“करगिल युद्ध “का बिगुल

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 2 मई १९९९ का मनहूस दिन धरती के स्वर्ग ‘कश्मीर’ की किस्मत में चौथी बार युद्ध की सुगबुगाहट लेकर आया । करगिलके एक छोटे से गाँव गरकौन के कुछ चरवाहे अपनी याकों कि खोज में घूम रहे थे । इसी दौरान इनमें से एक ताषी नामग्याल ने बर्फ में मानव पदचिन्हों के निशान देखे । परों के निशान का पीछा करते हुए उसकी निगाहें पाकिस्तानी घुसपैठियों तक जा पहुँची । घबराहट में ताषी चुप-चाप पहाड़ी से उतर आया । होश सँभालने पर किसी बड़े खतरे की आशंका से बेचैन ताषी सीधे निकटवर्ती आर्मी केम्प पहुँचा और सेना अधिकारी से सारी बात बताई । घंटों के भीतर सेना मुख्यालय तक घुसपैठ की सुचना पहुँच चुकी थी । १० मई तक कई अन्य स्थानों से भी आतंकियों के घुसपैठ और पाकिस्तानी सेना द्वारा सीमा अतिक्रमण का मामला सामने आया तो भारतीय सेना को पीठ पीछे किए गये साजिश को समझते देर न लगी । समझौता एक्सप्रेस की आड़ में मियां नवाज शरीफ की मेहमान नवाजी के पीछे का सच तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल जी भी जान चुके थे । मामले को सरकार ने गंभीरता से लिया । तमाम औपचारिकताओं की पूर्ति होते हीं २६ मई को “ऑपरेशन विजय ” की घोषणा के साथ ऐतिहासिक “करगिल युद्ध “का बिगुल बज उठा । संकट की इस घड़ी में पूरा भारतवर्ष एक साथ खड़ा था । युवाओं की धमनियों का रक्त उबाल मार रहा था । क्या बच्चे , क्या बूढे पूरा देश युद्ध के उत्साह से लबरेज रेडियो और टीवी पर पल-पल ख़बर जानने को बेचैन दिखता था ।मोर्चे पर जाने वाले भारतीय सेना के रणबांकुरों का जोश और भी बढ़ जाता जब रास्ते में देशवासियों की सलामी उन्हें मिलती । मुझे आज भी याद है एन एच -३१ की सड़क जहाँ से हर रोज सेना के जवानों की लारियाँ गुजरती और हम सभी उन्हें देखते हीं भारत माता की जय के नारे बुलंद करते । दो महीने के इस युद्ध के दौरान सारा देश राष्ट्रवाद के सूत्र में बंधा हुआ था । सेना की भर्तियों में हजारों युवाओं की भीड़ , रक्तदान शिविरों में हजारों पुरुषों -महिलाओं की लम्बी पंक्तियाँ , टेलीविजन सेटों के सामने दर्जनों की भीड़ और इन सब की आंखों में देश के लिए कुछ करने का जज्बा ही तो भारत की असली ताकत थी । ५३३ सैनिकों के बलिदान के बाद आखिरकार २६ जुलाइ १९९९ को पाकिस्तान की सेना ने पीछे हटने का फ़ैसला किया । इसी फैसले के साथ “ऑपरेशन विजय ” की समाप्ति का एलान किया गया । अनेकता में एकता व सेना के मजबूत मनोबल ने भारत की जीत को सुनिश्चित किया ।

२६ जुलाइ को जीत के दस साल पूरे हो गये । देश भर में ‘विजय दिवस ‘ को लेकर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया गया । नेताओं ने शहीदों की तस्वीरों पर माल्यार्पण किया । मीडिया को भी करगिल और द्रास याद आया ।इधर मैदान में जवान शहीदों की जैसी गति और दुर्गति है उसकी बात न भी करें तो द्रास और करगिल में भी हालात बहुत अच्छे नहीं है। दुनिया का दूसरा सबसे ठंडा स्थान होने के बावजूद शौर्य और पराक्रम की गरमाहट में देश की सबसे जटिल सीमा की मुश्तैदी से सुरक्षा कर रहे हैं। लेकिन एक बहुत जटिल सवाल है कि क्या करगिल की लड़ाई हमने सचमुच जीत ली है? करगिल बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में लड़ा और जीता गया युद्ध था। स्थानीय अधिकारी बताते हुई जीत ली हैं कि यह भारतीय फौज के लिए इज्जत की यह जंग 12 हजार फीट से 18 हजार फीट की ऊंचाई पर लड़ी गयी थी। रसद, गोला बारूद की बात छोड़िये यहां आक्सीजन भी नाप जोखकर ही मिलता है। फिर भी भारतीय सेना ने घुसपैठियों के रूप में चोटियों पर चढ़ आये पाकिस्तानी सैनिकों को न केवल मार गिराया बल्कि 2 महीने की इस जटिल जंग को भारतीय सैन्य इतिहास का सबसे स्वर्णिम अध्याय बना दिया । लेकिन करगिल का युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है। श्रीनगर से जब हम द्रास वार मेमोरियल की तरफ आगे बढ़ते हैं तो एक जगह बड़ी ऊंची दीवार के पास से गुजरते हैं। इस दीवार पर लिखा है- You are under enemy observation। जब इस बारे में हमने सैन्य अधिकारियों से जानना चाहा तो उन्होंने ऐसा रहस्य बताया जिसे सुनकर मन में कई सवाल पैदा होने लगे। सैन्य अधिकारियों ने बताया कि आज भी प्वाईंट 5353 और आफताब टॉप पर पाकिस्तानी सेना मौजूद है और इस रास्ते आने जाने वाले भारतीय वाहनों पर वे अक्सर फायरिंग करते हैं। यह चौंकानेवाली जानकारी है । करी।कारगिल के शहीदों को याद करने गए लोगों को सीमा पर पहुंचने के बाद इस कड़वी सच्चाई का अहसास जरूर मन में थोड़ी खटास पैसा करता है फिर भी 26 जुलाई को जीत के दस साल पूरे हो गये। दुनियां को दूसरा सबसे ठंडा स्थान, 1995 में यंहा का तापमान -60 डिग्री दर्ज हुआ था। लेकिन आज ये इलाका मेजर विक्रम बत्रा, कैप्टन सौरव कालिया, लै। अमोल कालिया, लैफ्टिनेंट विजयंत थापर, लैफ्टिनेंट मनोज पांडे की वजह से जाना जाता है। आप नाम लेते जायेंगे तो 533 शहीदो की चेहरे सामने आ जाएगे। 10 साल गुजर गये इन जाबाजों को आपके हमारे और हर हिंदुस्तानी परिवार का हिस्सा बने हुये। दुश्मन को धूल चटाने की खुशी के बीच आंसूओं से भरी विदाई दी थी देश ने। कारगिल में शहीद हुए फौजियों के परिजनों से ज़मीन, नौकरी, गैस एजेंसी, पेट्रोल पंप देने जैसे कई वादे किये गये। उनमें से कुछ पूरे हुए कुछ अब भी अधूरे हैं । लेकिन दुर्भाग्य ये है कि जिन्हें जो मिला वो भी सरलता से नहीं ।

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