गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-8

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गीता का पहला अध्याय और विश्व समाज
गीता के विषय के संक्षिप्त या विस्तृत होने की सभी शंका आशंकाओं, सम्भावना और असम्भावना के रहते भी गीता का पहला अध्याय गीताकार के उच्च बौद्घिक चिन्तन और विश्व समाज के प्रति भारत की जिम्मेदारियों को स्पष्ट करता है। गीताकार ने जो कुछ भी व्यवस्था पहले अध्याय में दी हैं वे सब मानव मात्र के लिए दी हैं और उनसे सम्पूर्ण विश्व समाज लाभान्वित हो सकता है, अर्थात गीता के अध्ययन से विश्व को लाभ मिल सकता है।

इस अध्याय में गीताकार ने युद्घ के पहले दिन का और युद्घ के मैदान का सजीव चित्रण किया है। दोनों ओर की सेनाएं खड़ी हैं-अमुक-अमुक महायोद्घा खड़े हैं। दोनों पक्षों के महायोद्घा अपने-अपने शंख की ध्वनि निकालते हैं और अपने प्रतिपक्षी को युद्घ के लिए सावधान करते हैं, इत्यादि। इस वर्णन से हमें अपने पूर्वजों के द्वारा युद्घ में भी व्यवस्था बनाकर चलने की उनकी अप्रतिम प्रतिभा का पता चलता है। युद्घ में भी व्यवस्था है, नियम है, धर्म है। जिससे कुरूक्षेत्र की भूमि युद्घभूमि न होकर धर्मक्षेत्र की भूमि बन गयी है। दोनों पक्षों की सेनाएं मरने मारने के लिए खड़ी हैं, पर दोनों में मित्रतापूर्ण माहौल है। ऐसी शत्रुता जिसमें मरने-मारने की पूरी तैयारी होती है, पर होती है मित्रतापूर्ण ढंग से। सचमुच मित्रतापूर्ण शत्रुता की यह भावना भारत से ही सीखी जा सकती है। दोनों पक्ष युद्घ के नियमों का पालन करते हैं। शान्तमना होकर युद्घ की औपचारिक शुरूआत की प्रतीक्षा करते हैं। युद्घ से पहले शंख ध्वनि के माध्यम से अपने शत्रु को सावधान करते हैं कि अब हम युद्घ के लिए तैयार हैं। आप भी तैयार हो जायें।
भारत में जितने भर भी युद्घ हुए हैं वे अक्सर नदियों के किनारे हुए हैं। इससे दो लाभ होते थे-एक तो पानी की आवश्यकता की पूत्र्ति हो जाती थी, दूसरे-एक पक्ष से अर्थात नदी की ओर से किसी दूसरी सेना के आक्रमण की सम्भावना कम होती थी। खाद्य पदार्थों व पेयजल की आपूत्र्ति में या हथियारों की आपूत्र्ति में कोई सा पक्ष किसी भी पक्ष को घेरने की या उसके लिए इनकी आपूत्र्ति काटने की चेष्टा को धर्म विरूद्घ अपराध मानता था। अत: भारत में युद्घ क्षेत्र में भी जीवनोपयोगी वस्तुओं की आपूत्र्ति को निर्विघ्न होने दिया जाता था। जबकि मध्यकाल में तुर्कों ने और फिर मुगलों ने और उनके पश्चात अंग्रेजों ने ऐसे नियमों का कोई ध्यान नहीं रखा। उन्होंने किलों का घेरा डालने, शत्रु (हिन्दुओं) राजा की सेना के लिए खाद्य- पदार्थों व जलादि की आपूत्र्ति को काटने की व उनके हथियारों को मिटाने के षडय़न्त्रों के साथ युद्घ करने की घातक परम्परा का पालन किया। इससे युद्घ में अमानवीयता अर्थात दानवता का प्रवेश हुआ। यहीं से युद्घ के बारे में लोगों ने यह प्रचार करना आरम्भ किया कि युद्घ में सब कुछ जायज होता है। जब कि भारत की युद्घ परम्परा को देखने से और समझने से पता चलता है कि हमारे युद्घों में भी नियम होते थे और उन नियमों का पालन करना प्रत्येक पक्ष के लिए अनिवार्य होता था।
महाभारत के अध्ययन से पता चलता है कि भारत की युद्घ परम्परा कहीं अधिक उत्तम थी, अपेक्षाकृत इन विदेशी आक्रान्ताओं की युद्घ परम्परा के। आज का विश्व गीता से यह पाठ पढ़ सकता है कि वह भी युद्घ के निममों को धर्मानुकूल अर्थात मानवता के अनुकूल बनाने का प्रयास करे। युद्घ में सम्मिलित सेनाएं और सेना के लोग किसी दूसरे देश में जाकर जनसंहार करने और महिलाओं पर अमानवीय अत्याचार करने से निषिद्घ की जाएं। विश्व को गीता ेसे बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है, विशेषत: तब जबकि आतंकी संगठनों को कुछ देशों की सरकारों का भी समर्थन प्राप्त हो और ये आतंकी संगठन निरपराध लोगों की हत्याएं कर रहे हों, या बिना किसी चेतावनी के या बिना शत्रु को संभलने का अवसर दिये ही सर्वत्र विनाश का ताण्डव हो रहा हो।
यदि आज का विश्व ‘गीता’ का गम्भीरता से मन्थन करे तो वह आतंकवाद या विनाश के वर्तमान दौर से बाहर निकल सकता है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी विश्व संस्था भी युद्घ के नियम बनाने और आतंकवाद के समूल नाश की रूपरेखा बनाने में असफल हो रही है। इससे पता चलता है कि महाभारत के काल में चाहे हमारी राजनैतिक व्यवस्था का जितना पतन हो गया हो, परन्तु फिर भी वह आज के विश्व की राजनैतिक व्यवस्था से बहुत उत्तम थी।
गीताकार ने अर्जुन के मुंह से वर्ण संकर सन्तान की बात भी कहलवाई है कि यदि हमने लोगों का संहार कर डाला तो महिलाएं विधवा होंगी, और फिर उन्हें वर्ण संकर सन्तानें प्राप्त होंगी, उनका चरित्र पतित हो जाएगा। अर्जुन की यह बात भी सत्य है। विश्व के देशों ने युद्घों के समय वर्ण संकर सन्तानें पैदा कर-करके विश्व में नैतिकता का संकट खड़ा कर दिया है। युद्घ का यह भी एक परिणाम निकलता है। भारत की महान नारियों ने विदेशी आततायियों के द्वारा होने वाले अत्याचारों से और वर्ण संकर सन्तानों को पाने से बचने के लिए मध्यकाल में ‘जौहर’ परम्परा की खोज कर ली थी। यह उनका आपद् धर्म तो था ही साथ ही युद्घ के उस घातक परिणाम से अपने आपको बचाना भी था जो वर्ण संकर का संकट खड़ा कर देता है और जिसमें उनके शील की रक्षा हो पाना भी असम्भव हो जाता है।
अर्जुन इस ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट कर रहा है और हजारों वर्ष पूर्व के विश्व की आने वाली पीढिय़ों को भी यह सन्देश दे रहा है कि यदि वास्तव में तुम विश्व में व्यवस्था बनाये रखना चाहते हो तो कम से कम ऐसे काम करना या ऐसे ढंग से युद्घादि का साज सजाना कि जिससे नारियां विधवा ना हों, और उनके पतीत्व व सतीत्व की रक्षा होती रहे। आज नारी सशक्तीकरण की बातें करने वाला विश्व समाज इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है कि नारियों के पतीत्व व सतीत्व की रक्षा कैसे की जाए? इसके विपरीत नारी को विधवा करने की हर प्रकार की कुचेष्टा की जा रही है। जिससे समाज के पतन की स्थिति बन रही है। अच्छा हो कि गीताकार के इस सन्देश को हम थोड़ा ध्यान से समझें और उसके वैज्ञानिक अर्थों पर गम्भीरता से चिन्तन करें।
जब शिक्षा खराब हो जाती है तो उस समय संस्कार भी दूषित हो जाते हैं। जब कोई ‘शकुनि’ पीछे से छिपकर ‘युधिष्ठिर’ के विरूद्घ किसी ‘दुर्योधन’ को दूध पिलाने लगता है और अपनों के ही विरूद्घ षडय़ंत्र रचने की शिक्षा देने लगता है तो उस समय अच्छे परिवारों के भीतर भी कुसंस्कार घुस जाते हैं। तब अपने ही लोग अपनों को ही मारने के लिए युद्घ के मैदान में आ जाते हैं। इस स्थिति को देखकर ‘दुर्योधन’ तो प्रसन्न हो सकता है, पर षडय़ंत्रों व घात- प्रतिघात की नीति से दूर खड़ा निश्छल अर्जुन इसे सहन नहीं कर सकता। वह नहीं समझ सकता कि राज्य के लिए ‘महाभारत’ भी हो सकता है? वह निश्छल भाव से कृष्ण जी से कहने लगता है कि -‘मैं युद्घ नहीं कर सकता। क्योंकि मुझे ऐसा राज्य नहीं चाहिए जिसे इतने सारे अपनों को मारने के पश्चात प्राप्त किया जाए।’ अर्जुन का यह निश्छल भाव ही उसका मोह है। पर इसे अर्जुन का मोह कहना तो अर्जुन की निश्छलता को कम करके आंकने वाली बात होगी। इसे अर्जुन का ‘धर्म संकट’ कहा जा सकता है। वह अपने आप से भी पूछ रहा है और अपनों से भी पूछ रहा है कि-
छोड़ दिया जाए, या मार दिया जाए
बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए?
राक्षसों का संहार करने के लिए सदा उद्यत रहने वाला अर्जुन यह नहीं समझ पा रहा कि पितामह भीष्म, गुरू द्रोणाचार्य, कृपाचार्यादि को भी क्या राक्षस ही माना जाए या युद्घ में इन पर प्रहार न करके इनके हाथों पराजय स्वीकार कर ली जाए? क्रमश:

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