कर्नाटक सत्ता की चाबी राज्यपाल के हाथ

कर्नाटक सत्ता की चाबी राज्यपाल के हाथ
प्रमोद भार्गव
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने त्रिषंकु जनादेश या है। इसके साथ ही राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। लिहाजा कांग्रेस ने तत्परता दिखाते हुए पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगोड़ा की पार्टी जेडीएस को न केवल बिना मांगे समर्थन दे दिया है, बल्कि देवगौड़ा के पुत्र कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर भी रजामंदी जता दी है। फिलहाल इस चाल को राहुल गांधी का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा हैं, लेकिन चाल का परिणाम आना बांकी है। दूसरी तरफ भाजपा के पूर्व से ही घोषित मुख्यमंत्री पद के दावेदार बीएस येदियुरप्पा ने राज्यपाल वजूभाई बाला को सरकार बनाने का दावा पेश  कर दिया है। तय है, कर्नाटक की सत्ता सौंपने की चाबी पहले किसे दी जाए, यह राज्यपाल के विवेकाधीन है। चूंकि 104 विधायकों की जीत के साथ भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में पेश  आई है, किंतु बहुमत से दूर है। उसे सदन में बहुमत हासिल करने के लिए आठ विधायकों की दरकार होगी। दूसरी तरफ कांग्रेस के 78 और जेडीएस के 38 विधायक मिलकर 116 हो जाते हैं। कांग्रेस के बागी दोनों ही निर्दलीय विधायक आर शंकर और योगेश  ने कांग्रेस को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। गोया, राज्यपाल यदि कुमारस्वामी को सत्ता संभालने का अवसर दे देते हैं तो उन्हें बहुमत साबित करने में कोई कठिनाई पेश  नहीं आएगी। लेकिन ज्यादातर राज्यपाल खंडित जनादेश  आने की स्थिति में केंद्र की मंशा  के अनुसार चलते हैं। क्योंकि उनकी राज्य में नियुक्ति केंद्र सरकार की अनुकंपा पर ही निर्भर रहती है। लिहाजा सभी राजनीतिक दलों और विश्लेषकों की निगाहें राज्यपाल के निर्णय पर टिकी हुई हैं। सब जानते है कि वजूभाई बाला गुजरात में भाजपा के प्रमुख नेताओं में से एक रहे हैं। गोया, संवैधानिक प्रावधान और परंपराएं, जो भी रही हों, अंततः वे येदियुरप्पा को ही सरकार बनाने का अवसर देने वाले हैं। यदि यही होता है तो कर्नाटक में गोवा, मणिपुर एवं मेघालय की परंपरा दोहराई जा सकती है ?
खंडित जनादेश  पहली बार सामने आया हो, ऐसा नहीं है। लोकतंत्र में यह स्थिति बनती ही रहती है। लेकिन ऐसे हालात में राज्यपाल की भूमिका अहम् हो जाती है। संवैधानिक व्यवस्था में इतना झोल है कि राज्यपाल जो निर्णय ले लें, वही निर्णायक कहलाता है। हालांकि उसे हाईकोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। वैसे कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के पास स्पष्ट  बहुमत दिखाई दे रहा है। इस नाते राज्यपाल विधायकों की सूची प्राप्त होने के बाद कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन जो आम परंपरा है, उसके तहत सबसे बड़े दल को आमंत्रित किया जाता है। ऐसे में बहुमत जुटाने के लिए राजनीतिक अस्थिरता के साथ विधायकों के खरीद-फरोख्त की आशंकाएं  बढ़ जाती हैं। विधायकों को सरकार में अहम् मंत्री पद देने का लालच भी दिया जाता है। ये सब ऐसे कारण हैं, जो संवैधानिक प्रावधानों व लोकतांत्रिक मूल्यों को पलीता लगाते हैं। लिहाजा राज्यपाल का ही यह दायित्व बनता है कि वे ऐसी पहल करें, जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के साथ संवैधानिक प्रावधानों का भी पालन करे। इस नाते राज्यपाल को निर्णय लेने में तीन-चार दिन का समय लग सकता है।
कांग्रेस के निवर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने बहुसंख्यक लिंगायतों के संप्रदाय को अलग धर्म का दर्जा ठीक चुनाव के पहले दिया था। किंतु इसे हिंदू धर्म को बांटने का मुद्दा बनाकर भुनाने का काम भाजपा ने किया। दरअसल येदियुरप्पा स्वयं प्रभावशाली  लिंगायतों के नेता हैं। नतीजतन वे इस समाज को अपने नेतृत्व से जोड़े रखने में सफल रहे। गोया, जिस कार्ड को कांग्रेस तुरुप का पत्ता मानकर चल रही थी, वह उसे उल्टा पड़ गया। अब चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस और जेडीएस के सत्ता संभालने से पहले जो पेंच फंसता दिखाई दे रहा है, वह भी कांग्रेस के लिंगायत समुदाय से जुड़े विजयी विधायक ही हैं। कांग्रेस के इन विधायकों ने कांग्रेस के समर्थन से कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोशणा होते ही आपत्ति दर्ज करा दी है। कुछ विधायकों ने तो कांग्रेस छोड़ने का सुर भी अलापना शुरू  कर दिया है। इन विधायकों के विद्रोही तेवर कांग्रेस और जेडीएस के चुनाव परिणाम बाद होने वाले इस गठबंधन को झटका लगा सकते हैं। इन तेवरों के सामने आते ही कांग्रेस अपने विधायकों को कर्नाटक से बाहर भेजने की तैयारी में लग गई है। इन्हें पंजाब या आंध्र प्रदेष भेजा जा सकता है। दूसरी तरफ येदियुरप्पा भी सक्रिय हो गए हैं। कांग्रेस के लिंगायत विधायकों से तो वे संपर्क में हैं ही, एचडी देवगौड़ा से भी संवाद बना रहे हैं। देवगौड़ा देश  के प्रधानमंत्री भले ही रहे हों, लेकिन वे क्षेत्रीय सोच से कभी ऊपर नहीं उठ पाए। लिहाजा क्षेत्रीय हित साधने के लिए वे येदियुरप्पा से हाथ मिला लें तो इसमें कोई आश्चर्य  काबिज होने की मुहिम तेज हो गई है।
कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने का जो दांव जेडीएस को समर्थन देकर अब चला है, यदि वह दूरदर्शिता  स्थिति का निर्माण ही नहीं होता। प्रदेश  में त्रिकोणीय मुकाबले के हालात भी नहीं बनते। यदि ऐसा हुआ होता तो सपा-बसपा गठबंधन के उम्मीदवारों ने दो से पांच हजार वोट लेकर कांग्रेस और जेडीएस को जो नुकसान पहुंचाया है, वह भी नहीं होता। इससे सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हुआ है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में यही दूरदृष्टि का आभाव मोदी-जादू को बनाए रखने का काम कर रहा है। इन परिणामों ने तय कर दिया है कि मोदी और अमित शाह  की जोड़ी को चुनौती देने की क्षमता राहुल में नहीं है। अन्यथा उत्तर प्रदेश  की गोरखपुर एवं फूलपुर की लोकसभा और मध्य प्रदेश  की कोलारस व मुंगावली सीटें कांग्रेस द्वारा जीत ली जाने के बाद ये अटकलें लगाई जाने लगी थी कि मोदी का जादू फीका पड़ने लगा है। किंतु अब कर्नाटक के नतीजों ने जता दिया है कि मोदी का जादू कायम है और केंद्र सरकार की नीतियों पर जनता भरोसा कर रही है। यह मोदी के तिलिस्म का ही करिश्मा था कि उन्होंने दक्षिण में कर्नाटक का द्वार खोल दिया। इसके पहले मोदी और शाह ने पूर्वोत्तर भारत के उन कांग्रेसी और माकपा के किलों को तोड़ दिया, जो भाजपा के लिए असंभव माने जाते थे। इसी माह केंद्र में मोदी सरकार की चैथी वर्षगाठ है। गोया कर्नाटक की जीत जनता की ओर से मोदी को दिया जाने वाला उपहार है।
इस जीत ने जहां मोदी को एक बार फिर से लोकप्रियता के शिखर पर लाकर खड़ा कर दिया है, वहीं गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर देकर राहुल गांधी की जो साख बनी थी, उसे फिर से बट्टा लग गया है। इस जीत ने तय कर दिया है कि कांग्रेस रणनीतिक कौशल की द्रष्टि  से भाजपा से निरंतर पिछड़ रही है। कांग्रेस इस मुगालते में रहकर संतुष्ट  हो सकती है कि उसे कर्नाटक में भाजपा से अधिक वोट मिले हैं। लेकिन जीत के मायने आंकड़ों के खेल से जुदा होते हैं। आम मतदाता केवल जीत और हार के अर्थ से मतलब रखता है। हां इस चुनाव में एचडी देवगौड़ा ने जरूर कांग्रेस और भाजपा के कड़े मुकाबले के बीच अपना वजूद कायम रखने का करिश्मा  दिखाया है। अन्यथा उसे एक अप्रासंगिक दल के रूप में देखा जाने लगा था। किंतु अब वह किंगमेकर के रूप में तीसरी बड़ी शक्ति है। सरकार किसी भी दल की बने, भाजपा अंततः लाभ में ही रहेगी। मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम में इसी साल के अंत में चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश और राजस्थान के उपचुनावों में कांग्रेस कार्यकर्ताओं का जीत से जो उत्साहवर्धन हुआ था, वह ठहर गया है। वहीं भाजपा की यह उम्मीद बढ़ गई है कि राहुल गांधी की नादानियों के चलते वह इन राज्यों में भी जीत का झण्डा फहरा देगी। इन राज्यों में भाजपा की जीत इसलिए भी आसान होने जा रही है, क्योंकि यहां कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुकाबला होना है।

 

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  1. महामहिम राज्यपाल जी ने श्री यदुरप्पा को कर्नाटक का मुख्यमंत्री नियुक्त करके सत्ता की चाबी उन्हें सौंप दी किंतु सत्ता सौंपने का उनका यह तरीका कुछ लोगों के लिए भले ही ठीक हो किंतु उचित नहीं था क्योंकि कांग्रेस और जनता दल सेकुलर ने गठबंधन कर राज्यपाल जी के समक्ष सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत कर दिया था। कहने को लोग कुछ भी कहें किंतु सदन के त्रिशंकु होने की स्थिति में गठबंधन दल को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए । यही जनादेश का अर्थ है क्योंकि पूर्ण जनादेश किसी एक दल के पक्ष में नहीं है अगर कांग्रेस और जनता दल सेकुलर के बीच गठबंधन न बना होता है तो महामहिम राज्यपाल बीजेपी को सबसे बड़ा दल होने के नाते सरकार बनाने के लिए बुला सकते थे। यहां हम देख सकते हैं कि महामहिम राज्यपाल ने अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन तथ्यों का भली-भांति परीक्षण करके नहीं किया है ।अगर हम उनके विवेकाधिकार की बात करें तो विवेक भी अर्थपूर्ण व युक्तिपूर्ण होना चाहिए । अगर ऐसा नहीं है तो उसे अविवेक ही कहा जाएगा । कर्नाटक में जिस तरह से कांग्रेस और भारतीय जनता दल के बीच सत्ता संघर्ष चल रहा है –इससे अब यह साफ हो गया है कि कांग्रेस और बीजेपी में कोई ज्यादा अंतर नहीं है । एक सांप नाथ है तो दूसरा नागनाथ। बीजेपी , कांग्रेस की लिगेसी पर ही काम कर रही है।

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