बिहार में सत्ता से भाजपा को दूर रखने की रणनीति

-डॉ. मयंक चतुर्वेदी-

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बिहार में जिस तरह का भारतीय जनता पार्टी को घेरने के लिए अन्य राजनीतिक पार्टियाँ प्रयास कर रही हैं, उसे देखकर अत्याधिक आश्चर्य होना स्वभाविक लगने लगा है, क्योंकि जो राजनेता इस कार्य में लगे हैं, लगता है कि उन्हें संगठन शास्त्र का या तो ज्ञान नहीं है या फिर वे निरर्थक प्रयासों से स्वयं की शक्ति का ह्र्रास खुद से करना चाहते हैं। वस्तुत: जब विचारों में समानता न हो, तो अक्सर यही दृश्य उपस्थित होता है, जिस प्रकार का इन दिनों नीतीश-लालू गठबंधन के रूप में बिहार में देखा जा रहा है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि विधानसभा चुनाव को लेकर तैयारियों में जुटे सत्ताधारी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) एवं राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के बीच सीटों के बंटवारे के साथ गठबंधन नेतृत्व के सवाल पर अभी से पेंच फंसने लगे हैं। चुनाव मैदान में जाने से पहले गठबंधन का नेता घोषित किया भी जाना चाहिए या नहीं, इसे लेकर दोनों दलों में गंभीर मतभेद हैं। जब शुरुआत में यह हाल हैं, तो आगे का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। फिर जनता को भी सोचना है, क्योंकि वह राज्य में जदयू की सरकार को देख ही रहे हैं और उन्होंने लालू को भी बरसों बरस देखा है, अब कम से कम इस बार पूरे बहुमत के साथ भाजपा को मौका देना चाहिए, जिससे केंद्र की भाजपानीत मोदी सरकार का भी प्रदेश के विकास में भरपूर योगदान लिया जा सके।
बिहार में वैसे भी इस संगठन का कोई ज्यादा महत्व नहीं रह गया है। जीतनराम मांझी और नीतीश कुमार के बीच मुख् यमंत्री बने रहने के लिए जो ड्रामा हुआ था, उसके बाद से बिहार की जनता भी जान गई है कि ये सभी दल सत्ता के लालची हैं, इन्हें जनता के सरोकारों से सीधे कोई लेना-देना नहीं। हालांकि, मांझी को नीतीश ने ही मुख्यमंत्री की कुर्सी यह सोचकर सौंपी थी कि जनता में यह संदेश जाएगा कि नीतीश पर थोड़ी सी उंगली उठी और उन्होंने कुर्सी का त्याग कर दिया, लेकिन उनका पांसा उल्टा पड़ गया। इसके बाद तो मांझी नीतीश पर भारी ही पड़ने लगे। अब दोनों के बीच का मनमुटाव आपसी टकराव में बदल चुका है। फिर, कल तक जो लालू-नीतीश एक-दूसरे के घोर-विरोधी रहते हुए लोगों को आपस में लड़वाने का कार्य कर रहे थे, उनका एक साथ हो जाना भी बिहार की जनता को साफतौर पर समझ में आ रहा है।
हालांकि, इस बात को कोई नहीं नकार रहा है कि भाजपा को लोकसभा चुनाव के बाद राज्य में हुए उपचुनाव में बड़ा झटका लगा था। बीजेपी इस चुनाव में लालू-नीतीश की दोस्ती से सिर्फ 4 सीटों पर ही जीत हासिल करने में सफल हो सकी थी, जबकि लालू-नीतीश गठबंधन को 6 सीटों पर जीत मिली थी। किंतु आज राजनीतिक विश्लेषकों की इस उपचुनावों के नतीजों पर यही टिप्पणी है कि जदयू, राजद और कांग्रेस के मिल जाने से बिहार में यादव, दलित, अति पिछड़ा, कुर्मी और मुस्लिम का ऐसा गठजोड़ तैयार हुआ था कि तात्कालिकता में उसका कोई तोड़ निकालना मुश्किल ही नहीं, असंभव जैसा था। जिसके कारण भाजपा को इस गठबंधन से गंभीर चुनौती मिली, लेकिन बीते कुछ महीनों के दौरान बिहार का माहौल फिर से बदल गया है।
पिछले बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजों पर गौर करें तो बिहार में जेडीयू और भाजपा गठबंधन को दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाने का जनादेश मिला था, तो वहीं बिहार की जनता ने लालू को एक सिरे से नकार दिया और कांग्रेस का तो उससे भी बुरा हाल किया था। कई ऐसे जिले और क्षेत्र रहे, जहां के लोकप्रिय नेताओं को करारी मात मिली, जिसमें से प्रमुख रहा राबड़ी देवी का उनके अपने दोनों चुनाव क्षेत्रों सोनपुर और राघोपुर से पराजित होना, साधु यादव की करारी मात और अन्य मु ख्य नेताओं की हार को भी इसी रूप में देखा जा सकता है। यह संभव सिर्फ जेडीयू और भाजपा गठबंधन के कारण ही हुआ था।
2010 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान कुल 243 सीटों के नतीजों को देखें तो पता चलता है कि जदयू ने 141 पर चुनाव लड़कर 115 सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं भाजपा ने 102 से अपने उम्मीदवार खड़े किए थे तथा 91 सीटों पर वह विजय पाने में वह सफल रही थी। राजद ने 168 उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे, जिनमें से सिर्फ 22 ही जीत सके थे। इससे भी बुरा हाल कांग्रेस का पिछले विधानसभा चुनावों में हुआ था। 243 सीटों पर केंडिडेट उतारने के बाद भी वह केवल 4 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी थी। यहां लोजपा ने 75 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, जिसमें से उसे 3 सीटों को जीतकर संतोष करना पड़ा था। सीपीआई ने भी यहां अपने प्रयास जीत के लिए किए, लेकिन उसे भी बिहार की जनता ने नकार दिया था। 185 उम्मीदवार खड़े करने के बावजूद वह मात्र 1 पर वह विजय हासिल कर सकी थी। वहीं अन्य उम्मीदवार 243 स्थानों पर खड़े होकर 7 सीटें जीतने में कामयाब रहे थे।
वस्तुत: विचारधारा के स्तर पर कहा जाए तो जेडीयू-आरजेडी गठबंधन भारतीय राजनीति में उत्पन्न आज एक ऐसा गठबंधन है, जिसमें ये दोनों दल परस्पर की एकता में कोई इत्तेफाक नहीं रखते हैं। इसीलिए भी यहां जनता के हित को देखते हुए आने वाले दिनों में पूर्ण बहुमत के साथ बीजेपी की सरकार बननी चाहिए। फिर भाजपा का आंतरिक आकलन भी बता रहा है कि इस वर्ष के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में 185 से अधिक सीट प्राप्त कर बीजेपी बिहार की जनता को एक अच्छी और मजबूत सुशासन युक्त सरकार देने में सफल हो सकती है।
वास्तव में आज इस बात से सभी इत्तेफाक रखते हैं कि बिहार में जेडीयू और बीजेपी की सरकार थी, यह प्रदेश विकास के रास्ते पर था, यहां कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक थी और जैसे ही जेडीयू की सरकार से बीजेपी अलग हुई, यह राज्य फिर पुराने रास्ते पर चल पड़ा है, यहां तमाम विकास कार्य रुके पड़े हैं। वस्तुत: सच यही है कि अपनी-अपनी पार्टी में संभावित भगदड़ को रोकने के लिए ही लालू और नीतीश बिहार में एकजुट हाने का प्रयत्न कर रहे हैं। उन्हें परस्पर लगता है कि भाजपा की दिन प्रतिदिन बढ़ती ताकत को रोकने के लिए इसके अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प मौजूद नहीं है। किंतु वह यह भूल जाते हैं कि भाजपा जैसा केडर कहां से लाया जा सकेगा? भारतीय जनता पार्टी ने अपने संगठन स्तर पर जो रचना खड़ी की है, उसके मुख्य आधार हैं समाज संगठन, महिला संगठन, उपेक्षितों का संगठन, वनवासियों का संगठन, सांस्कृतिक स्तर पर संगठन, युवाओं का संगठन, अल्पसंख्यकों का संगठन और बौद्धिक लोगों का ज्ञान संगठन। इसके अलावा जो बात भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को निरंतर जोड़कर रखती है, वह है उनका यह मानना कि हम में अखंड सांस्कृतिक ऐक्य, हम में सदैव इतिहास सा य, धार्मिक विचार-धारा पुनीत, आदर्श मूल सिध्दान्त सा य, संगठन भवन निर्माण हेतु,आधार-स्तंभ मिलते जाते हैं।

भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को लेकर एक सच यह भी है कि यहां आंतरिक मोर्चे पर संगठन-कार्य में संलग्न व्यक्ति को सतत जागरूक रह कर अपने सहयोगियों की प्रत्येक गतिविधि का अति सूक्ष्म निरीक्षण करने की जवाबदेही तय की जाती है। उन्हें बड़े ही सहृदय, स्नेहपूर्ण एवं सरल भाव से संस्कारित करने हेतु निरन्तर प्रयासरत रहने की ट्रेनिंग दी जाती है। भाजपा कार्यकर्ता को बार-बार यह बताया जाता है कि एक विशिष्ट ध्येय से युक्त, आदर्शमय जीवन निर्माण किये बिना संगठन का कार्य अस ंभव है तथा अनेक राष्ट्रीय गुणों से संपन्न असंख्य व्यक्ति निर्माण कर उन्हें एक संगठन-सूत्र में पिरोना होगा, तभी लोकतंत्र में किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता अपने समाज और देश का भला कर सक ते हैं।
यहां प्रश्न लाजिमी है कि संगठन के लिए संगठन, संगठन में निहित सामूहिकता और संगठन-कौशल के बुनियादी उसूल को बिहार में लालू एवं नीतीश कहां से लेकर आयेंगे? वर्तमान परिदृश्य को देखकर तो बिल्कुल नहीं लगता कि वे ऐसा कर पायें। अत: यही कहना होगा कि बिहार में सत्ता से भाजपा को दूर रखने की कोई भी रणनीति जेडीयू-आरजेडी गठबंधन बना ले। उससे कुछ होने वाला नहीं है। वैसे भी उपचुनावों में देखा यही गया है कि जिसकी राज्य में सरकार होती है, वही अधिकतम सीट जीतने में सफल रहता है, फिर भी भाजपा यहां 10 सीटों में से 4 पर तो जीतने में सफल ही रही है। अब के विधानसभा चुनाव पूरे पांच वर्षों तक सत्ता की चाबी किसी एक दल को सौंपने के लिए होने जा रहे हैं, ऐसे में फिलहाल बिहार की जनता के पास भाजपा से अच्छा और कोई विकल्प मौजूद नहीं, ऐसा लगता है। इसके पीछे का तर्क यह भी है कि केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार होने के राज्य के विकास के लिए अहम मायने हैं। निश्चित ही बिहार में भाजपा की सरकार बनाकर यहां की जनता अपने प्रदेश के विकास में केंद्र सरकार का भरपूर सहयोग लेना चाहेगी। इसलिए भी कहा जा सकता है कि नीतीश-लालू इस बार भाजपा को सत्ता से दूर करने के लिए अपने पूरे प्रयास भले ही कर लें, उनकी सफलता की गुंजाइश बहुत कम ही नजर आ रही है।

2 COMMENTS

  1. मोदी नेतृत्व के अंतर्गत केंद्र में बीजेपी की पहले वर्ष में कार्यप्रणाली का आकलन और उसके सामान्य विकास पर अच्छा बुरा प्रभाव जनता तक पहुंचाने में एक ऐसी दौड़ लगी है जो केवल राजनैतिक दलों तक ही सीमित नहीं बल्कि उनके साथ जुड़े राष्ट्रवादी और राष्ट्रद्रोही तत्वों द्वारा बिहार की सरलमति जनता को समझाने अथवा बरगलाने का प्रयास है| जनता में राजनैतिक जागरूकता बढ़नी चाहिए ताकि वे अपना अच्छा बुरा विचार कर ठीक राजनैतिक निर्णय ले पाएं|

  2. बिहार में जातिवाद आज भी बड़ी सच्चाई है। लालू और नितीश के साथ कांग्रेस के मिलने से ये गटबंधन बीजेपी पर हर हाल में भारी पड़ेगा। रही सत्ता और सीटों की लड़ाई महाराष्ट्र में बीजेपी शिवसेना की खींचतान पुरानी नहीं है लेकिन अंत में सत्ता ने दोनों को एक कर दिया। बिहार में भी यही होगा।
    एक बात और राज्य के विकास के लिये केंद्र में उसी पार्टी की सरकार ज़रूरी होती तो गुजरात में विकास कैसे होता ?
    बीजेपी मोदी की एक साल की सरकार के रहते पहले से काफी कमज़ोर और जनविरोधी साबित हो रही है जिस से उसे जीत का सपना फिलहाल नहीं देखना चाहिये।

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