गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-15

राकेश कुमार आर्य

गीता के दूसरे अध्याय का सार और संसार
‘गीता’ का कहना है कि योगस्थ होकर कर्मयोग का अभ्यासी बनकर मनुष्य को कर्म के फल की आसक्ति से स्वयं को मुक्त रखना चाहिए। कर्म की सिद्घि या असिद्घि दोनों में ही मनुष्य को समता का भाव अपनाने का अभ्यासी हो जाना चाहिए। जब मन ऐसी अवस्था को प्राप्त कर लेता है तब ज्ञानी जन उसे कर्मयोग कहते हैं। जो लोग कर्मकाण्ड के जाल में फंसे रहते हैं, वे संसार के लोगों पर यह रौब झाड़ सकते हैं कि वे बड़े धर्मात्मा हैं और बड़ा नेक कार्य कर रहे हैं। पर वास्तव में गीता का कहना है कि ऐसे लोग सकाम कर्मी होने से कर्मयोगियों की अपेक्षा बहुत छोटे स्तर के हैं।

ये लोग ईश्वर से सदा कुछ मांगते ही रहते हैं। जिससे इनके भीतर दीनता की भावना बनी रहती है। जबकि वैदिक संस्कृति में दीनता वर्जित है। वेद हमें ‘अदीन’ होकर सौ वर्ष तक जीने का उपदेश करता है। वैदिक संस्कृति में आस्था रखने वाला व्यक्ति अपनी संध्या में नित्य प्रति ईश्वर से ‘ओ३म् तच्चक्षुर्देवहितम्….’ वाले वेद मंत्र में यही प्रार्थना करता है कि मेरे शरीर की सभी इन्द्रियां सौ वर्ष पर्यंत क्रियाशील रहें और मैं सदैव अदीन होकर जीवन यापन करता रहूं।
गीता भी उसी बात को कहती है कि सकाम कर्मी न बनकर तू निष्काम कर्मयोगी बन। गीताकार कह रहा है कि व्यक्ति को जीवन में उन्नति करने के लिए बुद्घियोग का सहारा लेना चाहिए। बुद्घि योग से मनुष्य सुकृत (अच्छे कार्य) और दुष्कृत (बुरेे कार्य) दोनों को यहीं छोड़ देता है। बुद्घियोग ही वास्तव में ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ है।
सुकृत दुष्कृत छोडऩा यही है बुद्घियोग।
‘योग: कर्मसु कौशलम्’ पा जाएंगे लोग।।
बुद्घियोगी मनीषी लोग कर्मों से प्राप्त होने वाले फलों के चक्कर में न पडक़र उन्हें छोडऩे के अभ्यासी बनते जाते हैं। जिसे उनकी साधना दु:खहीन दशा को अर्थात मोक्ष को प्राप्त हो जाती है। ऐसे लोग परम तपस्वी होते हैं और उनकी साधना का तप उन्हें निरन्तर मोक्ष की अवस्था की ओर ले जाती रहती है। उनकी क्रियाओं में और क्रियाओं से पूर्व भावों में पवित्रता आ जाती है। उनकी हर श्वास लोककल्याण के लिए समर्पित हो जाती है। जिन लोगों के हर सांस मंर ओ३म् नाम गुंजरित होता रहता है-उनका जीवन वैसे ही लोककल्याण के लिए समर्पित हो जाता है जैसे ‘ओ३म्’ का नाद कर रहे इस सूर्य का जीवन इस जगत के लिए और प्राणीमात्र के कल्याण के लिए समर्पित है।
श्री कृष्णजी अर्जुन को स्थितप्रज्ञता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि जब तेरी बुद्घि समाधि में टिक जाएगी, तब तुझे कर्मयोग का रहस्य प्राप्त हो जाएगा। ‘समाधि’ के जानकार बताते हैं कि उस अवस्था में साधक को सुख दु:ख का ज्ञानभान नहीं रहता। उसमें संसार के सभी विषयों से व्यक्ति का सम्पर्क टूट जाता है। स्थायी रूप से मन संसार-व्यापार को छोडक़र आध्यात्मिक सम्पदा को लूटने के काम में लग जाता है। उसे सांसारिक कार्यों में लगे रहकर भी ईश्वर के नाम जप में आनंद आने लगता है। यह अवस्था उसके लिए अति उत्तम होती है। आनंद तो अपने आप में आनंद ही है, उसका कोई सानी इस संसार में नहीं है। इसलिए वह वर्णनातीत और शब्दातीत है। उसका वर्णन नहीं हो सकता। उसे केवल अनुभव किया जा सकता है।
इहलोक में भटकना ही मृत्यु है और परलोक में अर्थात अध्यात्म की गहराइयों में उतर जाना ही स्वर्ग है। उस स्वर्ग को योगीजन नित्य ही अपने अंत:करण में देखते रहते हैं। श्रीकृष्ण जी का अर्जुन को उपदेश है कि जीवन्मुक्त होने के लिए कर्मयोग के रहस्य को जान। इसके लिए तू समाधि की अवस्था का आनंद लूटने वाला बन। यही तेरी स्थितप्रज्ञता होगी।
विद्वानों का मानना है कि विषयों से स्वयं को हटा लेना तो स्थितप्रज्ञता का नकारात्मक पक्ष है। यदि ऐसी सफलता मिल भी गयी है कि मन विषयों से हट गया है तो समय या अवसर मिलते ही वह एक दिन फिर उनकी ओर भागेगा और जब फिर भागेगा तो वह विध्वंस मचाएगा। उससे बाज नहीं आएगा। जबरदस्ती कहीं से किसी को हटाना उसका हटना नहीं है। इसमें तो वह फिर-फिर उसी की ओर भागेगा, जहां से उसे हटाया गया है। इसलिए मन को विषयों से हटाकर उसे अपने आपसे जोड़ लेना, अपने आत्मा का आज्ञाकारी बना लेना ही वास्तविक स्थितप्रज्ञता है। अपने आप से जुड़ जाना ही सकारात्मक स्थितप्रज्ञता है। गीता व्यक्ति को अपने भीतर बह रहे आनंदस्रोत की इसी विमलधारा से जोड़ देना चाहती है। हमारा सम्पर्क स्थापित कराके हमारे भीतर स्थायी आनंद की वर्षा का माध्यम बन जाना चाहती है। जैसे प्राणायाम में साधक अपनी श्वांसों की उल्टी सीधी गति को सीधा करने का अभ्यास करता है, वैसे ही स्थितप्रज्ञता में साधक अपनी सारी सकारात्मक शक्तियों को और ऊर्जा के स्रोतों को अपने अनुकूल बनाने का अभ्यासी हो जाता है। वह अपने भीतर के सारे उत्पात, उग्रवाद और उन्माद का उपचार करने में सफल हो जाता है, और जहां उसे ऐसी सफलता मिल जाती है वहीं उसकी स्थितप्रज्ञता की साधना सफल हो जाती है।
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जिसका मन दु:खों में उद्विग्न अथवा बेचैन नहीं हो जाता, जिसकी सुखों में लालसा मिट जाती है, जो राग-भय और क्रोध से मुक्त हो जाता है, उनसे छुटकारा पा लेता है या जिसे राग, भय और क्रोध छोडक़र चले जाते हैं-ऐसा स्थिर बुद्घिवाला व्यक्ति ही मुनि कहलाता है। जो किसी भी वस्तु के प्रति ‘मोह’ नहीं रखता और शुभाशुभ को प्राप्त होकर प्रसन्न अप्रसन्न नहीं होता, उसकी प्रज्ञा अर्थात बुद्घि समझो कि दृढ़ता से स्थिर हो गयी है। ऐसे लोगों के लिए योगेश्वर श्रीकृष्ण बड़ा सुन्दर उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से सिकोडक़र अपने खोल के भीतर खींच लेने की साधना में कुशल होता है, उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में से अपनी इंद्रियों को खींच लेता है, अर्थात उन पर अपना अधिकार जमा लेता है, तब समझो कि उसकी प्रज्ञा स्थिर हो गयी है। ऐसी उच्च अवस्था ही स्थित प्रज्ञता की प्रतीक हुआ करती है।
यदि आज का समाज कामुक चलचित्र, सिनेमा और दीवारों पर लगे पोस्टरों को हटाने का अभ्यासी वैसे ही बन जाय जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोडक़र अपनी खोल में लेने का अभ्यासी बन जाता है तो संसार में नारी का सामाजिक सम्मान और पुरूष का चारित्रिक उत्थान अपने आप ही होने लगेगा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप ईंधन (पेट्रोल) खुले में रखें और आग से कहें कि थोड़ा दूर रहना। तार्किक बात यही है कि पेट्रोल को भी खोल में रखना होगा और आग को खोल से भी दूर रखना होगा। आजकल महिलाएं अपने अधिकारों का समर्थन करते हुए कहती हैं कि लड़कियां जैसे चाहे कपड़े पहनें-पुरूष को उनकी ओर देखना नहीं चाहिए। ऐसी बहनों को समझना चाहिए कि मेनका के नृत्य को देखकर यदि एक ऋषि का चित्त चलायमान हो सकता है तो आज के कामुक समाज के बीच रहने वाले साधनाविहीन पुरूष का मन चलायमान क्यों नहीं हो सकता? इसलिए सावधानी दोनों ओर से ही अपनायी जानी चाहिए। गीता इसी अवस्था को अपनाने की समर्थक है। हमारा मानना है कि गीता का यह उपदेश सार्थक भी है और तार्किक भी है।
क्रमश:

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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