सटीक सूचनाएं परोसिए समाचारी खिचड़ी नहीं

विवेक कुमार पाठक
रोज प्रतिपल गरजते टीवी चैनल देख लीजिए सोशल मीडिया पर दनादन पोस्ट देख लीजिए। इससे समय मिल जाए तो चैराहों, मोहल्लों, पार्कों और सार्वजनिक गप केन्द्रों की गपबाजी सुन लीजिए। चर्चाएं पहले सेकिण्ड से शुरु हो रही हैं बहुत खूब मगर उनके आधार कितने मजबूत हैं। आंकड़ों के आधार पर चर्चाएं होनी चाहिए मगर दावे नजरियों और अनुमानों पर चर्चाएं हो रही हैं। इन चर्चाओं से मिथ्या के मिथक जनमानस के बीच सच बताकर खड़े किए जा रहे हैं। सवा अरब आबादी वाले देश में दो चार और ले देकर दस बीस व्यक्तियों पर पूरे देश का चैतरफा विमर्श सिमट गया है। यह बहुत बड़ा बदलाव है। यह एक दिन का बदलाव नहीं है। यह शनै शनै बदलाव है मगर इस विकट बदलाव के गहरे प्रभाव भी होने वाले हैं। कुछ छोटे छोटे त्वरित प्रभाव तो बीच बीच में दिख भी जाते हैं। मीडिया से ही बात शुरु कर लें। सुबह टीवी चैनलों से लेकर बेब पोर्टलों और ब्र्रेकिंग न्यूज में अब तक की सबसे बड़ी खबर के वे हीरो थे वे अंत तक हीरो क्यों नहीं रहते। उनके दावे गुजतरते वक्त के साथ ढहते क्यों चले जाते हैं। सबसे तेज की अंतहीन दौड़ का यह सबसे कमजोर पक्ष है। वहां लाखों करोड़ों लोगों तक केवल सूचनाएं पहुंचाने की होड़ है मगर सटीक सूचनाओं की होड़ नहीं। ब्रेकिंग की गर्जना के बाबजूद सूचनाएं हैं तो भी उसमें सूचना तत्व कम हैं उनमें अनुमान और नजरिए ज्यादा है। अनुमान और नजरिए और अपने अपने आकलन सूचना के छोटे पत्ते पर खुलकर परोसे जा रहे हैं। 24 घंटे इंटरनेट जगत से जुड़ा, श्रोता और दर्शक वर्ग एक तरह से इन आधी अधूरी कच्ची पक्की सूचनाओं, नजरियों और अनुमानों की समाचारी खिचड़ी का लक्ष्य हो गया है। वो जिज्ञासा में बे्रकिंग के नाम से जो मिल रहा है तो तुरंत भकोस रहा है। ये तुरंत भकोसना और फिर उसे फेसबुक टिव्टर और वाॅट्सएप से दूसरों के लिए अपनी तरफ से निरंतर परोसते रहना आज की हकीकत है।
कुछ मिनिटों से कुछ घंटों लाखों लोगों तक पहुंची ये खिचड़ी दिन में घंटा दर घंटा नए छोंका के साथ परोसी जाती है। हालत ये हो जाती है कि बे्रकिंग के समय परोसी सादा दाल पचमेल दाल या दाल मखानी और न जाने उससे भी ज्यादा क्या बन जाती है। इसमें सुबह बे्रकिंग के समय जो किसी बे्रकिंग में हीरो बनकर देशभर में दिखे थे वे शाम से रात तक बाकी की सूचना आने पर आधे हीरो बनकर रह गए। हर गुजरते दिन के साथ साथ ब्रेकिंग की बड़ी खबर सबसे बड़ी और बड़िया की जगह सबसे छोटी और घटिया खबर बनती चली गयी। यह रोज बार बार लगातार हो रहा है। इस नए समाचारी रिवाज में बड़े बड़े राजनैतिक किरदार बे्रकिंग के वक्त सेंसेक्स की तरह तेजी से उपर बढ़ रहे हैं तो आगे शाम से रात और अगले कुछ ही दिनों में धड़ाम से नीचे भी गिर रहे हैं। मीडिया में सबसे तेज और सबसे पहले के खेल ने अपनी जिम्मेदारी को तेजी से कम किया है। सबसे तेज का यह खतरनाक खेल एक दुधारी तलवार की तरह है जो पहले लाखों करोड़ों त्वरित व्यूअर्स और हिट्स की  संख्या भले बढ़ाती हो मगर दूसरे तरफ से ये मीडिया की विश्वसनीयता, गरिमा और साख को दूसरे तरफ से छीलते भी जाती है। रोज कई मामले और मसले होते हैं ताजा पुलवामा मामले को ही ले लें। पाकिस्तान में एयर स्ट्राइक की पूरी खबर करोड़ों लोग ज्यादा से ज्यादा तथ्यों के साथ जानना चाहते थे मगर दर्शकों, श्रोतओं और पाठकों ने उसमें अनुमानों की अनुमति कब दी थी। कब भारत सरकार ने बालकोट में मारे गए आतंकियों की सटीक संख्या आधिकारिक रुप से जारी की थी फिर आखिर ऐसी क्या जल्दी और अनंत टीआरपी छिन जाने का डर था कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व की इस खबर पर जिम्मेदारी से समाचार नहीं चलाए गए। आखिर ब्रेकिंग न्यूज के बहाने बिना बात की बकालोली देश दुनिया के सामने क्यों की गई। क्या बिना संख्या दिए और जारी किए बालकोट मामले का बेहतर कवरेज देश के मीडिया हाउस और उनके सर्वज्ञ एंकर नहीं कर सकते थे। क्या आज आतंकियों की अधिकारिक संख्या को जारी करके समाचार जगत के कई एंकरों ने अपने और अपने समाचार तंत्र की  साख पर तो संकट नहीं डाला है। आखिर सरकार ने भी तो इस तरह का कोई अधिकारिक दावा कब किया था। ये सिर्फ उदाहरण मात्र है। ऐसा अब रोज कई बार हो रहा है। ये देश के करोड़ों दर्शकों, श्रोताओं और पाठकों के प्रति कहीं न कहीं एक अन्याय सा है। वे आपसे सबसे पहले सबसे तेज खबर जानना चाहते हैं मगर केवल सच्ची खबर और जिम्मेदार ब्रेकिंग सूचना चाहते हैं। अगर उसमें वक्त लगता है तो पूरा वक्त लेते हुए खबर दीजिए मगर अनुमान, आशंका, आकलन और हमारी और उनकी नजर का हवाला देखते हुए समाचारी खिचड़ी न परोसिए।

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