कर्नाटक प्रकरण: कटघरे में राजनैतिक शुचिता

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लिमटी खरे

हाशिए में गए कांग्रेस के पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज पुनः सक्रिय राजनीति में लौटने लालायित दिखाई दे रहे हैं। जानकारों का मानना है कि वे अनाप शनाप फैसले इसलिए ले रहे हैं, ताकि कांग्रेस आलाकमान उनका राजनैतिक वनवास समाप्त कर केंद्रीय मंत्री मण्डल में उन्हें वापस बुला ले। गौरतलब होगा कि पूर्व में बूटा सिंह ने राज्यपाल रहते कांग्रेस को नीचा दिखाया बाद में उन्हें वापस बुला लिया गया था। यह अलहदा बात है कि उनका राजनैतिक पुनर्वास पूरी तरह से नहीं हो सका था। भाजपा जिस तरह से आक्रमक हो रही है, उसे देखकर लगने लगा है कि जल्द ही भारद्वाज की राजभवन से बिदाई तय है। इस घिनौने खेल में राजनैतिक शुचिता और राजभवन की गरिमा तार तार हुए बिना नहीं है। विधि मामलों के महारथी हंसराज भारद्वाज से इस तरह के कदम की उम्मीद कतई नहीं की जा सकती है।

कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है, उसे समूचा देश देख रहा है। पांच राज्यों के चुनाव भी समाप्त हो चुके हैं इसलिए इस वक्त बर्निंग टापिक कर्नाटक ही है। अगर चुनाव के चलते यह हुआ होता तो देश की निगाहें इस पर ज्यादा न जाती और मीडिया भी इस खबर को ज्यादा तवज्जो नहीं देता। वस्तुतः जल्दबाजी में कर्नाटक के महामहिम राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर डाली,जिसे आश्चर्यजनक ही माना जा रहा है। भारद्वाज ने येदियुरप्पा को हटाने की कोशिश तीसरी मर्तबा की है, इससे साफ है कि उनका एक सूत्रीय एजेंडा कर्नाटक में तख्ता पलट ही है।

अमूमन माना जाता है कि महामहिम राज्यपाल अपने विवेक के हिसाब से ही काम करते हैं। पिछले दो तीन दशकों का इतिहास खंगालने पर यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि केंद्र सरकार या अपने आकाओं को प्रसन्न करने की गरज से राज्यपाल आकाओं के इशारे पर ठुमके लगाते नजर आए हैं। इस बार भी बिना सोनिया गांधी या उनकी कोटरी की हरी झंडी के यह संभव नहीं दिखता। हंसराज भारद्वाज कानून मंत्री रहे हैं, और खुद भी कानून के खासे जानकार हैं। इसलिए यह कहना गलत होगा कि उन्होंने इस मामले के सारे पहलुओं पर विचार न किया हो।

एक नेता के रूप में हंसराज भारद्वाज काफी सजग, होशियार और सोच समझकर कदम उठाने वालों में गिने जाते हैं। हो सकता है कि कर्नाटक प्रकरण से वे एक तीर से कई निशाने साध रहे हों। वैसे भी किसी भी नेता को अगर राज्यपाल बनाकर भेजा जाता रहा है तो यह माना जाता था कि उसका राजनैतिक कैरियर समाप्त हो गया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री कुंवर अर्जुन सिंह ने इस मिथक को तोड़ा था। मध्य प्रदेश में दूसरी मर्तबा मुख्यमंत्री बनने के उपरांत जब उन्हें दूसरे ही दिन पंजाब का गर्वनर बनाया गया था, तब लोग यही कह रहे थे कि अर्जुन सिंह का खेल खत्म, किन्तु बाद में वे सक्रिय राजनीति में लौटे और सालों तक केंद्र की राजनीति की।

बहरहाल उच्चतम न्यायालय द्वारा भाजपा के 11 विद्रोही और पांच निर्दलीय विधायकों को अयोग्य करार करने संबंधी विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को खारिज कर दिया, जिससे युदियुरप्पा को कड़ा झटका लगा। इस फैसले के हिसाब से कर्नाटक के लाट साहेब को सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करना अनुचित इसलिए है क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया है अब कोई सरकार अल्पमत में है या बहुमत में इसका फैसला करने का अधिकार सदन को ही है।

विधि अनुसार अगर राज्यपाल को लग रहा था कि येदियुरप्पा सरकार अल्पमत में है तो महामहिम राज्यपाल को चाहिए था कि वे मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने को कहते। कथित रूप से हड़बड़ी में हंसराज भारद्वाज ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश ही कर डाली। इस बात में कोई संदेह की गुंजाईश नहीं है कि राज्यपाल के इस कदम से राजनैतिक शुचिता और राजभवन की गरिमा को ठेस पहुंची है।

इस पूरे प्रहसन में न्यायालय के आदेश के बाद जिस तेजी और तत्परता से राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने विशेष रिपोर्ट तैयार कर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की है उसी मुस्तैदी के साथ बागी विधायकों ने कथित तौर पर बिना शर्त युदियुरप्पा को समर्थन देने की चिट्ठी तैयार कर दी। कहते हैं राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में छः अक्टूबर 2010 के उस ज्ञापन को आधार बनाया है जिसमें विधायकों ने युदियुरप्पा से समर्थन वापस लेने की बात कही थी। 10 अक्टूबर को राज्यपाल भारद्वाज ने सरकार की बर्खास्तगी की सिफारिश की थी, जिसे केंद्र ने लौटा दिया था।

इस बार चूंकि भाजपा पर यह सीधा वार किया गया है तो भाजपा तिलमिला गई है। वैसे भी गड़करी के पुत्र के विवाह समारोह की सारी जवाबदारियां (आर्थिक तौर पर) येदियुरप्पा द्वारा उठाए जाने के आरोप लगते रहे हैं, इस आधार पर गड़करी का येदियुरप्पा प्रेम बढ़ना स्वाभाविक ही है। भाजपा इस मामले में फ्रंट फुट पर आ गई है तो कांग्रेस अब रक्षात्मक मुद्रा में दिखाई पड़ रही है। कांग्रेस द्वारा भी विधि विशेषज्ञों से इस मामले में राय शुमारी की जा रही होगी। इस बात का रास्ता निकालने का प्रयास किया जा रहा होगा कि लाट साहेब हंसराज भारद्वाज के कदम को जायज ठहराया जा सके।

भारद्वाज के इस तरह के कदम से नितिन गड़करी को कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोलने का मौका अवश्य ही मिल गया है, किन्तु भाजपा कांग्रेस को घेरने में कितने सफल हो पाते हैं यह बात भविष्य के गर्भ में ही है। फिलहाल तो गड़करी ने कांग्रेस को मशविरा दिया है कि बेहतर होगा भारद्वाज को राज्यपाल पद से हटाकर कांग्रेस कार्यसमिति का विशेष आमंत्रित बना दिया जाए।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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