शैलेन्द्र चौहान
बाबा नागार्जुन को भावबोध और कविता के मिज़ाज के स्तर पर सबसे अधिक निराला और कबीर के साथ जोड़कर देखा गया है। वैसे, यदि जरा और व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ाव तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है। उनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है। मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है। उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं। बाबा नागार्जुन ने जब लिखना शुरू किया था तब हिन्दी साहित्य में छायावाद उस चरमोत्कर्ष पर था, जहाँ से अचानक तेज ढलान शुरू हो जाती है, और जब उन्होंने लिखना बंद किया तब काव्य जगत में सभी प्रकार के वादों के अंत का दौर चल रहा था। बाबा अपने जीवन और सर्जन के लंबे कालखंड में चले सभी राजनीतिक एवं साहित्यिक वादों के साक्षी रहे, कुछ से संबद्ध भी हुए, पर आबद्ध वह किसी से नहीं रहे। उनके राजनीतिक ‘विचलनों’ की खूब चर्चा भी हुई। पर कहने की जरूरत नहीं कि उनके ये तथाकथित ‘विचलन’ न सिर्फ जायज थे बल्कि जरूरी भी थे। वह जनता की व्यापक राजनीतिक आकांक्षा से जुड़े कवि थे, न कि मात्र राजनीतिक पार्टियों के संकीर्ण दायरे में आबद्ध सुविधाजीवी कामरेड। कोई राजनीतिक पार्टी जब जनता की राजनीतिक आकांक्षा की पूर्ति के मार्ग से विचलित हो जाए तो उस राजनीतिक पार्टी से ‘विचलित’ हो जाना विवेक का सूचक है, न कि ‘विपथन’ का। प्रो. मैनेजर पांडेय ने सही टिप्पणी की है कि एक जनकवि के रूप में नागार्जुन खुद को जनता के प्रति जवाबदेह समझते हैं, किसी राजनीतिक दल के प्रति नहीं। इसलिए जब वे साफ ढंग से सच कहते हैं तो कई बार वामपंथी दलों के राजनीतिक और साहित्यिक नेताओं को भी नाराज करते हैं। जो लोग राजनीति और साहित्य में सुविधा के सहारे जीते हैं वे दुविधा की भाषा बोलते हैं। नागार्जुन की दृष्टि में कोई दुविधा नहीं है।….यही कारण है कि खतरनाक सच साफ बोलने का वे खतरा उठाते हैं। अपनी एक कविता “प्रतिबद्ध हूँ” में उन्होंने दो टूक लहजे में अपनी दृष्टि को स्पष्ट किया है–
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ– बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त– संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!
नागार्जुन का संपूर्ण काव्य-संसार इस बात का प्रमाण है कि उनकी यह प्रतिबद्धता हमेशा स्थिर और अक्षुण्ण रही, भले ही उन्हें विचलन के आरोपों से लगातार नवाजा जाता रहा। उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद चलते बने। पर बाबा की कविता इनमें से किसी ‘चौखटे’ में अँट कर नहीं रही, बल्कि हर ‘चौखटे’ को तोड़कर आगे का रास्ता दिखाती रही। उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जन’ से ग्रहण करते रहे। उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया, बल्कि अपने काव्य के लिए स्वयं की लीक का निर्माण किया। इसीलिए बदलते हुए भावबोध के बदलते धरातल के साथ नागार्जुन को विगत सात दशकों की अपनी काव्य-यात्रा के दौरान अपनी कविता का बुनियादी भाव-धरातल बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। “पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने” जैसी कविता में ‘बाबा का काव्यात्मक डेविएशन’ भी सामान्य जनोचित है और असल में, वही उस कविता के विशिष्ट सौंदर्य का आधार भी है। उनकी वर्ष 1939 में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष 1998 में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है। आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है। जरा इन दोनों कविताओं की एक-एक बानगी देखें–
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर-चूर! – उनको प्रणाम!
और ‘अपने खेत में’ कविता का यह अंश देखें–
अपने खेत में हल चला रहा हूँ इन दिनों बुआई चल रही है इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही मेरे लिए बीज जुटाती हैं हाँ, बीज में घुन लगा हो तो अंकुर कैसे निकलेंगे! जाहिर है बाजारू बीजों की निर्मम छँटाई करूँगा खाद और उर्वरक और सिंचाई के साधनों में भी पहले से जियादा ही चौकसी बरतनी है मकबूल फिदा हुसैन की चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक हमारी खेती को चौपट कर देगी! जी, आप अपने रूमाल में गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!
बाबा ने अपनी कविताओं का भाव-धरातल सदा सहज और प्रत्यक्ष यथार्थ रखा, वह यथार्थ जिससे समाज का आम आदमी रोज जूझता है। यह भाव-धरातल एक ऐसा धरातल है जो नाना प्रकार के काव्य-आंदोलनों से उपजते भाव-बोधों के अस्थिर धरातल की तुलना में स्थायी और अधिक महत्वपूर्ण है। हालाँकि उनकी कविताओं की ‘तात्कालिकता’ के कारण उसे अखबारी कविता कहकर खारिज करने की कोशिशें भी हुई हैं, लेकिन असल में, यदि एजरा पाउंड के शब्दों में कहें तो नागार्जुन की कविता ऐसी ख़बर (news) है जो हमेशा ताज़ा (new) ही रहती है। वह अखबारी ख़बर की तरह कभी बासी नहीं होती। उनकी कविता के इस ‘टटकेपन’ का कारण बकौल नामवर सिंह ‘व्यंग्य की विदग्धता’ है। नामवर सिंह कहते हैं– ‘व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं।….इसलिए यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ। नागार्जुन के काव्य में व्यक्तियों के इतने व्यंग्यचित्र हैं कि उनका एक विशाल अलबम तैयार किया जा सकता है।’ दरअसल, नागार्जुन की कविताओं को अख़बारी कविता कहने वाले शायद यह समझ ही नहीं पाते कि उनकी तात्कालिकता में ही उनके कालजयी होने का राज छिपा हुआ है और वह राज यह है कि तात्कालिकता को ही उन कविताओं में रचनात्मकता का सबसे बड़ा हथियार बनाया गया है। उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको’, ‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी’, ‘अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन’ और ‘तीन दिन, तीन रात’ आदि इसका बेहतरीन प्रमाण हैं। असल में, बात यह है कि नागार्जुन की कविता, जैसा कि कई अन्य महान रचनाकारों की रचनाओं के संबंध में भी कहा गया है, आम पाठकों के लिए सहज है, मगर विद्वान आलोचकों के लिए उलझन में डालने वाली हैं। ये कविताएँ जिनको संबोधित हैं उनको तो झट से समझ में आ जाती हैं, पर कविता के स्वनिर्मित प्रतिमानों से लैस पूर्वग्रही आलोचकों को वह कविता ही नहीं लगती। ऐसे आलोचक उनकी कविताओं को अपनी सुविधा के लिए तात्कालिक राजनीति संबंधी, प्रकृति संबंधी और सौंदर्य-बोध संबंधी आदि जैसे कई खाँचों में बाँट देते हैं और उनमें से कुछ को स्वीकार करके बाकी को खारिज कर देना चाहते हैं। वे उनकी सभी प्रकार की कविताओं की एक सर्वसामान्य भावभूमि की तलाश ही नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी आँखों पर स्वनिर्मित प्रतिमानों से बने पूर्वग्रह की पट्टी बँधी होती है। बाबा के लिए कवि-कर्म कोई आभिजात्य शौक नहीं, बल्कि ‘खेत में हल चलाने’ जैसा है। वह कविता को रोटी की तरह जीवन के लिए अनिवार्य मानते हैं। उनके लिए सर्जन और अर्जन में भेद नहीं है। इसलिए उनकी कविता राजनीति, प्रकृति और संस्कृति, तीनों को समान भाव से अपना उपजीव्य बनाती है। उनकी प्रेम और प्रकृति संबंधी कविताएँ उसी तरह भारतीय जनचेतना से जुड़ती हैं जिस तरह से उनकी राजनीतिक कविताएँ। बाबा नागार्जुन, कई अर्थों में, एक साथ सरल और बीहड़, दोनों तरह के कवि हैं। यह विलक्षणता भी कुछ हद तक निराला के अलावा बीसवीं सदी के शायद ही किसी अन्य हिन्दी कवि में मिलेगी! उनकी बीहड़ कवि-दृष्टि रोजमर्रा के ही उन दृश्यों-प्रसंगों के जरिए वहाँ तक स्वाभाविक रूप से पहुँच जाती है, जहाँ दूसरे कवियों की कल्पना-दृष्टि पहुँचने से पहले ही उलझ कर रह जाए! उनकी एक कविता ‘पैने दाँतोंवाली’ की ये पंक्तियाँ देखिए–
धूप में पसरकर लेटी है मोटी-तगड़ी,
अधेड़, मादा सुअर…
जमना-किनारे मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में पसरकर लेटी है
वह भी तो मादरे हिंद की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनोंवाली!
यों, बीहड़ता कई दूसरे कवियों में भी है, पर इतनी स्वाभाविक कहीं नहीं है। यह नागार्जुन के कवि-मानस में ही संभव है जहाँ सरलता और बीहड़ता, दोनों एक-दूसरे के इतने साथ-साथ उपस्थित हैं।