गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-50

राकेश कुमार आर्य

गीता का आठवां अध्याय और विश्व समाज
एकाक्षर ब्रह्म

गीता के आठवें अध्याय में ब्रह्म, कर्म, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ तथा अन्तकाल की सुन्दर व्याख्या की गयी है। अर्जुन ने गीता के आठवें अध्याय के आरम्भ में प्रश्न कर लिया है कि पुरूषोत्तम वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत किसे कहते हैं? अधिदैव क्या होता है?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीकृष्णजी कहने लगे कि अर्जुन परम अक्षर तत्व ब्रह्म है। वह ब्रह्म निजी स्वभाव के अनुसार संसार के पदार्थों में जिस प्रकार विद्यमान रहता है-यह अध्यात्म कहा जाता है। उस ब्रह्म का भूतभाव अर्थात जड़ चेतन दोनों को उत्पन्न करने वाले सृष्टि व्यापार करने को कर्म का नाम दिया जाता है।

परम अक्षर तत्व ब्रह्म है उसका यह स्वभाव।
जड़ चेतन पैदा करे सहता नहीं अभाव।।
भारत के भाषा विज्ञानी ऋषियों ने ब्रह्म को एकाक्षर ब्रह्म (ऊं) भी कहा है। एक ही अक्षर में ब्रह्म शब्द लिख दिया। जिसका उच्चारण ‘ओ३म्’ हो गया। यह ‘अक्षर’ अपने आप में ध्यान देने योग्य है। ‘अ’ का अभिप्राय ‘नहीं’ से है और ‘क्षर’ का अभिप्राय क्षरण अर्थात नष्ट होने से है। इस प्रकार अक्षर का अर्थ-‘नष्ट न होने वाला हुआ।’ अक्षर का कभी विनाश नहीं होता। एकाक्षर ब्रह्म भी स्वयं में अविनाशी है, उसका भी विनाश नहीं होता, वह भी सदा बना रहता है। वह बना कैसे रहता है? इस प्रश्न पर यदि विचार करें तो वह इस चराचर जगत के पदार्थों में विद्यमान रहकर सदा बना रहता है। वह अक्षर रूप में अविनाशी होकर अदृश्य है। किसी को दिखायी नहीं देता। परन्तु वह अक्ष+र=होने से आंखों के लिए रमणीक सुन्दर, दिखायी देने वाला भी है। जिससे यह दृश्यमान जगत प्रकट होता है और हमें दीखता है। यह जगत उसी ब्रह्म का ही साक्षात रूप है। दिखायी देने वाला रूप है। संसार के लोगों को भ्रान्ति होती है कि यह दृश्यमान संसार ही सब कुछ है पर ऐसा नहीं है। इस स्थूल के पीछे कोई अदृश्य सत्ता है, जो इसे चला रही है। वास्तव में वह अदृश्य सत्ता ही वह ब्रह्म है जो अविनाशी है।

सृष्टि का मिटना उसका क्षारभाव है और इसके प्रकत्र्ता का न मिटना उसका अक्षर रूप है। अक्षर सृष्टि का मूल तत्व है। क्षर भाव को अधिभूत कहा जाता है। अधिभूत का अभिप्राय प्रकृति के पांच तत्व अर्थात अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से सम्बन्ध रखने वाला माना गया है। इन पंच महाभूतों में जड़ और चेतन दोनों प्रकार का जगत आ जाता है । इन भूतों में भी वह ब्रह्म अर्थात परमात्मा प्राणरूप में समाया हुआ है या रमा हुआ है, उसका यह रूप ही श्रीकृष्ण जी ने आधिदैवत् कहा है। इसमें वह ब्रह्म पुरूष रूप में रहता है। यह ब्रह्माण्ड उसकी पुरी है जिसमें वह शयन करता है। जिससे (पुरी में शयन करने वाला होने से) वह पुरूष कहाता है। यह जो पुरूष है-यही वह है जिसे श्रीकृष्ण जी अर्जुन को इस प्रकार बता रहे हैं कि हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस देह (ब्रहमाण्ड नाम की पुरी) में मैं ही अधियज्ञ हूं।
अधियज्ञ का अभिप्राय यज्ञ से सम्बन्ध रखने वाला माना जाता है। इस यज्ञ से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। सारी सृष्टि में आज भी सर्वत्र यज्ञ ही चल रहा है। यज्ञोमयी भावना के कारण ही यह सृष्टि चक्र चल रहा है। हर प्राणी और हर वस्तु एक दूसरे को खा नहीं रही है, अपितु सब एक दूसरे के अस्तित्व के लिए सहायक बन रहे हैं और यही भावना यज्ञोमयी भावना है। इसी यज्ञोमयी भावना को प्रकट करना ही गीता का उद्देश्य है। यह यज्ञोमयी भावना आज के विश्व के लिए तो अति आवश्यक है। क्योंकि आज के विश्व की सबसे बड़ी विडम्बना ही ये है कि यह यज्ञोमयी नहीं रहा है। इसमें स्वार्थवाद आ गया है और त्यागवाद की संस्कृति लुप्त होकर उसके स्थान पर भोगवाद आ गया है।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अन्तकाल में मुझे स्मरण करते-करते अर्थात मुझमें अपना चित्त रमाते हुए प्राण त्याग करता है वह मेरे निज स्वरूप को प्राप्त करता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है।
कठोपनिषद (2/3/10-11) में कहा गया है कि जब मन के साथ पांचों ज्ञानेन्द्रियां रूक जाती हैं और बुद्घि भी निश्चल हो जाती है-उस अवस्था को परमगत कहा जाता है, इन्द्रियों की उस स्थिर धारणा को योग मानते हैं। इन्द्रियां वश में करनी हों, अर्थात इन्द्रियों से यथायोग्य उपयोग लेना हो तो प्राणायाम का अभ्यास करो। बुद्घि पर से अज्ञान का पर्दाफाश करना हो, उज्ज्वल, विमल, धवल, ज्ञानप्रकाश प्राप्त करना हो तो प्राणायाम में सिद्घि प्राप्त करो।
प्राणायाम की यह स्थिति ही व्यक्ति को ईश्वर भक्त बनाती है और ईश्वर भक्त का जब सहज अभ्यास उस परमपिता परमात्मा से हो जाता है तो उस समय व्यक्ति स्वयं ही उसके स्मरण में चौबीसों घंटे लगा रहा करता है। ऐसा व्यक्ति ही अन्त समय में ईश्वर स्मरण करते हुए प्राण त्यागता है।
महर्षि दयानन्द प्राणायाम के विषय में सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में कहते हैं-”जब मनुष्य प्राणायाम करता है तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्घि का नाश तथा ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।
…..जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर वे शुद्घ होते हैं। वैसे ही प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं। ….प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रियां भी स्वाधीन होते हैं। बल पुरूषार्थ बढक़र बुद्घि तीव्र, सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है। इससे मनुष्य शरीर में वीर्य वृद्घि को प्राप्त होकर स्थिर बल पराक्रम जितेन्द्रियता (प्राप्त होती है) सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेगा।”
श्रीकृष्णजी एक प्रकार से ऐसे ही जितेन्द्रिय त्यागी और भजनानन्दी मनुष्य की बात कह रहे हैं। ऐसे भद्र पुरूष ही ईश्वर के स्वरूप को अर्थात मोक्ष को पाने के वास्तविक हकदार होते हैं। भारतीय संस्कृति इसी प्रकार के भद्रपुरूषों के निर्माण करने वाली संस्कृति है। संसार को इस संस्कृति का अनुकरण करना ही होगा।
योगेश्वर कहते हैं कि हे कुन्ती के पुत्र अर्जुन! जिस-जिस भावना को स्मरण करते हुए मनुष्य अन्तकाल में शरीर त्यागता है उस-उस भावना में रंगा होने के कारण वैसे ही कलेवर को प्राप्त होता है।
इस श्लोक में भावनाओं की पवित्रता पर ध्यान देने की बात श्रीकृष्णजी कह रहे हैं। भावनाओं की पवित्रता की साधना का ध्यान जीवन भर रखना पड़ता है-तभी यह अन्तिम समय में ईश्वर के ध्यान में लग पाती है। इस प्रकार यह कथन जीवन साधना की पवित्रता की ओर ही ध्यान दिला रहा है। योगेश्वर कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह प्रत्येक क्षण ईश्वर का स्मरण करता रहे। उसका अभ्यास शिथिल न होने पाये। यदि अभ्यास में शिथिलता आ गयी और भक्ति का क्रम टूट गया तो अभीष्ट की सिद्घि नहीं हो पाएगी। तभी तो श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि तू सब कालों में मुझे स्मरण करता रह और (जीवन की समस्याओं का समाधान करते हुए संसार समर में एक योद्घा की भांति जूझता रह। इस प्रकार मुझमें मन तथा बुद्घि अर्पित कर देने से तू निस्सन्देह मुझको प्राप्त हो जाएगा। क्रमश:

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