भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन, अध्याय -3 , भाग – 2, अदम्य साहस और शौर्य का प्रतीक राजा दाहिर सेन

अदम्य साहस और शौर्य का प्रतीक राजा दाहिर सेन

सब लोगों को मारता हुआ भी नहीं मारता, यह बात आज के कानून विदों के लिए या विधि विशेषज्ञों के लिए समझ में न आने वाली एक रहस्यमयी पहेली है।


पर इसे हमारे वीर योद्धाओं ने भारतीय स्वाधीनता और संस्कृति की रक्षा के अपने प्रण का निर्वाह करते समय पूर्णतया अपनी नजरों के सामने रखा था। उन्होंने इसे अपने लिए आदर्श बना लिया था। यही कारण रहा कि चाहे कोई मोहम्मद बिन कासिम आया या कोई सिकंदर और बाबर या अहमद शाह अब्दाली आया , हमारे वीर योद्धाओं ने सभी विदेशी आक्रमणकारियों का सभी कालों में समान वेग से और समान कर्तव्य भाव से प्रेरित होकर उसका सामना किया।
हजारों लाखों लपलपाती नंगी तलवारों को देखकर भी भयभीत न होना और अपने कर्तव्य धर्म पर डटे रहना – इसे कोई सीख सकता है तो केवल भारत के महानायकों, महारथियों, सैनिकों ,वीर, साहसी योद्धाओं से ही सीख सकता है। हमारा इतिहास नायक राजा दाहिर सेन इसी साहस और शौर्य का प्रतीक है। जब उसके सामने बड़ी संख्या में शत्रु की लपलपाती नंगी तलवारें खड़ी थीं और इस बात की प्रतीक्षा कर रही थीं कि कब कोई शिकार आए और वह अपनी प्यास बुझाएं – तब वह कर्तव्य मार्ग का पथिक अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए निर्भीक और निडर होकर देश की सेवा के लिए तत्पर हो शत्रु के साथ युद्ध करने के लिए निरंतर आगे बढ़ रहा था। यदि कोई साधारण व्यक्ति होता तो तलवारों के समुद्र की चमक को देखकर भाग खड़ा होता । पर यह साधारण नहीं असाधारण शौर्य और अदम्य साहस का प्रतीक दाहिर सेन था जो अपनी तलवार को उन सारी तलवारों से कहीं अधिक ताकतवर मानकर बड़े आत्मविश्वास के साथ और विजयी होने के भाव को हृदय में संजोकर आगे बढ़ रहा था।
उसका हर कदम यह बता रहा था कि भारतवासियों के लिए पहले दिन से राष्ट्र प्रथम रहा है। राष्ट्रीयता पूजनीय रही है और राष्ट्रवाद वंदनीय रहा है।

जो घुसकर नंगी तलवारों में
भयभीत तनक नहीं होता है,
जो शत्रु की छाती पर चढ़कर
उसके लहू से आंचल धोता है।
जो शूरवीर और प्रतापी बनकर
स्वराष्ट्र की सेवा करता है,
इतिहास पुरुष उस नायक
को सारा जग अश्रु से रोता है।।

तब हमारे इतिहास नायक की दृष्टि में उसका अपना ‘आज’ नहीं था बल्कि हमारा आज था। वह किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर और अपने देश और देश की आने वाली पीढ़ियों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा था, इसलिए उस महानायक के समक्ष हृदय नतमस्तक होकर निष्पक्ष भाव से यही कहता है कि वह हमारी स्वाधीनता का महानायक था।

गीता का ‘धर्म युद्ध’ और राजा दाहिर सेन

गीता ने युद्ध को उस समय ‘धर्म युद्ध’ की संज्ञा दी है जब वह किन्हीं महान उद्देश्यों की रक्षा के लिए किया जाता है, जब यह देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए, देश के धर्म -संस्कृति और मानवता की रक्षा के लिए किया जाता है या मानवतावादी शक्तियों को प्रोत्साहित और संरक्षित करने के लिए किया जाता है, तब यह ‘धर्म युद्ध’ बन जाता है। जब सज्जन शक्ति का विनाश करने वाली शक्तियों को मिटाने के लिए युद्ध किया जाता है,तब उसे धर्म युद्ध कहा जाता है ।
जब कोई युद्ध किन्ही के अधिकारों का हनन करने के लिए या किन्ही की संपत्ति, जमीन -जायदाद , स्त्रियों आदि को लूटने, अपमानित करने या उनका शीलहरण करने के लिए किया जाता है तो यह अधर्म प्रेरित युद्ध बन जाता है। भारत ने अधर्म प्रेरित युद्ध न करके धर्म की रक्षा के लिए युद्ध किया, इसलिए राजा दाहिर सेन को भारत का एक ऐसा धर्म योद्धा कहा जाना उचित होगा, जिसने माँ भारती की स्वाधीनता और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित किया। वह धर्म योद्धा इसलिए भी है कि उसने अधर्म प्रेरित शक्तियों का संहार करने के लिए अपने धर्म को पहचाना और धर्म की रक्षा के लिए स्वयं को सहर्ष बलिवेदी पर समर्पित कर दिया। राजा ने यह कार्य उतना ही सहज रूप से कर दिया जैसे कोई व्यक्ति यज्ञ वेदी पर बैठा हुआ ‘स्वाहा’ बोलकर अपनी आहुति डाल देता है।

किया सर्वस्व देश के लिए समर्पित

राजा दाहिर सेन के जीवन पर यदि विचार किया जाय तो पता चलता है कि वह भारत की सीमाओं का एक ऐसा सजग प्रहरी था जो आज की मिसाइलों की तरह सीमा पर तैनात रहकर दूर अरब तक की गतिविधियों पर अपनी पैनी दृष्टि रखता था। वह दूरदर्शी सूक्ष्मदर्शी था जो दूर की घटनाओं को नजदीक से देखने का अभ्यासी था। वह शत्रु संहारक था और देश से हजारों किलोमीटर दूर रचे जा रहे षड़यंत्र पर अपनी पैनी दृष्टि रखता था । उसका हर पल, हर क्षण, हर श्वास देश के लिए समर्पित थी।

जीवन की हर सांस को किया देश के नाम।
जगवंदन उसका करे दिल से सुबहो – शाम ।।

वह वैदिक धर्म का एक ऐसा महान योद्धा था जिसे वह संसार के किसी भी मत , संप्रदाय या हिंसा, रक्तपात, घातपात आदि में विश्वास रखने वाली विचारधारा के समक्ष ऊँचा और प्राणों से प्रिय समझता था। वह भारतीय संस्कृति की एक ऐसी मशाल था जो हर जगह ज्ञान का प्रकाश करने में विश्वास रखती थी और संसार की उस प्रत्येक तथाकथित संस्कृति का विरोध करने को अपना राष्ट्रधर्म मानती थी जो मशालों को जलाने में नहीं बल्कि बुझाने में विश्वास रखती थी। वह उजालों का सौदागर था और अपने देश के लिए उजाला लाने के लिए वह चांद तारों तक जा सकता था और यदि आवश्यक हो तो सागर की गहराई में भी जा सकता था। इसके लिए वह पहाड़ों को चीर सकता था और आंधियों को रोक सकता था। इस सबके पीछे उसका केवल एक ही लालच था – अपने देश की रक्षा।

इस्लामिक आतंकवाद से जूझने वाला पहला योद्धा

वह भारत के पराक्रम और पौरुष का ऐसा जीता जागता उदाहरण था जो उग्रवाद का समूल विनाश कर देना चाहता था और उग्रवादियों को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता था। उसके काल में संभवत: पहली बार विश्व इस्लामिक आतंकवाद से ग्रसित हो रहा था। हमें इस बात पर गर्व और गौरव की अनुभूति होनी चाहिए कि इस्लामिक आतंकवाद के उस पहले दौर का सफलतापूर्वक सामना भारत कर रहा था और उस समय भारत का नेतृत्व हमारा इतिहास नायक राजा दाहिर सेन कर रहा था। उसने अपने प्राणों की मौन आहुति से भारत की आने वाली पीढ़ियों को यह संकेत और संदेश दिया कि वैश्विक आतंकवाद के सामने डटकर खड़े रहना है और अपने अस्तित्व के लिए अंतिम क्षणों तक संघर्ष करते रहना है।

बलिवेदी पर मौन आहुति
निज प्राणों की जो नर देता।
देश ऋणी उसका रहता
श्रद्धा से नाम सदा लेता।।

उसने भारत की आने वाली पीढ़ियों को यह भी बताया कि प्रत्येक प्रकार के उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और विस्तारवाद का सामना प्राणों की बाजी लगाकर करना है। यह हमला इतना प्रबल है कि इसमें विश्व के अनेकों देश समाप्त हो जाएंगे। यदि भारत को बचाए रखना है तो अपना प्रत्येक क्षण और प्रत्येक पल वैश्विक आतंकवाद की इस भयंकर आंधी का सामना करना ही होगा। हमें प्रसन्नता है कि राजा दाहिर सेन की इस मौन अपील को हमारे अनेकों क्रांतिकारी देशभक्तों ने पूरी निष्ठा के साथ सुना और निभाया।
इस प्रकार राजा दाहिर सेन भारत की आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उदाहरण बना।

वेद धर्म की मर्यादा

राजा दाहिर सेन को भारतीय स्वाधीनता संग्राम और इतिहास का एक महानायक इसलिए भी माना जा सकता है कि उनके विशाल व्यक्तित्व से उस समय और आगे आने वाले समय के लाखों युवाओं ने प्रेरणा ली थी । ऐसा व्यक्ति निश्चय ही राष्ट्र नायक होता है जिसके व्यक्तित्व से लोगों के मन में बसी दुर्बलता दूर होती हो, शिथिलता और कायरता समाप्त होकर उत्साह और तेजस्विता का संचार होता हो, जिसके नाम स्मरण से हृदय से मोह समाप्त होकर प्राणों तक को राष्ट्र पर निछावर करने की भावना बलवती होती हो। जिसके तप से राष्ट्र न केवल उसके अपने काल में समुन्नत हो बल्कि आने वाले समय में भी उसके नाम का जप राष्ट्रोन्नति का माध्यम बन सके।
किसी इतिहास नायक या स्वाधीनता के रक्षक और स्वतंत्रता के सम्बन्ध में यह जानना भी आवश्यक है कि स्वतन्त्रता कर्म करने की अनन्त और असीमित स्वतन्त्रता का नाम नहीं है। मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है, पर फल भोगने में परतन्त्र है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि स्वतन्त्रता का जैसा उपयोग किया जाएगा उसका परिणाम भी वैसा ही होगा। स्वतन्त्रता और मनुष्य जीवन के इस सत्य को समझकर हमारे ऋषियों ने यह विधान किया कि मनुष्य को विचारपूर्वक कर्म करना चाहिए।

विचार पूर्वक कर्म कर यही वेद उपदेश।
‘सार्थक जीवन जियो’ – यही अमर संदेश ।।

विचार मन्त्र को भी कहते हैं। इस प्रकार जब यह कहा जाता है कि मनुष्य को विचार कर काम करना चाहिए तो इसका अर्थ होता है कि वेदों के मंत्रों के भावों के अनुसार मनुष्य को अपना जीवन चलाना चाहिए अर्थात उन्हीं के दिशा निर्देशों के अनुसार कर्म करना चाहिए। यही धर्म की मर्यादा है। वेदों के मन्त्र हमारे लिए विधि हैं। वेद हमारे लिए संविधान है। उसका प्रत्येक मन्त्र संविधान की कोई न कोई धारा है, जो हमारी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक सभी प्रकार की जीवन शैली को नियंत्रित, मर्यादित, संतुलित और सृष्टि के नियमों के अनुकूल बनाती है। जैसे आजकल हम किसी देश के संविधान और देश के विधान मंडलों द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुसार चलकर समाज में शांति व्यवस्था स्थापित करने में सफल होते हैं, वैसे ही सृष्टि नियमों के अनुकूल बने वेद विधान के अनुकूल कर्म करके हम न केवल इस जगत को बल्कि पारलौकिक जगत को भी शांतिपूर्ण बनाने में सफल होते हैं। इसलिए सृष्टि का आदि संविधान वेद कहा गया है।
वेद धर्म की इसी मर्यादा को स्थापित किए रखने के लिए हमारे यहाँ राज्य व्यवस्था खोजी गई। राज्य व्यवस्था हमारे जीवन को सुव्यवस्थित बनाने के लिए अर्थात धर्मानुसार आचरण करने के लिए खोजी गई। जो लोग अन्य लोगों के अधिकारों और जीवन की स्वतंत्रता का हनन करते हैं उन्हें ऐसे कार्यों से रोकना और विधि व्यवस्था में विश्वास रखने वाले लोगों को सहज रूप से जीवन जीने देने की अनुकूल स्थिति बनाना राज्यव्यवस्था का सर्वोत्तम कार्य है। यही स्वतन्त्रता की रक्षा करना है।
इस व्यवस्था के विपरीत स्वतन्त्रता का हनन वह है जिसमें किसी को अपने अनुसार काम करने से रोक दिया जाए और उस पर इस बात का पहरा लगा दिया जाए कि जो मैं कह रहा हूं वैसे करना। जैसे मैं बोलूँ वैसे बोलना, जैसे मैं सोचूँ, वैसे सोचना। भारत में जितने भी विदेशी आक्रमणकारी आए और उनमें से जिस जिस ने भी यहाँ पर अपना राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की, उन सभी ने भारत के लोगों के साथ ऐसा ही आचरण किया। बस, यही भारत की या भारत के लोगों की गुलामी थी, जिसे वह स्वीकार करने को रंच मात्र भी तैयार नहीं थे।
सिंधु नरेश दाहिर सेन के समय जब मोहम्मद बिन कासिम इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर भारत की ओर राक्षस की भांति चढ़ा आ रहा था, तब परम्परा से स्वाधीनता के उपासक रहे भारत के प्रान्त सिंध के लोग और उसका शासक दाहिर सेन ऐसे राक्षस प्रवृत्ति के व्यक्ति का सामना करने के लिए यदि प्रेरित हुए थे तो वह मनुष्य मात्र की मौलिक स्वाधीनता की सुरक्षा के लिए ही प्रेरित हुए थे और क्योंकि ऐसी स्वाधीनता का रक्षक केवल और केवल भारत ही प्राचीन काल से रहा था, इसलिए स्वाभाविक रूप से यह लोग भारत राष्ट्र की रक्षा के लिए भी उस राक्षस से युद्ध के लिए तत्पर हो गए थे।

स्वतंत्रता का वास्तविक रक्षक

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत की राज्य व्यवस्था के अंतर्गत निर्धारित किए गए धर्म के अनुसार राजा लोगों की स्वतंत्रता का रक्षक है। उसका कार्य लोक शान्ति स्थापित किये रखना है । उसका यह भी धर्म है कि जो लोग शान्ति के विरुद्ध कार्य करते हैं या लोक शान्ति को भंग करते हैं या लोगों के जीवन में किसी भी प्रकार का विघ्न डालते हैं, उनका वह समूल विनाश करे। इसके लिए वह अपना शासन प्रशासन रखता है। भारत में मुसलमानों सहित किसी भी विदेशी शासन का विरोध इसलिए किया गया कि उनके शासक इस प्रकार के राष्ट्र धर्म से प्रेरित नहीं थे। वे लोगों का रक्त चूसते थे और लोगों पर अप्रत्याशित अत्याचार करने को अपना धर्म मानते थे।

पाशविकता के पाश में बंधे अधर्मी नीच ।
देश-धर्म को जानकर काटे रण के बीच।।

हमें अपनी स्वाधीनता के रक्षक इतिहास के महानायकों के व्यक्तित्व का निर्धारण या मूल्यांकन करते समय भारत के राजधर्म की इसी विशिष्टता को दृष्टिगत रखना चाहिए। विदेशी इतिहासकारों और लेखकों के दृष्टिकोण से अपने इतिहासनायकों का कभी भी मूल्यांकन करने से हमें बचना चाहिए । यह कभी नहीं हो सकता कि हमारे आदर्श या हमारे लिए सर्वोत्कृष्ट बलिदान देने वाले बलिदानी या इतिहास नायकों का विदेशी शत्रु शासक या उनके चाटुकार दरबारी लेखक उनका उचित मूल्यांकन कर पाएं होंगे।
इसलिए अपने इतिहास नायक राजा दहिर सेन को भारतीय स्वाधीनता संग्राम का महान रक्षक या महान सेनानी स्वीकार करके ही हमें आगे बढ़ना चाहिए।
हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि हमारे देश की स्वाधीनता की लड़ाई की नींव में जिन लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी है वही वास्तविक ‘राष्ट्रपिता’ हैं। क्योंकि उन्होंने कभी भी ‘राष्ट्रपिता’ के सर्वोच्च सम्मान की अभिलाषा नहीं की।

‘बुर्जी’ की नहीं ‘नींव’ की ईटों को पूजो

बुर्जी की ईंट कभी भी नींव की ईंट की बराबरी नहीं कर सकती। इसलिए बुर्जी की ईंट को ‘राष्ट्रपिता’ कहने का भ्रम हमें नहीं पालना चाहिए। जिन लोगों ने बुर्जी की ईंटों को ‘राष्ट्रपिता’ कहकर सम्मानित किया है, उन्होंने बहुत सरलता से देश की रगों में विकृति का खून चढ़ा दिया है। विकृति के इस खून से ही हमारे भीतर पागलपन की वह स्थिति पैदा हुई है जिसके चलते हम स्वाधीनता संग्राम को किसी ‘बुर्जी की ईंट’ के मस्तिष्क की उपज तक मानने लगे हैं। ऐसा मानने लगे हैं कि जैसे स्वाधीनता संग्राम का इतिहास तो 50 या 60 वर्ष का है। उससे पहले तो यह देश गुलामी को सहज रूप में स्वीकार कर बैठने का अभ्यासी बन चुका था। जब हम ‘बुर्जी की ईंटों’ को पूजने की बजाए ‘नींव की ईंटों’ को पूजने की ओर चलेंगे तो पता चलेगा कि यह संघर्ष तो उसी दिन आरम्भ हो गया था, जब हमारे प्यारे भारतवर्ष की स्वाधीनता के हन्ता के रूप में विदेशी गिद्ध झपट्टा मारने लगे थे। जब ऐसी सोच हमारी बनेगी तो भारत की स्वाधीनता के पहले रक्षक के रूप में जो नाम उभर कर आएगा – वह निश्चय ही राजा दाहिर सेन का नाम होगा।

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य

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