रावण हमारे अंदर तो नहीं?

डॉ. तृप्ति तोमर
रावण ब्राह्मण, महा ज्ञानी तपस्वी था, उसने अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के दम पर ही सोने की लंका को निर्मित किया था। उसकी शक्ति के सम्मुख देवतागण भी असहाय हो उठे थे। उसकी दिव्यता, पावनता एवं अलौकिकता में एक असंतुलित तत्व था, उसका राक्षसीय संस्कार जो उसे जन्म से प्राप्त था। जन्मजात मिली प्रवृृृृृृत्ति को दंभ एवं अभिमान की उसकी वैयक्तिक प्रवृत्ति ने मिश्रित होकर और भी फलीभूत किया।
आसपास का वातावरण भी मनुष्य के जय-पराजय, उत्थान पतन के लिए उत्तरदायी होता है, पर व्यक्ति का आत्मगुण भी उसे बाधित करता है कि वह किसे अपनाए और किसे त्यागे।
हम रावण के अविवेकी युक्त कृत्य सीता हरण हेतु सूर्पणखां को दोष देते हैं, जबकि वह तो केवल माध्यम थी, राक्षसीय संस्कार तो रावण में पहले से थे, वह उसे केवल बाहर लाई थी। सीताहरण, रावण के पतन का कारण बना।
आज भारत में चहुं ओर आध्यात्मिक संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। ये संस्थाएँ ध्यान, योग, तप, आराधना केन्द्र हैं। भारतीय नागरिक आश्रम में जाते हैं, ध्यान लगाते हैं, भव्य, दिव्य आश्रम में आध्यात्मिक पीयूष वर्षा होती नजर आती है। अचानक आश्रम की सच्चाई सामने आती है। आश्रम में छिपा साधु के वेष में रावण सामने आता है जो हमारी आस्था रूपी सीता का हरण बड़ी सादगी से कर रहा था।
इसी तरह विद्यालय, महाविद्यालय, वृद्धाश्रम, अनाथ आश्रम, विधवा आश्रम आदि संस्थाओं के संचालक कहीं न कहीं अपने अंदर एक रावण को जन्म दे देता है। कहा जाता है अच्छाई का अभिमान ही बुराई का प्रतीक है। समाज सुधार करते करते कब अनेक बुराइयों से ग्रसित हो जाते हैं, पता ही नही चलता है। विद्या के केन्द्र व्यापार का केन्द्र बन गए हैं, यह बहुत ही दुखद है। रावण बहुत ही प्रतिभाशाली व्यक्ति था, पर संस्कार की कलुषता से सारी उपलब्धियां धूमिल हो जाती हैं।
डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, मंत्री आदि अपने विद्या रूपी तपस्या से ज्ञान अर्जित करते हैं। अपने-अपने क्षेत्र में ये सभी विद्वता हासिल कर धन अर्जित करते हैं। सोने की लंका तो नहीं पर शीशमहल जैसी बड़ी बड़ी कोठियां बनाते हैं, पुष्पक विमान न सही बड़ी बड़ी कारें उनके दरवाजे पर खड़ी रहती हैं, पर उन्हें याद रखना चाहिए कि रावण जैसे पराक्रमी बलशाली विद्वान की सोने की लंका चुटकियों में जलकर खाक हो गयी थी। सारी उपलब्धियों पर अच्छाई की छाप होनी चाहिए। बुराई एवं पाप अन्तत: पराजित हो ही जाता है। किडनी, लीवर का व्यापार डिग्री एवं प्रतियोगिक परीक्षा में फर्जीवाड़ा नियुक्ति में पक्षपात रावणीय प्रवृत्ति के द्योतक हैं।
अत: बार-बार आत्म मंथन एवं आत्म विश्लेषण की महती आवश्यकता है। प्रगति एवं उपलब्धियों की चकाचांैंध में हमें अपनी सात्विक दृष्टि को भ्रमित नहीं होने देना चाहिए। सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक आर्थिक दायित्व को पूर्ण करते करते हम मशीनी होते जा रहे हैं। रामायण आदि ग्रंथ हमारी आस्थावान धरोहर हैं। यह पूजा में रखी स्थायी सामग्री नहीं है, भावों, संस्कारों की पावन गंगा है, जिसमें स्नान कर वृद्ध युवा एवं बालक पावन एवं पवित्रता को धारण करते हैं।
कुटिया से लेकर राजमहलों तक रामायण पूजनीय है, राम का मर्यादित आचरण हमारी शिक्षाआेंं का आधार है। राम के साथ-साथ रामायण का प्रत्येक पात्र हमारे सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करता है। राम का व्यक्तित्व हमारे लिये जितना पथ प्रदर्शक है, रावण का व्यक्तित्व भी हमारे लिए उतना ही पथप्रदर्शक है। उसके अंदर की दृढ़ इच्छा एवं परिश्रम एवं कुशलता वरेण्य है। हमें उसके जीवन से यह प्रेरणा मिलती है कि सारी उपलब्धियों के बीच बुद्धि का संतुलन एवं सामंजस्य नितान्त आवश्यक है।
मानव के अंदर सात्विक एवं राक्षसीय गुणों का समावेश होता है। जब राक्षसीय गुणों को हवा मिलती है तो सात्विकता का हनन होता है जो अपने पद एव उत्तरदायित्व के विरूद्ध अमर्यादित आचरण करके अनेक बुराइयों को जन्म देता है।
रावण दहन आत्म विश्लेषण आत्म चिंतन कर, बुराइयों को भस्म करने का ही प्रतीक है। अदृश्य शत्रु, दृश्य शत्रु से ज्यादा बलशाली होते हैं। मनोमालिन्य एवं दुष्प्रवृत्ति रूपी शत्रुओं के दमन हेतु उसे झूठी शान एवं चाटुकारिता के आवरण को हटाकर सच्चे शूरवीर की भांति विजय हासिल करनी चाहिए। अंधकार से उजाले की ओर उसे दिव्य कणों की मशाल को जाग्रत करके स्वयं के अंदर के रावण को ध्वस्त करना होगा, एवं अपने आसपास के प्रत्येक संस्था के संचालन एवं अन्य नागरिकों के हृदय में स्वच्छता की मशाल जाग्रत करनी होगी। त्याग, कर्तव्य के बाणों से असत्य एवं भ्रष्टाचार रूपी रावण का दहन करना होगा। यही विजयादशमी का वास्तविक रावण दहन है।

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