केन्द्र सरकार के ‘आदेशपाल’ की भूमिका निभाते राज्यपाल

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राज्यपालों की भूमिका पर मंथन जरूरी

योगेश कुमार गोयल

अगर महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने संविधान-सम्मत, नियम-कायदों को दरकिनार कर चुपके-चुपके फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ नहीं दिलाई होती तो सर्वोच्च अदालत को राज्यपाल को निर्देशित करने पर विवश नहीं होना पड़ता। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला अवसर रहा, जब बगैर किसी आपात स्थिति के इस प्रकार रातों-रात राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक सारी सरकारी मशीनरी सक्रिय हुई और राष्ट्रपति से सुबह 5.45 बजे राष्ट्रपति शासन हटाए जाने संबंधी आदेश पर हस्ताक्षर कराते हुए सुबह आठ बजे राज्यपाल द्वारा फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिला दी गई हो। आज अगर भाजपा पर सत्ता के दुरूपयोग के आरोप लग रहे हैं तो लंबे अरसे तक कांग्रेस के शासनकाल में उस पर भी राज्यपाल पद का इसी प्रकार दुरूपयोग करने के आरोप लगते रहे थे। हालांकि मौजूदा सरकार की गलतियों को यह कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अगर पिछली सरकारों ने यही सब बार-बार किया तो अगर इस सरकार ने भी कर दिया तो कौन-सा गुनाह किया।

भारतीय लोकतंत्र के लिए यह अत्यंत विडम्बनापूर्ण और दुखदायी स्थिति है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में अब किसी भी राजनीतिक दल का विश्वास नजर नहीं आता। हर कोई जोड़-तोड़ के सहारे सत्ता बनाने या सत्ता बचाने की जुगत में जुटा दिखता है। महाराष्ट्र में अजित पवार कुछ दिनों पहले तक फडणवीस को महाभ्रष्ट लगते थे। वह कहते भी थे कि अजित पवार जल्दी ही जेल में होंगे। फिर एकाएक 22 नवम्बर को वही अजित पवार फडणवीस के लिए इतने पाक-साफ कैसे हो गए? उन्हें क्यों लगने लगा कि भले ही अजित पवार पर हजारों करोड़ के घोटालों के आरोप हों पर उनसे बेहतर उपमुख्यमंत्री महाराष्ट्र के लिए और कोई नहीं हो सकता? दूसरी ओर, एक-दूसरे की धुर विरोधी विचारधाराओं वाली शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने सत्ता हथियाने के लिए जिस प्रकार की राजनीति की, उसे भी ठीक नहीं कहा जा सकता।

अब बात करें राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की। उनकी भूमिका इस सारे परिदृश्य में बेहद महत्वपूर्ण थी। उनकी ओर देश का हर नागरिक तटस्थ, आदर्श और ईमानदारीपूर्वक फैसला लेने की आस लगाए टकटकी बांधे देख रहा था। उनकी भूमिका से अगर सभी को निराशा हुई तो उसके महत्वपूर्ण पहलुओं पर नजर डालना जरूरी है। आखिर उन्होंने रातों-रात राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफारिश किस आधार पर की? लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसके बारे में किसी को बताना जरूरी क्यों नहीं समझा? जब कहीं भी राष्ट्रपति शासन लगाया या हटाया जाता है तो उसकी एक संवैधानिक प्रक्रिया होती है। सबसे पहले राज्यपाल राष्ट्रपति को सिफारिश भेजते हैं। उसके बाद राष्ट्रपति उसे प्रधानमंत्री के पास भेजते हैं। प्रधानमंत्री कैबिनेट की बैठक बुलाने के बाद राष्ट्रपति को कैबिनेट की राय से अवगत कराते हैं। इस प्रक्रिया के बाद ही राष्ट्रपति द्वारा किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन को लगाने अथवा हटाए जाने के आदेश पर मुहर लगाई जाती है। महाराष्ट्र में आधी रात के बाद यह सब कब और कैसे संभव हुआ, कोई नहीं जानता।

आखिर राज्यपाल को ऐसी क्या हड़बड़ी थी कि महज दो-ढाई घंटे के अंदर ही गुपचुप तरीके से राष्ट्रपति शासन हटाने तथा मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने की संवैधानिक प्रक्रिया रहस्यमयी तरीके से पूरी करनी पड़ी। इस बात पर कोई विश्वास नहीं कर सकता कि राज्यपाल को मालूम नहीं होगा कि विधानसभा में शक्ति परीक्षण से पहले बहुमत का आंकड़ा जुटाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सभी तरह के हथकंडे अपनाए जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश पी.वी. सावंत का कहना है कि महाराष्ट्र में राज्यपाल ने जो कुछ भी किया, वह असंवैधानिक है। उनके मुताबिक राज्यपाल को सबसे पहले विधानसभा का गठन करना चाहिए था। विधायकों को शपथ दिलानी चाहिए थी। उसके बाद विधायक विधानसभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष का चुनाव करते, ताकि विधानसभा का कामकाज सुचारू रूप से चलाया जा सके। फिर राज्यपाल सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते।

हालांकि ऐसा करने वाले महाराष्ट्र के राज्यपाल कोश्यारी कोई पहले राज्यपाल नहीं हैं। दर्जनों ऐसे उदाहरणों से देश का इतिहास भरा पड़ा है। जब तमाम नियम-कानूनों को ताक पर रखते हुए राज्यपालों ने अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन करने की बजाय केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकार के आदेशपाल की ही भूमिका निभाई। दिसम्बर 2014 में अरूणाचल प्रदेश में दलबदल के जरिये राज्य सरकार को अस्थिर कर राष्ट्रपति शासन लगाए जाने पर मामला सुप्रीम कोर्ट में जाने पर अदालत की संविधान पीठ ने राज्यपाल के रवैये पर सख्त टिप्पणियां करते हुए राज्यपाल की सिफारिश को असंवैधानिक करार देकर कांग्रेस सरकार को पुनः बहाल करने का आदेश दिया था। मार्च 2016 में उत्तराखण्ड में भी अदालत ने वहां राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को असंवैधानिक करार दिया था और हरीश रावत सरकार फिर बहाल हुई थी। मई 2018 में कर्नाटक में भी ऐसे ही मामले को लेकर राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठे थे।

पिछले कई दशकों से यही सिलसिला चला आ रहा है। इस सिलसिले की शुरूआत उस वक्त हुई थी, जब देश में विभिन्न राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों के बनने का दौर शुरू हुआ। उसके बाद से केन्द्र में जो भी सरकारें बनी, लगभग सभी ने दूसरे दल की राज्य सरकारों को परेशान करने के लिए राज्यपालों का अपने मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया। यह आज भी जारी है। राज्यपालों ने खुद पर केन्द्र की कृपादृष्टि बनाए रखने के लिए समय-समय पर राज्य सरकारों को परेशान और अस्थिर करने का खेल खेला। राज्यपाल रूपी संवैधानिक संस्था से उम्मीद की जाती है कि वह किसी दल विशेष का पक्षधर बनने की बजाय संविधान-सम्मत व्यवस्था के अनुरूप कार्य करे। दुर्भाग्य है कि ऐसे मामलों में अक्सर राज्यपालों पर राजनीतिक वफादारी और केन्द्र सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। राजभवन केन्द्र में सत्तारूढ़ दल की जागीर बन गए हैं। 2002 में जम्मू कश्मीर, 2005 में झारखण्ड, 2013 में दिल्ली और 2018 में गोवा में सरकार गठन में राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठे थे।

राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठने का सिलसिला आजादी के महज 7 साल बाद 1954 में ही शुरू हो गया था। तब मद्रास के राज्यपाल ने कम्युनिस्ट सरकार न बनने देने और कांग्रेस की सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी। उसके बाद 1958 में धारा 356 का दुरूपयोग कर प्रदेश की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। तब से लेकर आज तक राज्यपालों की भूमिका पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। अक्टूबर 2005 में बिहार में तो ऐसा अनोखा इतिहास रच दिया गया था, जब देश के इतिहास में पहली बार बिना शपथ लिए किसी विधानसभा को भंग कर वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। तब जनवरी 2006 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश योगेश कुमार सब्बरवाल, न्यायमूर्ति बी.एन. अग्रवाल तथा न्यायमूर्ति अशोक भान ने राज्यपाल बूटा सिंह द्वारा बिहार विधानसभा भंग करने की सिफारिश को संविधान की आत्मा तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विपरीत आचरण बताते हुए कहा था कि राज्यपाल ने असंवैधानिक निर्णय लेते हुए केन्द्रीय मंत्रिमंडल को गुमराह किया। राज्यपाल के पास कोई प्रासंगिक सामग्री नहीं थी, जिसके आधार पर विधानसभा भंग करने की अतिवादी कार्रवाई की जाए, बल्कि राज्यपाल का उद्देश्य किसी राजनीतिक दल को सरकार बनाने का दावा पेश करने से रोकने का था।   

केन्द्र में भले ही किसी भी दल की सरकार बने, वह सदैव अपने चहेतों को ही राज्यपाल के पद पर आसीन करती है। यही कारण है कि राज्यपाल का पद विवादों से घिरा रहता है। धारा 356 के उपयोग को लेकर तो राज्यपाल अक्सर विवादों में रहे हैं, जिसका उपयोग केन्द्र सरकारें राज्यपाल के माध्यम से विरोधी दल की सरकार को धराशाई करने के लिए करती रही हैं। उप्र के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी, आंध्र प्रदेश के रामलाल, बिहार के विनोद चंद्र पांडे, बूटा सिंह सहित ऐसे दर्जनों राज्यपाल रहे हैं जिन्होंने पद की गरिमा को तार-तार किया। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश आर. एस. सरकारिया ने 1988 में राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर अपनी रिपोर्ट में कई अहम सिफारिशें की थी लेकिन विडम्बना है कि इन सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

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