किसान आयोग की संस्तुति लागू हो

agricultureडा. राधेश्याम द्विवेदी
खेती और किसानी पर जितनी बातें हमारे देश में होतीं हैं, अगर उनका कुछ अंश भी साकार हो तो हमारे यहां खेती को वाकई पुनर्जीवन मिल जाएगा। जो खेती इस समय मजबूरी का कार्य बन चुकी है, जिसे करने वाले अन्य पेशों से अपने को हीनतर मानने की स्वाभाविक मानसिकता में जीते हैं, और अन्य पेशों के लोग भी किसानी को हेय दृष्टि से देखते हैं वह स्थिति आसानी से बदली जा सकती है। उसे प्राथमिकता में लेकर कुछ समय तक राष्ट्रीय अभियान की तरह खेती को सर्वोपरि बनाने संबंधी सरकारी भूमिका और उसके अनुरूप कुछ कदमों की जरूरत है ।1956 में संसद में एक अधिनियम पास करके खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की स्थापना की गयी थी। चीनी उद्योग में तकनिकी कुशलता के सुधार हेतु इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ शुगर टेक्नोलॉजी की स्थापना कानपुर में की गयी है । चीन के बाद भारत विश्व में प्राकृतिक रेशम का दूसरा बड़ा उत्पादक राष्ट्र है ।भारत में प्रथम रेशम उत्पादक राज्य कर्नाटक है। हीरापुर में पीग आयरन का उत्पादन होता है ,जिसे स्टील के उत्पादन हेतु कुल्टी भेजा जाता है । भारत में किसान क्रेडिट कार्ड योजना का प्रारंभ 1998 -1999 में किया गया था। राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन 2004 में एम.एस .स्वामीनाथन की अध्यक्षता में किया गया था । इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थापित किया गया है।
कृषक परिसंघ का भी गठन हो:- राष्ट्रीय कृषि लागत मूल्य निर्धारण आयोग है, जो कि किसानों की पैदावार का मूल्य तय करता है। खेती को राज्यों का विषय बना दिए जाने के कारण वैसे भी ज्यादा जिम्मेवारी राज्यों की आ जाती है। वास्तव में खेती और किसानों की समस्याओं और आवश्यकताओं पर समग्रता में विचार करने के लिए किसी ढांचागत संस्था के न होने से बड़ी शोचनीय स्थिति पैदा हुई है। किसान आयोग उसमें उम्मीद की किरण बनकर आ सकता है। खेती का योगदान हमारी समूची अर्थव्यवस्था में भले चौदह-पंद्रह प्रतिशत रह गया हो, लेकिन आज भी हमारी आबादी के साठ प्रतिशत से ज्यादा लोगों का जीवन उसी पर निर्भर हो। चाहे वे सीधे खेती करते हों या खेती से जुड़ी अन्य गतिविधियों में लगे हों। भारतीय अर्थव्यवस्था को इसीलिए तो असंतुलित अर्थव्यवस्था कहते हैं जिसमें उद्योग तथा सेवा क्षेत्र का योगदान पचासी प्रतिशत के आसपास है लेकिन इस पर निर्भर रहने वालों की संख्या चालीस प्रतिशत से कम होगी। उसमें भी सेवा क्षेत्र में ऐसे अनेक कार्य हैं जिनका जुड़ाव आपको खेती या उससे संबंधित गतिविधियों से मिल जाएगा। सेवा के अनेक क्षेत्र दोनों से भी जुड़े हैं। अगर भारत की अर्थव्यवस्था को संतुलित करना है तो फिर खेती को प्राथमिकता में लाना होगा और जो काम पहले न हो सका या आरंभ करके फिर रोक दिया गया उन सबको वर्तमान परिप्रेक्ष्य में करने या फिर से आरंभ करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय किसान आयोग उनमें सर्वप्रमुख माना जा सकता है। आरंभ में किसान संगठनों ने जो प्रस्ताव देश के सामने रखा था उसमें कहा गया था कि खेती-बाड़ी को फायदेमंद बनाने तथा युवाओं को इस क्षेत्र में आकर्षित करने के लिए राष्ट्रीय किसान विकास आयोग बनाया जाना चाहिए। आयोग अकेली संस्था हो जिसमें सारी अन्य संबंधित संस्थाओं को समाहित कर दिया जाए। मसलन, कृषि लागत और मूल्य आयोग तथा लघु कृषक कृषि व्यापार संघ का इसमें या तो विलय कर दिया जाए या फिर उनके मातहत बना दिया जाए। कारण, ये दोनों संस्थाएं किसानों की पैदावार के लागत मूल्य के मूल्यांकन तथा उचित मूल्य दिलवाने में सफल नहीं रही हैं। यह भी कहना उचित होगा कि देश के सभी किसान संगठनों को मिलाकर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में ‘भारतीय कृषक परिसंघ’ का भी गठन किया जाए जिसमें सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और कृषिमंत्री रहें। कोई भी स्वीकार करेगा कि इससे कृषि क्षेत्र के समन्वित विकास को गति मिल सकेगी। ध्यान रखिए, भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वायदा किया हुआ है कि वह एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप किसान को कृषि उपज की लागत पर पचास प्रतिशत लाभ दिलाना सुनिश्चित करेगी।
हम जानते हैं कि अभी तक किसानों को उनकी उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य ही मिलता है। लाभ या मुनाफा शब्द का कहीं प्रयोग नहीं है। लेकिन यह कैसे होगा? यहीं किसान आयोग की भूमिका शुरू होती है। वह अपने अनुसार पैदावार की लागत तय करेगा फिर उसके आधार पर मुनाफा का निर्धारण हो सकेगा। इस समय किसानों की लागत आंकने के जो तरीके हैं उनमें जमीन का किराया, बीज से लेकर उपज तक के खर्च तथा परिवार के श्रम का भी एक मोटामोटी आकलन किया जाता है, जिसमें मुनाफा होता ही नहीं।
हालांकि किसानों की पैदावार के मूल्य जितने बढ़ते हैं, खाद्यान्न महंगाई भी उसी तुलना में बढ़ती है जो कि सरकारों के लिए सिरदर्द भी साबित होती है। मगर इस महंगाई की कीमत किसानों की जेब में नहीं जाती, यह भी सच है। कम से कम आयोग इस बात का तो खयाल रखेगा कि जो मूल्य बाजार में हैं उनका उचित आनुपातिक हिस्सा किसानों को मिले। लेकिन जैसा कि ऊपर कहा गया है, किसान आयोग का कार्य केवल मूल्य तय करना नहीं होगा। यह उसके कार्य का एक प्रमुख हिस्सा अवश्य होगा। आखिर कृषि उत्पादनों के बाजार का नियमन राज्य सरकारों के पास है और इसके लिए हर राज्य का एक कृषि उत्पाद विपणन समिति कानून (एपीएमसी एक्ट) है। कोई भी राज्य सरकार इसमें बदलाव लाकर संगठित व्यापारियों की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहती। कम से कम आयोग तो ऐसे दबावों से मुक्त होकर काम कर सकेगा। भारतीय खेती इस समय एक साथ कई संकटों और चुनौतियों का सामना कर रही है। परंपरागत खेती के तरीके ध्वस्त कर दिए जाने से जो कृषि अपने-आप में स्वावलंबी थी वह आज पूरी तरह परावलंबी हो गई है। बीज तक के लिए किसान बड़ी कंपनियों पर निर्भर हैं। उर्वरक तो खैर उनके हाथ में था ही नहीं। इनके मूल्य कंपनियां तय करती हैं। अगर किसान आयोग होगा तो इस पर अध्ययन करके उसके अनुसार जो कदम उसके दायरे में होगा वह उठाएगा और जो केंद्र और राज्य सरकारों के बस में होगा उसके लिए सिफारिशें करेगा। यहां पूर्व में किसान आयोगों के अनुभवों का भी ध्यान रखना होगा। कई राज्यों में पहले किसान आयोग बने, पर वे बंद कर दिए गए। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश को लीजिए। 19 सितंबर 2006 को आयोग का गठन किया गया था, लेकिन 31 दिसंबर 2010 को ही बंद कर दिया गया। क्यों? क्योंकि यह केवल सिफारिशी संस्था बन कर रह गई थी। भारतीय किसान संघ ने मांग की कि इसे संवैधानिक दर्जा दिया जाए या इसे बंद कर दिया जाए। सरकार ने संवैधानिक दर्जा देने यानी अधिकार संपन्न बनाने की जगह इसे बंद कर दिया। प्रदेश में आयोग ने अपने चार वर्ष तीन माह के कार्यकाल में सात प्रतिवेदन राज्य सरकार को सौंपे। इनमें 811 अनुशंसाएं की गर्इं, जिनमें कुछ पर ही काम हुए। वस्तुत: किसान आयोग केवल सिफारिशी संस्था होगा तो उससे ज्यादा-कुछ हासिल नहीं हो सकता। उसे शक्तियां भी देनी होंगी, अन्यथा इसकी भूमिका कार्यशाला आयोजित करने, भाषण करने-करवाने, किसानों से संवाद करने तथा सुझाव देने तक सीमित रह जाएगी। राष्ट्रीय किसान आयोग के लक्ष्य बिल्कुल साफ होने चाहिए। सबसे पहले खेती को कैसे लाभ का पेशा बनाया जाए तथा पढ़े-लिखे लोग भी इसमें आएं इस पर उसे ध्यान केंद्रित करना होगा। दूसरे, किसानों का जीवन-स्तर ऊंचा उठे, उनके परिवार को खेती से कैसे व्यवस्थित जीवन जीने का आधार मिले इस पर काम होगा। कुल मिलाकर खेती को विकसित करने की नीतियों, कार्यक्रमों, उपायों की दिशा में वह किसानों के साथ मिलकर और सरकारों के साथ सामंजस्य स्थापित करके काम करे। ऐसा होता है तो निश्चय मानिए राष्ट्रीय किसान आयोग कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन का वाहक बन जाएगा।
समर्थन मूल्य लागत से कम:- राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट है कि समर्थन मूल्य खेती की लागत से कम होता है, इस कारण खेती घाटे का सौदा बन गई है और देश के 40 प्रतिशत किसान अब खेती छोड़ने को बाध्य हो रहे हैं। गौरतलब है कि 1925 में 10 ग्राम सोने का मूल्य 18 रुपए और एक क्विंटल गेहूं 16 रुपए का होता था। 1960 में 10 ग्राम सोना 111 रुपए और एक क्विंटल गेहूं 41 रुपए का था। वर्तमान में 10 ग्राम सोने 32000 रुपए का और एक क्विंटल गेहूं 1285 का है। 1965 में केंद्र सरकार के प्रथम श्रेणी अधिकारी के एक माह के वेतन मंश छह क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता था, आज उसके एक माह के वेतन में 30 क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता है। यह आंकड़े प्रमाणित करते हैं कि सरकार किसान के श्रम-मूल्य की गणना अन्यायपूर्ण तरीके से करके समर्थन मूल्य घोषित करती है, जो देश की लगभग 60 फीसदी आबादी के सम्मान से जीने के और समानता के मौलिक अधिकारों का हनन है।
किसान आयोग के संस्तुति लागू हो:-
भारतीय किसान यूनियन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दीवान चन्द चौधरी का कहना है कि वेतन आयोग की संस्तृतियों की तरह केन्द्र सरकार को किसान आयोग के संस्तुतियों को लागू करना चाहिये। । यदि केन्द्र और राज्य सरकारों ने किसान समस्याओं का समाधान न किया तो सितम्बर माह में राष्ट्र व्यापी आन्दोलन छेड़ा जायेगा जिसकी शुरूआत उत्तर प्रदेश से होगी। केन्द्र की मोदी सरकार भी अन्य सरकारों की तरह किसान हितों के साथ धोखा कर रही है। प्रधानमंत्री किसानों की आमदनी दो गुना करने का स्वप्न दिखाते हैं किन्तु जब नीतियों के स्तर पर निर्णय लेने की बात आती है तो किसान के साथ छल होता है। जब तक किसानों को उत्पादन लागत से अधिक मूल्य नहीं मिलेगा उसका संकट बना रहेगा। केन्द्र सरकार ने धान और गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य में मात्र साढे तीन प्रतिशत बढोत्तरी किया है जबकि मंहगाई और लागत मूल्य लगातार बढ रहा है। भाजपा के घोषणा पत्र में कहा गया था कि किसानों को फसलों के उत्पादन लागत मूल्य में 50 प्रतिशत लाभ जोड़कर दिया जायेगा किन्तु सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। किसानों को प्याज निःशुल्क दे देना पड़ा और सरकार तमाशबीन बनी रही। राज्य सरकारों से बोनस देने का अधिकार छीनकर केन्द्र सरकार ने किसान विरोधी निर्णय लिया है। उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार शत प्रतिशत गन्ना मूल्य भुगतान का दावा कर रही है यह बड़ा झूठ है। प्रदेश में चीनी मिलों पर दो हजार करोड़ से अधिक का गन्ना मूल्य भुगतान शेष है और किसान परेशान है। गन्ना मूल्य न बढाये जाने के कारण किसानों का मोह भंग हो रहा है। सरकार ने चीनी मिल मालिकान को 18 हजार करोड़ रूपया राहत के नाम पर दे दिया किन्तु गन्ने का मूल्य पिछले तीन साल से एक पैसा भी नहीं बढाया गया। ऐसी स्थिति में किसानों की हालत सुधर नहीं सकता है।

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