काश स्मृति ईरानी ने ‘नशा’ पढ़ी होती!

SMRITIविवेक सक्सेना

आम पब्लिक स्कूलों में दाखिले को लेकर जब भारी मारामारी होती है तो कान्वेंट में दाखिला करवाना तो एवरेस्ट पर चढ़ने से कम नहीं है। मुझे याद है कि जब मेरी भतीजी का होली चाइल्ड कानवेंट में दाखिला करवाना था तो भैया ने बताया कि अभिभावक रात को ही स्कूल के बाहर लाइन लगाकर बैठ गए थे ताकि दाखिले का फार्म हासिल कर सकें। कानवेंट शिक्षा प्राप्त फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले लोग समाज में विशिष्ट स्थान प्राप्त करते हैं। उन्हें इज्जत की दृष्टि से देखा जाता है। शायद यही वजह है कि सरकारी स्कूल में पढ़े लिखे लोग चाहें कितने ही बड़े पद पर क्यों न पहुंच जाएं वे अपने मन की इस ग्रंथि को मिटा नहीं पाते हैं कि काश उन्होंने भी किसी कानवेंट में शिक्षा हासिल की होती।

मेरा तो यहां तक मानना है कि शायद इसी हीनग्रंथि के चलते वे लोग इनसे अभिभूत रहते हैं। वैसे भी अंग्रेजी के प्रति हमारा बढ़ता लगाव ही आज हिंदी के सर्वाधिक बिकने वाले अखबारों को हिंग्लिश इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित कर रहा है। हम अपने लैटरहेड से लेकर विजिटिंग कार्ड तक सबकुछ अंग्रेजी में ही छपवाते हैं। इसमें कुछ बुराई भी नहीं है।

इसी ग्रंथि के चलते हम ऐसे लोगों की श्रेष्ठता मान लेते हैं। हमें अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा 12 वीं पास व्यक्ति भी एमटेक करने वाले से भी श्रेष्ठ नजर आने लगता है। हम यह मानकर चलते हैं कि जो धुंआधार अंग्रेजी बोल सकता है उसे आईआईटी से लेकर आईआईएम तक सब कुछ चलाने के नियम तय करने का अधिकार है।

यह सारी लफ्फाजी इसलिए कर रहा हूं कि जब स्मृति जुबीन ईरानी से मानव संसधान मंत्रालय लेकर उन्हें कपड़ा मंत्रालय सौंपे जाने की खबर पढ़ी तो दिमाग कौंध ने लगा। संयोग से उसी दिन अखबारों में इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर दुनिया का सबसे बड़ा चरखा रखे जाने की भी खबर थी। अब कपड़ा मंत्रालय में जाकर स्मृति ईरानी को सूत ही काटना होगा। वहां वे कितनी महीन कताई करती है, यह समय ही बताएगा। असल में हम हिंदी या क्षेत्रीय भाषी लोग तो देसी पीलू की तरह होते हैं। हर मौसम की मार सह लेते हैं। कुछ भी खा पी लेते हैं। हमें टीके लगवाने की जरुरत नहीं पड़ती। हम आसानी से बीमार नहीं पड़ते। सड़कों, मुहल्लों की गलियों पर चक्कर काट-काट कर हम इतना जरुर सीख जाते हैं कि कब किसके सामने दुम हिलानी चाहिए और कब किस पर गुर्राना चाहिए।

मेरी राय में अंग्रेजी वाले पामेरियन होते हैं जो कि बेहद नाज नखरों में पाले जाते हैं। समय पर टीका, खाना पीना होने के अलावा वे मालिक की गोद में बैठने का सुख हासिल करते हैं। जबकि हम है कि बार-बार दुत्कारे या फटकारे जाने के बावजूद भी दुम हिलाते रहते हैं। हम लोगों ने बचपन में प्रेमचंद से लेकर पंचतंत्र सरीखा साहित्य पढ़ा। हम उन बदनसीबों में रहे जिन्हें हैरी पाटर पढ़ने को नहीं मिली। अगर उस समय छपी भी होती तो शायद घर वाले उसे खरीदकर उपहार में बच्चे को देने में असमर्थ रहते। देसी साहित्य पढ़ने का एक बड़ा लाभ यह होता है कि उसमें देशी शिक्षा मिलती है जो कि देश में रहने वालों के लिए बहुत लाभकारी साबित होती है।

संयोग से जिस दिन स्मृति ईरानी का विभाग बदला गया उसके दो दिन बाद ही ईद थी। सो मुझे ध्यान आया काश उन्होंने अगर प्रेमचंद को पढ़ा होता व उनकी कहानियों में छिपे संदेश से कुछ शिक्षा ली होती तो आज उनकी यह दुर्गति नहीं हुई होती। याद है न प्रेमचंद की कहानी ‘नशा’ का वो किरदार जो कि मध्यमवर्ग से होने के बाद जब अपने एक अमीर मित्र के घर रहने जाता है तो उसका बरताव ही उलट बदल जाता है। उनकी कहानी यह बताती थी कि यदि हालात कैसे भी क्यों न हो इंसान को अपनी औकात नहीं भूलनी चाहिए।

अगर स्मृति ईरानी ने कबीर और रहीम को पढ़ा होता तो उन्हें यह दोहा याद रहता कि ‘प्यादे से फरदी भयो और टेढ़ो-टेढ़ो जाए’। सच कहूं तो उनके मंत्री बनने के बाद व मंत्रालय बदलने के बाद जो कुछ खबरें छपी हैं उनका लब्बोलुआब यह है कि फरदी बनने के बाद उनकी चाल बदल गई थी। जब वे मानव संसाधन मंत्री बनाई गईं थीं तब भी उनकी योग्यता को लेकर तमाम सवाल उठाए गए थे।

किसी को मंत्री बनाना तो प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है इसलिए इस पर सवाल उठाने की जगह उसके कामकाज के तरीके पर नजर रखी जानी चाहिए। पूरी भाजपा में अकेली स्मृति ईरानी ही ऐसी है जिसने नरेंद्र मोदी से अपना रिश्ता बनाया। जो व्यक्ति कभी अपनी पत्नी, मां-बहन का जिक्र तक न करता हो उसने चुनावी भाषणों में उन्हें अपनी छोटी बहन कहा। भाजपा की आंधी में उनके व अरुण जेटली के हारने के बाद भी दोनों को केबिनेट मंत्री बनाया।

तय है कि उन्हें उनसे बहुत उम्मीद रही होगी। संघ की भी उम्मीदें होना स्वभाविक है। वे शिक्षा का भगवाकरण कर पायी या नहीं यह तो नहीं पता मगर उन्होंने हर कदम पर टकराव लिए। कोई भी आला अफसर उनके साथ काम करने को तैयार नहीं होता था। सबको यह शिकायत थी कि वे उनका अपमान करती हैं। आए दिन इस आशय की खबरें पढ़ने को मिलती कि उपकुलपतियों के सम्मेलन में उन्होंने तमाम वीसी को जमकर लताड़ लगाई। अनिल काकोदर सरीखे वैज्ञानिक उनसे नाराज हो गए। ग्लोबल युनिवर्सटी लाने से लेकर केंद्रीय विद्यालयों में तीसरे विषय के रुप में जर्मन पढ़ाए जाने को लेकर उन्होंने विवाद खड़ा किया। रोहित वेमुला सरीखे मामले ऐसे थे जिन पर टकराव टाला जा सकता था।

पार्टी नेताओं को आम शिकायत थी कि वे उन्हें मिलने का समय ही नहीं देती है। असल में वे तो संजय गांधी काल के युवक कांग्रेसी सरीखी हो गई थी जो कि किसी भी उपकुलपति के कमरे में घुसकर अपनी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र हुआ करता था। कई बार लगता है कि इनमें उनका कुछ दोष नहीं था क्योंकि जब इंसान की उपलब्धि उसकी योग्यता से ज्यादा हो जाती है तो वह उसे संभाल नहीं पाता है। या तो वह अति विनम्र हो जाता है अथवा स्मृति ईरानी बन जाता है। चूंकि उन्हें प्रधानमंत्री के बहुत करीबी माना जाता था इसलिए उनका विरोध करने का साहस किसी भी नेता में नहीं था।

मगर इस मामले ने यह तो साबित कर दिया है कि ऊपर वाला सबकुछ देख सुन रहा था। प्रधानमंत्री तक उनकी तमाम खबरें पहुंचती रही। इसका पहला संकेत तो 2 जुलाई को ही मिल गया था जबकि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्रा ने शिक्षा मंत्रालय की एक बेहद अहम बैठक को अंतिम क्षणों में रद्द कर दिया। एक तरफ तो वे सीरियल में काम करती आयी थीं। उन्हें पढ़ा लिखा सुसंस्कृत माना जाता था। वहीं दूसरी ओर उन्होंने बिहार के एक मंत्री द्वारा उन्हें पत्र में डियर, शब्द से संबोधित किए जाने पर बवाल खड़ा कर दिया। अगर उस पर किसी बिहार की महिला मंत्री ने इस तरह की प्रतिक्रिया जताई तो भी इसे कुछ हद तक समझा जा सकता था।

अब पार्टी में उन्हें हटाए जाने के कारणों पर चर्चा हो रही है। इस बारे में एक वरिष्ठ नेता ने मुस्कुराते हुए कहा कि लोग हटाए जाने की वजह पूछ रहे हैं जबकि मुझे आज तक इस सवाल का जवाब नहीं मिल पाया है कि उन्हें मानव संसाधन मंत्रालय सौंपा ही क्यों गया था।

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