गत फरवरी माह के 10 को आये दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने प्रचंड बहुमत प्राप्त करते हुए 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में 67 सीटों पर कब्ज़ा किया था। चुनावी नतीजे आने के चार दिन बाद रामलीला मैदान में लाखों की भीड़ के समक्ष बतौर दिल्ली के मुख्यमंत्री की शपथ लेते हुए अरविन्द केजरीवाल ने जनता के सामने भावनात्मक भाषण देते हुए कहा था कि ‘भाजपा व् कांग्रेस की हार का सबसे बड़ा कारण उनमे अहंकार का आना था इसलिए हमारे किसी भी नेता को आने वाले समय में अपने भीतर अहंकार नहीं लाना होगा’।
मुख्यमंत्री की शपथ लेने के कुछ ही दिन बीते हैं कि एक बार फिर से आम आदमी पार्टी के भीतर घमासान शुरू हो गया है। होली के पहले 4 मार्च को हुई आप कार्यकारिणी की बैठक में एक ऐसा निर्णय लिया गया जिससे प्रचंड जीत के कुछ ही दिनों के भीतर इस राजनैतिक दल में अब तक की सबसे बड़ी फूट पड़ती हुई प्रतीत हो रही है। संयोजक अरविन्द केजरीवाल के बगैर हुई कार्यकारिणी की बैठक में एक ही झटके में पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रहे प्रशांत भूषण व् भारतीय राजनीति में समाजवादी चरित्र रखने वाले योगेन्द्र यादव को पार्टी की पीएसी से निकाल फेंका गया।
गौरतलब है कि पार्टी में लिए जाने वाले बेहद महत्वपूर्ण निर्णयों में पीएसी के सदस्यों की अहम् भूमिका होती है या यह भी कहना गलत नहीं होगा कि राजनैतिक दल में लिया जाने वाले कोई भी प्रमुख निर्णय बगैर पीएसी की मीटिंग में नेताओं के विचार व् सहमती के नहीं होते हैं। इसी कड़ी में विगत 4 मार्च को मशहूर कवि व् आप के नेताओं की अग्रणी पंक्ति में आने वाले कुमार विश्वास की अध्यक्षता में वोटिंग के जरिये लिए गए इस फैसले में प्रशांत भूषण व् योगेन्द्र यादव के पक्ष में 8 व् मुखालफत में 11 वोट पड़े थे जिसकी वजह से आप के दोनों प्रमुख नेताओं को पार्टी की पीएसी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
पीएसी से बाहर किये जाते ही आम आदमी पार्टी नेताओं तथा कार्यकर्ताओं के दो गुटों में बंटती हुई दिखाई देने लगी है। पहला गुट पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल के साथ खड़ा हुआ दिखाई दे रहा है तो वहीँ दूसरा पार्टी की कार्यप्रणाली से नाराज़ होते हुए योगेन्द्र व् प्रशांत की ओर चला गया है। शायद आम आदमी पार्टी को इसकी आशंका नहीं थी कि निर्णय लेने के बाद स्थिति इस कदर बिगड़ जाएगी कि सोशल मीडिया से लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं में अरविन्द केजरीवाल के अहंकार से ग्रसित होने का आरोप और व्यापक तरीके से लगने लगेंगे।
बीते साल भर में ही कई पार्टी के शीर्ष नेता जैसे शाजिया इल्मी, विनोद कुमार बिन्नी आदि जैसे पार्टी में अहम् भूमिका रखने वाले नेता आम आदमी पार्टी के निर्णयों में अरविन्द केजरीवाल के पूर्ण रूप से हावी होने जैसे आरोप लगाकर पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं। इसी कारणवश अब यह सवाल और तेज़ी से उठने लगा है कि तमाम लोकतान्त्रिक व आदर्श राजनीति की बात करने वाले अरविन्द केजरीवाल भी अन्य राजनैतिक दलों के भांति बदल गए हैं जिसमे पार्टी के शीर्ष नेताओं के द्वारा ही सभी निर्णय लिए जाते हैं।
इतना ही नहीं बल्कि हाल फ़िलहाल पार्टी के भीतर उठे अरविन्द के विरोध में सुर से भी पार्टी में लोकतान्त्रिक प्रणाली पर सवाल उठने लगे हैं। आप के शीर्ष नेता व् पार्टी के महाराष्ट्र की राजनीति में अहम् चेहरे के रूप में स्थान रखने वाले मयंक गाँधी के होली से एक दिन पहले व् होली के अगले दिन लिखे गए ब्लॉग से भी अरविन्द केजरीवाल की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगने लगे हैं। मयंक गाँधी ने ब्लॉग के माध्यम से पार्टी संयोजक अरविन्द केजरीवाल पर सवाल उठाते हुए कहा है कि योगेन्द्र यादव व् प्रशांत भूषण के सन्दर्भ में लिया गया निर्णय पूरा पार्टी का नहीं बल्कि अरविन्द केजरीवाल का निर्णय है। अपने दूसरे लिखे गए ब्लॉग के जरिये से मयंक गाँधी ने कई उचित सवाल उठाते हुए कहा है कि पार्टी के भीतर उनके खिलाफ ऐसा माहौल खड़ा किया जा रहा है जिससे तंग आकार बाकियों की तरह ही वे भी पार्टी छोड़ दें।
अगर हम मयंक गाँधी के द्वारा ब्लॉग में उठाये गए सवालों पर गौर करें तो ये सवाल किसी भी नज़र से गलत नहीं लगते नहीं बल्कि ये वही सवाल हैं जो अरविन्द केजरीवाल अन्ना आन्दोलन से लेकर पार्टी के दिल्ली विधानसभा चुनावों में भारी जीत तक उठाते रहे हैं। मसलन इसी कड़ी में पहला सवाल केजरीवाल पार्टी के भीतर पूर्ण रूप पारदर्शिता के पक्ष में दिखाई देते रहे हैं और अन्ना आन्दोलन के समय पर कहते रहे थे कि लोकपाल के लिए कांग्रेस नेताओं के साथ की जाने वाली बैठकों की विडियो रिकॉर्डिंग की जानी चाहिए जिससे जनता के बीच दूध का दूध व् पानी का पानी आ सके। महज दो वर्ष बीतते ही अरविन्द के द्वारा की जाने वाली यह तमाम बातें पार्टी की कार्यप्रणाली से कोसो दूर चली गयी हैं।
खैर, अब आने वाले वक़्त में यह देखना दिलचस्प होगा कि किस तरह से अरविन्द केजरीवाल अपने उपर लगने वाले आरोपों से कैसे सामना करते हैं और तमाम अन्य पार्टियों में स्वराज, लोकतंत्र, पारदर्शिता पर सवाल उठाने वाले अपनी राजनैतिक दल में कैसे लागू कराते हैं।
मदन तिवारी