महर्षि दयानन्द का मंगलवार 16 नवम्बर, 1869 को काशी के आनन्दबाग में अपरान्ह 3 बजे से सायं 7 बजे तक लगभग पांच हजार दर्शकों की उपस्थिति में विद्यानगरी काशी के शीर्षस्थ 30 पण्डितों से अकेले मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ हुआ था। इस शास्त्रार्थ में सनातन धर्म वा पौराणिक मत के दो शीर्ष पण्डित स्वामी विशुद्धानन्द तथा पं. बाल शास्त्री सम्मिलित थे। शास्त्रार्थ स्थल पर इस दिन हुई अपूर्व भीड़ में हिन्दी साहित्य के एक पुरोधा भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र भी दर्शक के रूप में सम्मलित थे। यद्यपि इन दोनों विद्वानों व उनके समर्थकों ने शास्त्रार्थ के नियमों के विपरीत अव्यवस्था कर व करवा कर तथा पराजित होकर भी अपनी विजय का प्रचार किया परन्तु दोनों ही पक्षों के यह शीर्ष विद्वान एक दूसरे के गुणों व योग्यता से पूर्ण परिचित थे। सार्वजनिक रूप से दोनों के धार्मिक मत व मान्यतायें प्रायः पृथक-पृथक थी परन्तु यह तीनों निजी जीवन में एक दूसरे की विद्वता को स्वीकार करते थे।
काशी में मुलतान के प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ विद्वान गोस्वामी घनश्याम दास जी निवास करते थे। आप अत्यन्त उदार विद्वान थे। आप काशी में मूर्तिपूजा विषय पर महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ में भी प्रतिपक्षी 30 विद्वानों में सम्मिलित थे। आर्य जगत के ख्याति प्राप्त विद्वान एवं स्वाध्याय सन्देाह, स्वाध्याय सन्दीप एवं सटिप्पण सत्यार्थ प्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों के लेखक स्वामी वेदानन्द जी महाराज की आपसे घनिष्ठता थी। ऐसा अनुमान है कि स्वामी वेदानन्द जी कुछ समय के लिए आपके शिष्य भी रहे। गोस्वामी जी द्वारा स्वामी वेदानन्द जी को बताया गया बालशास्त्री विषयक एक प्रसंग आपने अपनी पुस्तक ‘ऋषि बोध कथा’ में प्रस्तुत किया है। पुस्तक में आपने लिखा है कि मुलतान निवासी गोस्वामी घनश्याम शर्मा को पं. बालशास्त्री जी ने कहा था कि ‘यदि वह सत्यपथ पर चलना चाहते हैं तो दयानन्द के बताए पथ पर चलें, वह पथ सत्य एवं निभ्र्रान्त है।‘ गोस्वामी जी ने इस पर उनसे सीधा ही प्रश्न किया–‘आप स्वयं क्यों नहीं उनका अनुसरण करते?’ इस पर बालशास्त्री जी ने उन्हें कहा—“हम संसार के मानापमान एवं लोभ भावना का त्याग करने में समर्थ नहीं हैं, किन्तु इतना अवश्य मानते हैं कि दयानन्द का बताया मार्ग सर्वथा सत्य है।“ यह प्रसंग आर्य जगत के विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने मास्टर लक्ष्मण आर्य रचित महर्षि दयानन्द के उर्दू जीवन चरित्र के हिन्दी अनुवाद में प्रस्तुत कर बताया है कि स्वामी वेदानन्द जी अपने लेखों व व्याख्यानों में यह संस्मरण बहुत सुनाया करते थे। इस घटना से ज्ञात होता है कि यद्यपि पं. बाल शास्त्री जी महर्षि दयानन्द के विरोधी पक्ष के विद्वानों का नेतृत्व करते थे परन्तु उनकी विद्या व गुणों से पूर्ण परिचित थे और अपने अन्तःकरण से उनकी विद्वता व आचरण का लोहा मानते थे। यही कारण था कि उन्होंने अपने सहयोगी विद्वान गोस्वामी घनश्यामदास पर अपने मन के सत्य विचारों को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द की प्रशंसा ही नहीं की अपितु यहां तक कहा कि ‘यदि सत्यपथ पर चलना चाहते हो तो दयानन्द के बताए पथ पर चलो, वह पथ सत्य एवं निभ्र्रान्त है।’
दूसरी ओर स्वामी दयानन्द जी के जीवन में प्रसंग आता है कि जहां वह अपने अनुयायी विद्वानों को कहा करते थे कि ’काशी में एक बालशास्त्री और एक संन्यासी महात्मा विशुद्धानन्द स्वामी हैं। शेष कोई विद्वान नहीं है।‘ यहां भी स्वामी जी बालशास्त्री की विद्वता का सम्मान करते हुए नजर आ रहे हैं। दोनों विद्वानों का यह आचरण वा व्यवहार सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग का आंशिक उदाहरण है। यहां यह भी बता दें कि जब काशी का प्रसिद्ध शास्त्रार्थ होने वाला था तो शास्त्रार्थ से एक दिन पहले उनके सहयोगी विद्वान साधु जवाहरदास जी ने उनसे कहा कि ये काशी के पण्डित लोग बड़े विद्वान हैं तथा षड्दर्शनों के ज्ञाता हैं। आप सबसे शास्त्रार्थ कैसे करेंगे? यदि एक को जीत भी लिया तो सबको परास्त कैसे करेंगे? इसका उत्तर देते हुए स्वामी जी ने जवाहरदास जी को कहा था कि यहां केवल बाल शास्त्री जी दाक्षिणात्य ब्राह्मण है। वह कुछ काल हमसे बातचीत कर सकेगा, शेष इतनी योग्यता वाला कोई नहीं। वे काक भाषा (नवीन न्याय तथा वैशेषिक दर्शन व्याकरण) में कुशल है। वेद विद्या में ये लोग प्रवीण नहीं हैं। इसी प्रसंग में स्वामी जी ने उन्हें बताया की श्री गोपाल नामक विद्वान फरूर्खाबाद में यहीं काशी से धार्मिक विषय में व्यवस्था ले गया था। स्वामीजी ने इनकी दी गई व्यवस्था को देखकर काशी के विद्वानों की योग्यता को जान लिया था। स्वामीजी यह भी कहा करते थे कि यदि स्वामी विशुद्धानन्द और बालशास्त्री वैदिक मत के प्रचार में उनका सहयोग करें तो देश देशान्तर में वैदिक धर्म के प्रचार में अधिक सफलता प्राप्त की जा सकती है। यह सब बातें स्वामी दयानन्द जी की अपने प्रतिपक्षियों व किंचित योग्य विद्वानों के प्रति सदाशयता का प्रतीक हैं।
इस लेख में हमारा यह बताने का प्रयोग है कि महर्षि दयानन्द और सनातन धर्मी विद्वान बालशास्त्री दोनों ही एक दूसरे की योग्यता व आशय से परिचित थे। महर्षि दयानन्द खुलकर पं. बाल शास्त्री की योग्यता को वर्णन अपने अनपुयायियों में करते थे तथा पं. बालशास्त्री जी अपने हितों के कारण अपने यदा-कदा अपने एकाधिक विश्वस्त विद्वानों व शिष्यों में महर्षि दयानन्द का कीर्तिगान करते थे। हम आशा करते हैं कि इस ऐतिहासिक घटना से पाठकों को एक विस्मृत घटना का बोध होगा।
हम यहां विषयान्तर होकर एक महत्वपूर्ण जानकारी भी अपने प्रिय पाठकों को देना चाहते हैं। यह प्रसंग महर्षि दयानन्द जी के मुलतान नगर की 12 मार्च से 16 अप्रैल, 1878 तक 36 दिवसों की यात्रा के समय का है। यहां एक दिन श्री कृष्ण नारायण ने स्वामी जी से पूछा कि आपके निकट मैक्समूलर साहेब संस्कृत विद्या में कैसी योग्यता रखते हैं? स्वामी जी ने कहा कि ‘मैक्समूलर वेद विद्या में एक बालक है। जब तक कोई गुरु उसको शिक्षा न देवे वह सायण तथा महीधर का अनुकरण कभी नहीं छोड़ेगा। उसको इस समय तक वेदों के यौगिक अर्थ ज्ञात नहीं। यौगिक अर्थ तो उसको इस आयु में ज्ञात हो ही नहीं सकते। यौगिक अर्थ गुरु शिष्य परम्परा से आते हैं।‘ विश्वविख्यात संस्कृत विद्वान प्रो. मैक्समूलर को वेदिक शब्दों वा पदांे के यौगिक अर्थों का ज्ञान नहीं था और न उस उम्र में वह इन्हें सीख सकते थे क्योंकि वैदिक पदों के यौगिक अर्थों का अध्ययन गुरु-शिष्य परम्परा से ही हो सकता है और लन्दन में उन दिनों इस प्रकार के अध्ययन की गुरू-शिष्य परम्परा उपलब्ध नहीं थी। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य