे जा सकते हैं। आगे लिखू उससे पहले जरा कनु भाई के बारे में जान लिया जाए।

87 वर्षीय ये बुजुर्ग महात्मा गांधी के तीसरे बेटे रामदास के बेटे हैं। वे तीन भाई-बहन हैं। रामदास का जन्म दक्षिण अफ्रीका में हुआ था। वे गांधीजी के अखबार इंडियन ओपीनियन का कामकाज देखते थे। उन्हें भी अपने बाकी भाइयों की तरह गांधीजी की कंजूसी पसंद नहीं थी। वे शिकार के शौकीन थे व उन्होंने जीवन यापन करने के लिए दर्जी के काम से लेकर टाटा टामको तक में नौकरी की। उनकी पत्नी का नाम निर्मला था व उनसे सुमित्रा, कनु व आभा नामक संताने हुईं।
कनु भाई बचपन में ही बॉ और बापू के पास आ गए थे। वे उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बोस्टन स्थित अपने घर का नाम बॉ-बापू आश्रम रखा। रामदास ने ही बापू को मुखाग्निी दी थी। रामदास को महात्मा गांधी काफी चाहते थे। वे अपने मन की बात उनके साथ साझा करते थे। जब उनके सबसे बड़े बेटे हरिलाल मुसलमान बने तो बापू ने उन्हें पत्र में लिखा था कि मुझे इस्लाम कबूलने पर कोई आपत्ति नहीं है। पर उसे उस धर्म की जानकारी होनी चाहिए। हरिलाल तो लालच और मौज मस्ती करने के लिए धर्म परिवर्तन कर रहा है।

जब नाथूराम गोडसे को मौत की सजा सुना दी गई तो रामदास ने उसे जेल में पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि तुम ईश्वर के करीब जा रहे हो। तुम्हें अपने किए पर पश्चाताप करना चाहिए। जवाब में नाथूराम गोडसे ने उन्हें पत्र लिखकर कहा कि वे जरुर उनसे मिलना चाहेंगे। उन्हें इस बात का दुख है कि उसने उनके पिता को उनसे छीन लिया था। गांधी की तरह उसे भी गीता पर पूरा भरोसा था और कर्म करते समय उसने फल की इच्छा भी नहीं की थी। गीता के अनुरुप ही मैंने काम किया था। इसके बाद रामदास ने उससे कोई संपर्क नहीं किया। वे समझ गए थे कि उनसे मिलना बेकार है। जब रामदास से महाब्राम्हण ने बापू की कपाल क्रिया करने के लिए उनके सिर पर डंडा मारने को कहा तो वे सहम गए थे। उनसे ऐसा करने की हिम्मत ही नहीं हुई। जब उन्हें दोबारा समझाया गया और बताया कि यह तो धार्मिक रीति है तो वे इसके लिए तैयार हो गए।

कनु भाई को जवाहरलाल नेहरु ने पढ़ने के लिए एमआईटी अमेरिका भिजवाया। वहां उन्होंने नासा व रक्षा मंत्रालय में अहम पदों पर नौकरियां कीं। उन्होंने 2 अक्टूबर 2007 को अपनी भारत यात्रा के दौरान द ट्रिब्यून में आदिती टंडन से बातचीत में कहा था कि उन्हें वहां अच्छा वेतन मिलता था। उनकी पत्नी डा. शिवा लक्ष्मी भी वैज्ञानिक थीं व पढ़ाती थीं। उनके कोई संतान नहीं थी। ट्रिब्यून में उनकी गिटार बजाते हुए तस्वीर छपी थी। मतलब यह कि उन्होंने अपने जीवन का स्वर्णिम काल अमेरिका में बिताया। मोटा वेतन लिया, 40 साल तक अच्छी जिंदगी जी। फिर दो साल पहले वे भारत लौट आए।

उनकी बहन सुमित्रा कुलकर्णी जो कि गुजरात में रहती हैं, आईएएस अफसर रह चुकी हैं। उनके पति वैज्ञानिक हैं। डा. सुमित्रा ने इंदिरा गांधी के कहने पर 1972 में नौकरी छोड़ दी और वे राज्यसभा की सदस्य बनाई गईं। उन्होंने आपातकाल लगाए जाने का विरोध किया और कांग्रेस छोड़ दी मगर राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया हालांकि नरेंद्र मोदी की प्रशंसक इस महिला को आज इस बात पर दुख होता है कि उन्होंने तब ऐसा क्यों नहीं किया था। उनको राज्यसभा से इस्तीफा दे देना चाहिए था।

कनुभाई क्यों और कैसे 2014 में भारत आए, यह वही जानते हैं। इसके साथ ही उनकी दुर्दशा की कहानियां छपने लगीं। पहले वे साबरमती आश्रम में रहे। फिर वे वर्धा चले गए। कभी उनके बारे में छपता कि महात्मा गांधी का पोता गरमी में बिना कूलर के रह रहा है तो कभी खबर छपती कि उनका नौकर लाखों रुपए लेकर फरार हो गया है। आज उन पर खबरें करने वाले यह भूल जाते हैं कि यह सिलसिला तो दो सालों से चला आ रहा है। इसमें नया क्या हैं, किसी भी बुजुर्ग को बुढ़ापे में किसी तरह का कष्ट नहीं होना चाहिए। वह अगर बापू का पोता हो तो पूछना ही क्या। मगर मेरी समझ में एक बात यह नहीं आती है कि आखिर किसी ने यह पूछने की कोशिश क्यों नहीं की कि उन्हें इस हालत में रहने के लिए किसने कहा है?

वे तो अमेरिकी नागरिक बन चुके होंगे। ग्रीन कार्ड होल्डर होंगे। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अमेरिका में बढ़िया नौकरी करते हुए बिता दी। उस देश की सामाजिक सुरक्षा छोड़कर अचानक इस देश के प्रति उनका प्रेम क्यों उमड़ा? उनका पैसा, घर, पेंशन कहा हैं? उनके इस हालात में रहने के लिए किसने कहा है? वे तो हर तरह से संपन्न थे। उनके प्रति सहानुभूति क्यों प्रदर्शित की जाए?

वैसे उनकी बहन सुमित्रा कुलकर्णी ने कुछ समय पहले कहा था कि आज गांधी परिवार का हर सदस्य उनका विज्ञापन बनकर रह गया है। लोग गांधी को संगमरमर की मूर्ति में ही कैद कर रख देना चाहते हैं। वे यह नहीं चाहते कि गांधी के मूल्य व सिद्धांत मूर्ति से बाहर निकल सामने आए। कनुभाई के सगे भतीजे तुषार गांधी का कहना है कि साबरमती आश्रम में गुजरात विद्यापीठ कनु भाई को जीवन भर मुफ्त में आश्रम देने का प्रस्ताव दे चुकी है। उन्हें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। वे कहते हैं कि जिस देश में वृद्धाश्रमों में हजारों निराश्रित बूढ़े रहते हो वहां अगर बा और बापू का पोता भी रहता है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है।

1 COMMENT

  1. आप के लेख मैं सभी कुछ ठीक है – प्रश्न भी अच्छे हैं – बस एक बात फर्क है कि मेरी जानकारी के अनुसार गाँधी जी का अंतिम संस्कार गाँधी जी के सब से छोटे बेटे देवदास ने किया था

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