खड़े जब अपने पैर हो जाते !

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खड़े जब अपने पैर हो जाते, आत्म विश्वास से हैं भर जाते;
सिहर हम मन ही मन में हैं जाते, अजब अनुभूति औ खुशी पाते !

डरते डरते ही हम ये कर पाते, झिझकते सोचते कभी होते;
जमा जब अपने पैर हम लेते, झाँक औरों की आँख भी लेते !
हुई उपलब्धि हम समझ लेते, एक अहसास अनौखा पाते;
देखना विश्व को हैं फिर चहते, क़दम बहुतेरे हम बढ़ा पाते !

भूल जब जाते गति रति मन की, थिरक हम लेते देख कर जगती;
ठुमकि तब वाल वत हैं हम लेते, रमण कर रास फिर रमे चलते !
बुलाते वे ही रहें नित हमको, चलाना चाहते चित्त चहके;
‘मधु’ उर प्रेरणा से चल पड़ते, गिरते पड़ते उठे सफ़र करते !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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