मालवा की पट्टी से शुरु हुआ किसान आंदोलन मध्यप्रदेश सरकार को साफ कठघरे में खड़ा कर रहा है? अगर वाकई किसानों के हालात जमीन पर इतने खराब हैं तो पांचवी बार कृषि कर्मण अवार्ड का लगातार जीतना क्या सिर्फ एक मजाक है? और अगर यह आंदोलन की शक्ल में एक षड्यंत्र है तो सरकार को अपने गुप्तचर महकमे के अधिकारियों के चौड़े में कान उमेठने चाहिए? और फिर वह इसे अगर षड्यंत्र मानकर चल रही है तो सड़कों पर गुंडागर्दी करने वालों को, उपद्रवियों को एक-एक करोड़ मरने के बाद देकर सरकार क्या संदेश दे रही है? और अंत में क्या आंदोलन की आड़ में कहीं पार्टी के ही असंतुष्ट पर अपनी राजनीतिक रोटी तो नहीं सेंक रहे? ये सारे प्रश्न मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को एक संवेदनशील किन्तु परिपक्व एवं सख्त प्रशासक के नाते तत्काल सुलझाकर समाधान के साथ प्रदेश की जनता से मुखातिब होना चाहिए अन्यथा यह आग की लपटें और इनसे निकल रहा धुआं प्रदेश सरकार के साथ-साथ उनके चेहरे पर भी कालिख पोत रहा है।
मध्यप्रदेश ही नहीं देश में किसानों की हालत भयावह है, यह एक कठोर सच है। मंच पर, संसद में देश के राजनेता चाहे जो कहें पर आजाद भारत में देश के किसानों की दुर्दशा हर सरकार ने की। यही कारण है कि किसान खुदकुशी को मजबूर हैं। पर यह भी एक सच है तथ्य है कि शिवराज सरकार ने किसानों की बेहतरी के लिए जमीनी प्रयास किए। कांग्रेस शासन में किसानों को कर्जे पर 18 फीसदी ब्याज लिया जाता था, तो आज यह शून्य फीसदी है। दिग्विजय शासन में गांवों से बिजली गायब थी तो आज यह 15-16 घंटें तो है ही। फसल खरीदी पर 150 फीसदी बोनस है जो पहले था ही नहीं। यही कारण है कि कृषि विकास दर 4 से 7 प्रतिशत से बढ़कर 23 प्रतिशत हुई। निश्चित रूप से शिवराज सरकार इसके लिए बधाई की पात्र है। यही कारण है कि प्रदेश ने लगातार कृषि कर्मण अवार्ड प्राप्त कर अपनी श्रेष्ठता साबित की है। पर किसानों की फसल का विपणन, भंडारण को लेकर आज भी कई समस्याएं हैं, यह एक वास्तविकता है।
सरकार के दावे एवं जमीनी हकीकत में चौड़े इन्ही फांसलों के चलते राजधानी भोपाल को भी एक बार किसान लगभग बंधक बना चुके थे। यह सवाल तब भी गहराया था और यह फिर विकराल रूप में सामने आया। अत: सरकार जो आज अपने प्रभारी मंत्रियों से कह रही है कि अपने -अपने प्रभार वाले जिलों में जाओ पहले क्यों नहीं कहा? कहा था तो वे गए क्या? गए तो क्या देख कर आए? अधिकारियों का वल्लभ भवन से निकलकर गांव में रात्रि विश्राम का सरकार ने क्या इनपुट लिया या उनका रात्रि विश्राम एक फैमिली पिकनिक था? ये ऐसे प्रश्न है जो दर्शाते हैं कि वल्लभ भवन से लेकर पटवारी के बस्ते तक भर्राशाही का आलम है। अधिकारी मदमस्त है और सरकार पूरी तरह से चंद नौकरशाहों से घिरी है, जिनकी क्षमता निष्ठा एवं कार्य प्रणाली लगातार कठघरे में है। आखिर यह प्रश्न गंभीर ही है कि जब सोशल मीडिया पर यह बात चर्चाओं में आ चुकी थी कि आंदोलन की आड़ में उत्पात की पूरी तैयारी है तब पुलिस महकमे के आला अफसर क्या अफीम खाकर सोए हुए थे? यह समय है कि शिवराज सिंह तत्काल नाकारा एवं संदिग्ध प्रमाणित हो चुके नौकरशाहों की तत्काल शल्य चिकित्सा करें। फिर वह कौन सलाहकार है जो सरकार को यह सलाह दे रहा है कि मृत हो चुकी कांग्रेस का नाम लेकर इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को एक सियासी मोड़ दें। कांग्रेस तो कब की प्रदेश में मर चुकी है। आज वह मंदसौर के गोली कांड की चर्चा करती तो जनता 12 जनवरी 1998 का मुलताई कांड याद दिला देगी जब उसके शासन में 24 किसान मरे थे। पर यह काम अभी जनता को करने दें, वह करेगी। फिर कांग्रेस ऐसा क्यों नहीं करेगी? राजनीति आज जिस विकृत स्वरूप में है उसमें लाशों पर राजनीति करना दुर्भाग्य से एक आवश्यक संस्कार है। भाजपा को कांग्रेस से रहम की अपेक्षा करनी भी नहीं चाहिए। प्रश्न यहां एक और है कि अगर वह यह मान रही है कि आंदोलन की आड़ में उपद्रवी उत्पात मचा रहे थे तो रातों रात मुआवजा राशि एक करोड़ किस घबराहट में घोषित की गई? क्यों नौकरी का आश्वासन दिया गया? पीड़ित परिवार से भरपूर सहानुभूति के बावजूद यह भी एक तथ्य है कि वे वाकई उत्पाती ही थे, ऐसा दिखाई दे रहा है। ऐसे में क्या यह एक गलत परंपरा तो नहीं होगी। पुलिस बल पर इसका क्या प्रभाव होगा। क्या यह निर्णय सरकार की घबराहट प्रदर्शित नहीं करता?
इतना ही नहीं आंदोलन की गंभीरता को लेकर ऐसा लगता है कि सरकार पूरी तरह बेखबर भी रही और इसे बेहद सतही तरीके से संभालने की कोशिश हुई। भारतीय किसान संघ से अगर समझौता नीतिगत मुद्दों को लेकर हो भी गया था तो यह बात पहले संघ की तरफ से आने थी। यही नहीं इसी बीच मुख्यमंत्री के अभिनंदन की घोषणा का भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का बयान क्या ऐसे नाजुक प्रसंग पर स्थिति को और बिगाड़ने वाला साबित नहीं हुआ इस पर विचार करना चाहिए।
अत: अब आवश्यकता इस बात की है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को चाहिए कि वे अपने आत्मबल को जगाएं। आत्मबल क्यों कमजोर होता है, यह स्मरण कराने का अभी समय नहीं है। पर वे चाहेंगे तो जगेगा भी यह भी तय है और उस आत्मबल के प्रकाश में वे प्रदेश को देखेंगे तो उन्हें जमीनी हकीकत का पता लगेगा तब वे देख पाएंगे कि जमीनी हालात क्या है, कहां सुधार की गुंजाइश हैं कौन-कौन दोषी हैं। आखिर क्यों पार्टी का जमीनी कार्यकर्ता सरकार से संवाद स्थापित नहीं कर पा रहा?… यह संवाद स्थापित होगा तो यह भी ध्यान में आएगा कि दिल्ली के जंतर-मंतर में गजेन्द्र की खुदकुशी हो या तमिलनाडु के किसानों का दिल्ली में नग्न प्रदर्शन या फिर महाराष्ट्र या मंदसौर में हुआ प्रदर्शन किसानों की आड़ में यह एक राष्ट्रीय षड्यंत्र का भी हिस्सा है।…
…पर ये षड्यंत्र होंगे और वीभत्स रूप में होंगे, सवाल यही है कि हमारी अपनी तैयारी क्या है?
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