कश्मीर में फ़िदायीन – डा० कुलदीप चंद अग्निहोत्री

kshmirशिव रात्रि के तीन दिन बाद तेरह मार्च को श्रीनगर में आतंकवादियों के एक फ़िदायीन दस्ते ने केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल पर आक्रमण किया । पुलिस बल के पाँच ज़वान मौक़े पर ही मारे गये और पाँच अन्य गंभीर रुप से घायल हुये । फ़िदायीन दस्ते के दोनों आतंकवादियों को भी बाद में मार दिया गया । कश्मीर के हालात पर गहराई से नज़र रखने वालों का कहना है कि इस प्रकार का फ़िदायीन हमला तीन साल बाद हुआ है । अब घाटी में अमन बगैरहा हो गया था । लेकिन इधर अफ़ज़ल गुरु की मौत के बाद आतंकवादी समूहों ने भी कुछ न कुछ कर गुज़रने की धमकी दे रखी थी । जम्मू कश्मीर विधान सभा में भी “अफ़ज़ल साहिब” की मौत पर बहस चल ही रही थी , जिसमें महबूबा मुफ़्ती की पी डी पी से लेकर अब्दुल्ला परिवार की नैशनल कान्फ्रेंस तक सभी “अफ़ज़ल साहिब” की “शहादत” पर अपने अपने तरीक़े से अकीदत के फूल चढ़ा रहे थे । मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला बाकायदा कुछ देर के लिये रोये भी । लेकिन इस सारे माहौल में कोई भी सूंघ सकता था कि आतंकवादी अपनी उपस्थिति इस मौक़े पर ज़रुर दर्ज करवायेंगे । वे न भी करवाना चाहें तो पाकिस्तान उन को चुप नहीं बैठने देगा । फ़िदायीन दस्ते के लिये यदि उन्हें कोई कश्मीरी न मिला तो पाकिस्तान अपने यहाँ से भी जिहादियों की ड्यूटी इस काम में लगा सकता था । क़िस्सा कोताह यह कि आतंकवादी हमले की केवल प्रतीक्षा की जा रही थी । गुप्तचर विभाग ने भी अपने पुराने तरीक़े से संभावित हमले की सूचना सरकार को दे दी थी ।

आतंकवादी समूह जानते हैं कि कई बार इस प्रकार के हमलों में जब आतंकवादी और सुरक्षा बल आमने सामने हो जाते हैं तो आम लोग भी बीच में फँस जाते हैं । इसका यह अर्थ नहीं की आम लोगों के मरने की चिन्ता उन को होती है , बस इतना ही कि आम लोगों की भीड़ होने के कारण अनेक बार आतंकवादियों को अपने काम में दिक़्क़त आती है । इसलिये बुधवार को पहले ही मुत्तहदा मजलिस-ए-मशावरत ने घाटी में मुक्कमल हड़ताल करवाई हुई थी । अलगाववादियों का यह नया मुत्तहदा हुर्रियत के भी कान पकड़ता है । इस हड़ताल के कारण सड़कें सुनसान थीं और सी आर पी के जवानों को निशाना बना लेने का काम और आसान हो गया था । इस पूरे घटनाक्रम को जनसहभागिता का नाम देने के लिये कुछ दिन पहले से ही सुरक्षा बलों पर पत्थरबाज़ी का दौर फिर से चालू कर दिया गया था । आतंकवादी अपने अनुभव से इतना तो सीख ही चुके हैं कि जब भी पत्थरबाज़ी का अध्याय चालू किया जायेगा तो आम जनता में से कोई न कोई न तो मरेगा ही । जब तक कोई नहीं मरता तब तक आतंकवादी अपने पत्थरबाज़ी के नाटक को चालू रख सकते हैं । बस जब एक लाश उनको मिल जायेगी , तब आगे के काम निष्पादित करने आसान हो जाते हैं । पत्थरबाज़ी का एक और भी लाभ है । इसे जायज़ विरोध प्रदर्शन का जायज़ तरीक़ा बता कर लोकतांत्रिक प्रणाली में दिये गये विरोध प्रदर्शन के अधिकार से भी जोड़ा जा सकता है और इसमें आतंकवादी समूहों के मानवाधिकारों के लिये दिन रात लड़ते रहने वाले सिविल समूहों को हिस्सा लेने का मौक़ा भी मिल जाता है । इस पूरे कांड के लिये आतंकवादियों को किसी आम आदमी की जो लाश चाहिये थी , वह भी पत्थरबाजी के नाटक से जल्दी ही उनको मिल गई थी । इससे आम हडताल का अगला कदम उठाना आसान हो गया और जन सहभागिता की शर्त भी पूरी हो गई । फ़िदायीन हमले से पूर्व के ये सभी क़दम सावधानी से उठा लिये गये थे । इनमें से कुछ क़दम प्रत्यक्ष रुप से तो लोकतांत्रिक ही कहे जायेंगे । मसलन विधान सभा में अफ़ज़ल गुरु की मौत पर बहस बगैरहा ।आश्चर्य की बात है कि बहस में सोनिया कांग्रेस ने अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की । वह भी “अफ़ज़ल साहिब” की मौत के मातम में अपने घनिष्ट सहयोगी दल नैशनल कान्फ्रेंस और पूर्व सहयोगी दल पी डी पी के साथ ही खड़ी नज़र आई । पत्थरबाज़ी और उसके बाद हड़ताल का आह्वान इत्यादि इत्यादि । फ़िदायीन हमला तो अंतिम क़दम था । लेकिन इस अंतिम क़दम में अभी एक और बाधा बची हुई थी । वह बाधा थी सुरक्षा बलों के हथियार । यदि सुरक्षा बलों के हाथ में हथियार हैं तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आतंकवादी हमले में वे मारे ही जायेंगे । वे बिना मरे भी आतंकवादी हमलावरों को मार गिरा सकते हैं । यदि ऐसा हो जाये , तो हमले का मक़सद पूरा नहीं हो सकता । हमले का मक़सद आतंक पैदा करना है । ” सुरक्षा बलों पर दो आतंकवादियों ने हमला किया और ज़बावी कार्यवाही में सुरक्षा बलों ने उन दोनों को मार गिराया” इससे न खबर बनती है , न दहशत फैलती है और न ही हमले का मक़सद पूरा होता है । हमले का मक़सद तब पूरा होता है , जब आतंकवादियों की संख्या न्यूनतम हो और हमले में मरने वाले सुरक्षा बलों के लोगों की संख्या अधिकतम हो । बैसे तो जो भी हमला पहले करेगा , उसको इस मक़सद को हासिल करने में किसी सीमा तक सफलता मिलती ही है । लेकिन इसके बाबजूद अन्त तक यह संभावना ही रहती है ,इसका परिणाम निश्चित नहीं होता । पर यहाँ तो प्रश्न था कि इस परिणाम को निश्चित कैसे किया जाये ? यह तो तभी हो सकता था यदि सुरक्षा बलों के हाथों में हथियार ही न हों और वे आतंकवादियों के लिये “सिटिंग डकस” बन जायें ।

और वह संभव हुआ सोनिया कांग्रेस और नैशनल कान्फ्रेंस की मिली जुली राज्य सरकार के आदेश से । सरकार ने आदेश निकाल दिया की सुरक्षा बल गश्त लगाते समय अपने पास अपने हथियार न रखें , क्योंकि उनकों हथियारों के साथ देखकर लोग भड़क उठते हैं । इतना ही नहीं , राज्य सरकार ने इस आदेश को सख़्ती से लागू भी करवाया । अब सारा मामला सीधा हो गया था । हमले के दिन हड़ताल के कारण चारों ओर सुनसान था । सड़क पर गश्त लगाते सी आर पी के पन्द्रह जवान निहत्थे थे । इसलिये वे फ़िदायीन के लिये आसानी से “सिटिंग डकस” में परिवर्तित हो गये । पाँच मारे गये और पाँच बुरी तरह ज़ख़्मी हुये । बाक़ी बाद में हुये मुक़ाबले में फ़िदायीन को तो मरना ही था । क्योंकि वे तो घर से आये ही मरने के लिये थे । फ़िदायीन का अर्थ ही मरना होता है । आत्मघात । क्या इस पर सोनिया गान्धी परिवार और अब्दुल्ला परिवार कोई टिप्पणी करेगा ? वैसे इस पूरे प्रकरण पर सुशील कुमार शिन्दे और दिग्विजय सिंह भी कुछ कह सकते हैं ।

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डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री
यायावर प्रकृति के डॉ. अग्निहोत्री अनेक देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनकी लगभग 15 पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पेशे से शिक्षक, कर्म से समाजसेवी और उपक्रम से पत्रकार अग्निहोत्रीजी हिमाचल प्रदेश विश्‍वविद्यालय में निदेशक भी रहे। आपातकाल में जेल में रहे। भारत-तिब्‍बत सहयोग मंच के राष्‍ट्रीय संयोजक के नाते तिब्‍बत समस्‍या का गंभीर अध्‍ययन। कुछ समय तक हिंदी दैनिक जनसत्‍ता से भी जुडे रहे। संप्रति देश की प्रसिद्ध संवाद समिति हिंदुस्‍थान समाचार से जुडे हुए हैं।

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