गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-35

राकेश कुमार आर्य


गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज
गीता का भूतात्मा और पन्थनिरपेक्षता
गीता ने सर्वभूतों में एक ‘भूतात्मा’ परमात्मा को देखने की बात कही है। वह भूतात्मा सभी प्राणियों की आत्मा होने से भूतात्मा है।
सब भूतों में व्याप्त है भूतात्मा एक।
परमात्मा कहते उसे आर्य लोग श्रेष्ठ।।
मनुष्य जाति यदि इस भाव को हृदय से अंगीकार कर ले तो संसार में मानव जाति के झगड़े तो शान्त हो ही जाएंगे, साथ ही मनुष्य जिस प्रकार अन्य प्राणधारियों को मिटाने पर लगा है-उनके प्रति भी उसका दृष्टिकोण दयालुता का हो जाएगा। संसार में अधिकांश झगड़े इसलिए चल रहे हैं कि संसार में विभिन्न मत, पंथों व सम्प्रदायों या मजहबों को मानने वाले लोग अपनी-अपनी धर्म पुस्तकों को ही श्रेष्ठ मानते हैं और दूसरों की धर्मपुस्तकों को हेय मानते हैं। इससे संसार में साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिलता है, और संसार के लोगों में अपने-अपने साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों को लेकर परस्पर क्लेश भाव बढ़ता है।
Read This – गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-51
विश्वशान्ति के समर्थक लोगों को चाहिए कि वे सभी धर्म ग्रन्थों या पुस्तकों का निचोड़ निकालें और उससे जो अमृत पल्ले पड़े-उसे सारी मानवता के लिए अपना लें और इस अमृत को ही मानव जाति के लिए एक सर्वसम्मत संविधान बना दें। उस संविधान से मानवता को शासित-अनुशासित किया जाए।
दूह लीजिए ज्ञान को पी लो अमृत मान।
मानवता हर्षित भये खुश होवें भगवान।।
आज के पन्थनिरपेक्षतावादी विचार को लागू करने के लिए तो यह सुझाव और भी अधिक उपयोगी सिद्घ हो सकता है। इसे गीता का भूतात्मा का विचार पुष्ट करता है। जिसे संसार के लोगों ने इसलिए अपनाने में संकोच किया है कि यह तो एक सम्प्रदाय की पुस्तक का विचार है। इस सोच ने मानवता को उस हीरे से वंचित कर रखा है-जो अनमोल है और जिसके पास मानवता की सभी समस्याओं का उपचार है।
सभी भूतों में एक आत्मा (भूतात्मा=परमात्मा) को देखने की प्रवृत्ति जिस दिन संसार के लोगों में और विशेषत: धर्माधीशों, सत्ताधीशों, न्यायाधीशों और धनाशीशों में समाविष्ट हो जाएगी-उसी दिन से इस संसार का कायाकल्प होना आरम्भ हो जाएगा और संसार में वास्तविक शान्ति की स्थापना के लिए ये सारी शक्तियां ठोस कार्य करने में लग जाएंगी।
संसार के झगड़े इसलिए बढ़ रहे हैं कि कुछ लोगों ने ‘खुदा की इबादत’ को सर्वोपरिता दी है और दुनिया के लोगों को ‘खुदा के बन्दों’ और ‘काफिरों’ में बांटकर देखा है तो कुछ ने अपनी ऐसी ही द्वैधकारी नीतियों को प्रकट कर मानवता में विखण्डनवाद को बढ़ावा दिया है। जिससे संसार खेमेबन्दी का शिकार हो गया है। गीता कहती है कि इस प्रकार की खेमेबन्दी को सभी भूतों में एक (भूतात्मा-परमात्मा) को देखने से मिटाया जा सकता है। यदि सर्वभूतों में एक भूतात्मा को देखने की प्रवृत्ति हमारे भीतर आ जाएगी तो संसार की ये सारी खेमेबन्दियां स्वयं ही समाप्त हो जाएंगी। अभी तो हमारे अन्तर्मन के ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पड़ा है। ज्ञान ये है किहम सभी एक भूतात्मा=परमात्मा से आलोकित हैं, ज्योतित हैं, शासित और अनुशासित हैं और अज्ञान ये है कि हमने विश्व को खेमेबंदियों में विभाजित कर लिया है।
यह खेमेबंदी आज इतनी आम हो गयी है कि घरों और ऑफिसों तक में आ घुसी है। इसके लिए एक शब्द गढ़ा गया है- ‘लॉबिंग’ का। यह ‘लॉबिंग’ की बीमारी हर घर में और हर ऑफिस में आ चुकी है। घर में मुखिया पर दबाव बनाने के लिए कभी उसकी पत्नी ‘लॉबिंग’ करती है तो कभी बच्चे करते हैं और अपनी अतार्किक मंाग को भी मनवाकर फिर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं कि हमने ढंग से ‘लॉबिंग’ की तो यह उपलब्धि मिली। इसी प्रकार सरकारी गैर सरकारी कार्यालयों में बैठे अधिकारियों के विरूद्घ ‘लॉबिंग’ होती है और लोग उससे अपना काम निकलवा लेते हैं। देश की सरकारों को झुकाने के लिए भी कुछ लोग इस हथियार का प्रयोग करते हैं और रातों-रात चुपचाप सरकार को झुकाकर अपना काम करा जाते हैं।
कुछ लोग इस ‘लॉबिंग’ को लोकतंत्र को सफल बनाने के एक हथियार के रूप में देखते हैं और लोकतंत्र की सफलता के लिए इसे अनिवार्य मानते हैं। जबकि सच ये है कि ‘लॉबिंग’ का यह हथियार वास्तव में लोकतंत्र को मजबूत न करके उसे बार-बार घायल करता है। कारण कि ‘लॉबिंग’ वही लोग करते हैं जो हैकड़ और मुठमर्द होते हैं। ये लोग अपनी हैकड़ी व मुठमर्दी से सत्ता को झुकाने की युक्तियां खोजते हैं और दूसरों के अधिकारों का हनन कर अपना काम करा ले जाने में सफल हो जाते हैं। बाहर आकर इस अलोकतांत्रिक और अन्यायपरक युक्ति को ‘लॉबिंग’ की संज्ञा देते हैं। आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र जैसी न्यायपरक शासन प्रणाली में भी यह ‘लॉबिंग’ का खेल वैधता प्राप्त करके चल रहा है। जबकि इसके विरूद्घ आवाज उठनी चाहिए और इसे समाप्त कराया जाना चाहिए।
गीता ने ‘लॉबिंग’ जैसी बीमारी को अलोकतांत्रिक माना और ये अलोकतांत्रिक स्थिति शासन में या घर में पैदा ही न हो-इसके लिए शासक को न्यायप्रिय बनाने के लिए तथा शासित (जनता को) को न्याय प्राप्त करने के लिए एक विचार दिया कि तुम सब लोगों में और सब प्राणियों में एक भूतात्मा=परमात्मा को जानना व मानना। इससे शासक अपने सामने खड़े लोगों का सम्प्रदाय या जाति के आधार पर वर्गीकरण नहीं कर पाएगा, उसकी विखण्डनकारी सोच समाप्त होगी और उसमें समदर्शी होने का भाव प्रबल होगा। इससे वह सही न्याय उन्हें दे पाएगा। इसी प्रकार शासित जनता वर्ग में यह भावना आते ही-वे किसी अन्य के अधिकारों का शोषण या हनन करने के लिए ‘लॉबिंग’ के फेर में नहीं पड़ेंगे। फलस्वरूप देश और विश्व में अपने-अपने अधिकारों के लिए मच रही घमासान पर अंकुश लगाने में सफलता मिलेगी।
‘लॉबिंग’ को हम लोगों के अधिकारों के विरूद्घ इसलिए मानते हैं कि आपने कभी भी यह नहीं देखा होगा कि कुछ लोगों ने गौहत्या निषेध के लिए ‘लॉबिंग’ की या निरीह प्राणियों के प्राण बचाने के लिए कानून लाने के लिए ‘लॉबिंग’ की या गरीबों, मजदूरों, किसानों और कामगारों के अधिकारों के हित संरक्षण के लिए ‘लॉबिंग’ की और उस ‘लॉबिंग’ के फलस्वरूप अमुक लोकहितकारी कार्य कराने के लिए सरकार को तैयार किया? जितनी भर भी ‘लॉबिंग’ होती हैं वे उन लोगों द्वारा करायी जाती हैं जो गौमांस निर्यात करना चाहते हैं या जीवों की हत्या कराके उनसे ‘मोटा माल’ कमाना चाहते हैं या जो मजदूरों, किसानों, कामगारों, गरीबों के रक्त को चूसकर उससे अपना स्वास्थ्य बनाना चाहते हैं।
यह सारी अन्यायपरक स्थिति संसार के वर्तमान कोलाहल की जड़ है। इस जड़ को गीता अपने समदर्शी चिन्तन से उखाड़ देना चाहती है। वह ऐसे शासक और शासक वर्ग की वकालत करती है जो लोगों में विखण्डनकारी प्रवृत्ति को बढ़ाने वाले न होकर उन सबमें यह भाव उत्पन्न करते हैं कि तुम और हम सब एक ही परमात्मा की संतानें हैं और उसी एक भूतात्मा से शासित अनुशासित हैं। इसलिए झगड़े बढ़ाने नहीं हैं, अपितु झगड़ों को मिटाना है और विश्व को वास्तविक शान्ति प्रदान करनी है। गीता के इस एक भूतात्मा=परमात्मा के सिद्घांत को आज के पन्थनिरपेक्ष वैश्विक समाज की संकल्पना को साकार करने के लिए संघर्ष करने वाले चिन्तकों और मनीषियों को यथाशीघ्र अपना लेना चाहिए। ‘गीता’ का यह संदेश इस बीमार संसार की एक ‘रामबाण औषधि’ है।
क्रमश:

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here