गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-23

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राकेश कुमार आर्य


गीता का चौथा अध्याय और विश्व समाज
गीता का चौथा अध्याय
अभी पिछले दिनों दशहरा (30 सितम्बर 2017) के पावन पर्व पर देश के राष्ट्रपति भवन में पहली बार इस पर्व से सम्बन्धित विशेष कार्यक्रम रखा गया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी इस अवसर पर कन्या पूजन का कार्यक्रम किया। इन दोनों को देखकर हमें प्रसन्नता हुई। हमें इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि इससे पूर्व राजनीतिज्ञ लोग ‘रोजा इफ्तार पार्टी’ का ही आयोजन करते थे, हमारी ओर से उसे भी वह करना चाहें तो कर लें, पर यदि देश की पन्थनिरपेक्ष राजनीति में ‘रोजा इफ्तार पार्टी’ को मान्यता है तो दशहरा आदि वैदिक पर्वों की वैज्ञानिक परम्परा को भी मनाने और उन पर विशेष कार्यक्रम आयोजित होने की परम्परा भी राजभवनों में जीवित रहनी चाहिए।

भारत आध्यात्मिक परम्परा का देश है और वह अध्यात्म को अपनी अमूल्य निधि मानता है। अध्यात्म के बिना भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अध्यात्म में भारत के प्राण बसते हैं और भारत अध्यात्म में बसता है। भारत से यदि अध्यात्म निकाल लिया जाए तो भारत निष्प्राण हो जाएगा। भारत को जीवित रखने के लिए भारत की अध्यात्म परम्परा को जीवित रखना होगा और यह भारत की पर्व परम्परा के माध्यम से ही जीवित रखी जा सकती है। इसलिए अन्य मजहबों के पर्वों का सम्मान करते हुए वैदिक पर्व-परम्परा पर सरकार को विशेष ध्यान देना चाहिए और प्रत्येक पर्व की वैज्ञानिकता को जनता को समझाना चाहिए।
भारत में प्राचीनकाल में सम्राट और राजा लोग भी भारत की आध्यात्मिक परम्परा में रंगे होते थे। अनेकों राजा ऐसे रहे हैं जो राजा होकर भी शास्त्रों के गूढ़ विषयों पर बड़े-बड़े तपस्वियों के साथ, योगी और संन्यासियों के साथ शास्त्रार्थ कर लिया करते थे। इस प्रकार के राजाओं के रहते राजभवन भी शुद्घ सात्विक और आध्यात्मिकता से रंगे होते थे, जिनमें राजसिक वैभव होते हुए भी विलासिता नहीं होती थी। आज के विश्व के लिए यह बड़े कौतूहल का विषय हो सकता है कि पूर्ण राजसिक वैभव और ऐश्वर्य होते हुए भी विलासिता ना हो।
सिंहासन तभी शोभता सतोगुणी हो भूप।
संसार उसी को कोसता जिसके कर्म कुरूप।।
‘गीता’ भारत की इसी आध्यात्मिक राज परम्परा को स्थापित कर राजभवनों को वैभव और ऐश्वर्ययुक्त रखकर भी विलासिता विहीन करने की परम्परा की समर्थक है। वह मानती है कि यदि राज-परम्परा सात्विक और आध्यात्मिक हो गयी तो जनसाधारण उसका अनुकरण करेगा और उसके अनुकरण करते ही सारा वैश्विक परिवेश ही शुद्घ सात्विक और आध्यात्मिक हो जाएगा। वैसे भी संसार के इतिहास के अनेकों उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिस विचार या मत को राजाओं ने मान लिया वही विचार और मत प्रसिद्घ होकर संसार में फैल गया। ईसाइयत, इस्लाम और भारत में जन्मे बौद्घधर्म इसके उदाहरण हैं। इन्हें राजभवनों ने स्वीकार किया तो जनसाधारण ने भी अपना लिया, यद्यपि ईसाइयत और इस्लाम को बादशाहों ने अपनी तलवार से भी फैलाया। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में राजभवनों को सुधारने की दिशा में विशेष कार्य किया। यही कारण था कि वह देश में अपने प्रवासकाल में अक्सर राजाओं के यहां टिका करते थे। मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह जैसे कई राजाओं को उन्होंने भारतीय राजधर्म सिखाकर उस समय राष्ट्रवादी बनाने श्लाघनीय कार्य किया था।
महर्षि दयानन्द ने कृष्णजी के गीतासार को समझा था और यही कारण था कि उन्होंने अपनी बात को देश में फैलाने के लिए ‘राजभवनों’ को सुधारने की दिशा में ठोस व सार्थक प्रयास किया था। तभी तो वह अपने प्रवासों में ठहरने के लिए राजभवनों को ही चुनते थे। जिससे कि विलासिता में डूबे राजभवन सुधरें और देश के लोगों के लिए आदर्श बनें। महर्षि यह भी मानते थे कि महाभारत युद्घ के बहुत काल पूर्व ही भारत के वैदिक धर्म की परम्पराएं शिथिल पडऩे लगी थीं, उनमें घुन लग गया था और राजभवन अपने धर्म से विमुख होने लगे थे। बस, यही बात श्री कृष्णजी कह रहे हैं कि अर्जुन! मेरा यह ज्ञान बीच में लुप्त हो गया।
गीता के चौथे अध्याय में श्रीकृष्णजी कहते हैं कि अर्जुन! जिस ज्ञान को मैं तुझे दे रहा हूं, यही ज्ञान मैंने पूर्व में ‘विवस्वान’ को कहा था। विवस्वान ने इसे अपने पुत्र मनु को कहा और मनु ने इसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को कहा। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त योग को राजर्षियों ने जाना। बहुत काल बीत जाने के पश्चात अर्जुन! यह अनश्वर कर्म योग का वैदिक ज्ञान, संसार से लुप्त हो गया। जिसे मैं आज पुन: तेरे सामने कह रहा हूं।
श्रीकृष्णजी का संकेत और सन्देश है कि अर्जुन अब तुझे भारत की अध्यात्म परम्परा को पुन: राजभवनों में स्थापित करना होगा और कदाचित यह तभी सम्भव होगा जब युद्घ में तू विलासिता और व्यभिचार की प्रतीक शक्तियों का विनाश कर देगा। जब परनारी को अपनी जंघा पर बैठाने वाले लोगों का राजभवनों से विनाश हो जाएगा तभी भारत की अध्यात्म परम्परा को स्थापित किया जा सकेगा। भारत के प्रधानमन्त्री मोदी यदि इस समय भारत की योग विद्या और ब्रह्मविद्या को राजभवनों में स्थापित करना चाहते हैं तो यह उनका बहुत बड़ा कार्य है राजभवन सुधर गये और राजभवनों में बैठे लोगों के निजी जीवन और सामाजिक जीवन में तारतम्य स्थापित हो गया तो सब कुछ ठीक हो जाएगा, वर्तमान विश्व के सभी राजभवन भौतिक ऐश्वर्यों में डूबे पड़े हैं। वहां विलासिता नाचती है और उस पर देश का प्रथम नागरिक थिरकता है। ऐसे में विश्व का कल्याण होना सम्भव नहीं है। राजभवनों से भौतिक वाद की या आर्थिक मूल्यों की प्रधानता को समाप्त कर आध्यात्मिक परिवेश उन्हें देना होगा।
अब भारत के राजभवनों में ‘कन्या पूजन’ हो रहा है तो समझना चाहिए कि भारत अपनी जड़ों को पूज रहा है, उन्हें खोज रहा है। वह अपने पांवों पर खड़ा होना चाहता है और अपने अस्तित्व के प्रति इस समय सजग और सावधान है। यह एक अच्छा संकेत है।
श्री कृष्ण जी कह रहे हैं कि अर्जुन! तू मेरा भक्त है, सखा है, इसलिए तू मेरे उपदेश को ध्यानपूर्वक सुन और इसके रहस्य को समझकर तदनुरूप कार्य करते हुए युद्घ कर। इससे तू भारत की प्राचीन अध्यात्म परम्परा को स्थापित करने के पुण्य का भागी बन सकेगा और यदि ऐसा कर सका तो तेरा विश्व पर भारी उपकार होगा। इस अवसर को चूक मत। बड़े भारी संयोग से यह अवसर तुझे मिल रहा है। इसकी गम्भीरता पर गम्भीर होकर ही विचार कर। आये हुए अवसर को गंवा मत। ईश्वरीय व्यवस्था को स्थापित कर पाना हर किसी के वश की बात नहीं होती है। यदि इसके लिए तुझे चुना गया है तो इसे भी तू अपना सौभाग्य ही जान।
आज के संसार के राजभवनों में भारत के अध्यात्म की, मानवतावाद की और सत्य, अहिंसा एवं वैश्विक बन्धुत्व की भावना यदि गूंजने लगे तो संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं को बलशाली किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा होने से राजभवनों में रहने वालों की बुद्घि शुद्घ हो जाएगी और बुद्घि-शुद्घि ही किसी भी समस्या का स्थायी समाधान होता है। क्रमश:

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