किशन गंगा परियोजना विवाद पर जीता भारत — डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

kishan gangaभारत का विभाजन अप्राकृतिक था , इसे ब्रिटिश सरकार भी मानती थी । लेकिन उसने अपने उस समय के राजनैतिक और कूटनीतिज्ञ हितों की पूर्ति के लिये इसे निष्पादित किया । परन्तु पश्चिमी पंजाब समेत आधे से भी ज़्यादा पाकिस्तान की सभी प्रकार की जल आपूर्ति उन्हीं नदियों से होती थी , जिनका उद्गम स्थान तिब्बत या हिमालय की उपत्यकाएं हैं । १९४७-४८ में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर अपनी शत्रुता व भावी सोच व नीयत का प्रमाण दे दिया था और यह भी संकेत देने शुरु कर दिये थे कि पाकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ अमेरिकी -ब्रिटिश धुरी का मोहरा बनेगा । इसके बावजूद भारत सरकार ने पाकिस्तान के लोगों के प्रति सद्भावना दिखाते हुये १९६० में सिन्धु जल संधि निष्पादित की । इस संधि के अनुसार तीन नदियों सिन्धु , जेहलम और चिनाब के पानी का प्रयोग मोटे तौर पर पाकिस्तान करेगा और सतलुज, व्यास और रावी के पानी का प्रयोग मोटे तौर पर भारत करेगा । यह शुद्ध रुप से पाकिस्तान के लोगों के प्रति भारत की सदाशयता ही थी , क्योंकि भारत मानता है कि पाकिस्तान के लोग भी विरासत की दृष्टि से एक ही मूल के हैं ।

लेकिन दुर्भाग्य से पाकिस्तान सरकार ने इसके बाबजूद भारत के प्रति शत्रुता भाव ही रखा । इतना ही नहीं जब भी भारत ने सिन्धु जल संधि के अन्तर्गत ही इन नदियों के पानी का जल विद्युत परियोजनाओं के लिये प्रयोग करने के प्रकल्प प्रारम्भ किये तो पाकिस्तान ने “विरोध की ख़ातिर विरोध” की तर्ज़ पर ही इनकी मुख़ालफ़त की । 1999 में जब भारत ने जम्मू कंश्मीर के डोडा ज़िला में चिनाब नदी पर बगलीहार बाँध बनाना शुरु किया था ( जो अब बन गया है) तब भी पाकिस्तान ने इसे सिन्धु जल संधि का उल्लंघन बताया था और इस के निर्माण पर आपत्ति की थी । पाकिस्तान की आपत्ति पर विश्व बैंक ने स्विट्ज़रलैंड के विख्यात जल विशेषज्ञ प्रो रेमंड लैफीटी को नियुक्त किया था , जिसने पाकिस्तान की सभी आपत्तियाँ को ख़ारिज करते हुये , भारत के पक्ष में निर्णय दिया था ।

इसी प्रकार पाकिस्तान भारत द्वारा लद्दाख में बनायी जा रही दो जल विद्युत परियोजनाओं पर भी बिना बजह आपत्ति करता रहा है । लद्दाख में लेह से ७० किलोमीटर दूर ऐलची नामक गाँव में सिन्धु नदी पर निमो बाजगो जल विद्युत परियोजना पर कार्य हो रहा है । इसी प्रकार कारगिल में सिन्धु की सहायक नदी सुरु पर चुतक जल विद्युत परियोजना पर कार्य चल रहा है । पाकिस्तान ने दोनों पर एतराज़ दर्ज करवाये । यह अलग बात है कि वह इन विवादों को विश्व अभिकरण के पास ले जाने का साहस नहीं कर पाया । दरअसल जम्मू कश्मीर में इन नदियों के पानी से जल विद्युत उत्पादन की अपार संभावनाएँ हैं जिसके सही निष्पादन से पूरे उत्तरी भारत की विद्युत की कमी दूर हो सकती है । इसी कारण पाकिस्तान इन परियोजनाओं में अडंगे लगाता रहता है ।

भारत द्वारा जम्मू कश्मीर में बांडीपुर ज़िला में जेहलम की सहायक नदी किशनगंगा पर ३३० मैगावाट की किशनगंगा जल विद्युत परियोजना का कार्य २००७ में शुरु किया गया था । किशन गंगा को ही नीलम नदी भी कहा जाता है । पाकिस्तान सरकार अवैध रुप से जम्मू कश्मीर रियासत के बलपूर्वक हथियाए गये हिस्से में इसी किशन गंगा नदी पर नीलम- जेहलम जल विद्युत परियोजना निष्पादित कर रही है । इस लिये जब भारत ने किशन गंगा पर जलविद्युत परियोजना निष्पादित करनी प्रारम्भ की तो पाकिस्तान ने एतराज़ उठाना शुरु कर दिया । एक बात ध्यान में रखनी चाहिये कि किशन गंगा परियोजना पानी के प्रवाह को रोकने की नहीं बल्कि प्रवाहमान पानी से ही बिजली पैदा करने की परियोजना है । इससे नदी में जल प्रवाह की मात्रा प्रभावित नहीं होती । किशन गंगा नदी के पानी को जेहलम नदी की ही एक अन्य सहायक जलधारा बानर मधुमति नाले में ले जाया जायेगा ।एक सुरंग के माध्यम से यह पानी पावर स्टेशन तक जायेगा और वहाँ विद्युत उत्पादन होगा लेकिन नदी का पानी फिर अपने स्वभाविक प्रवाह से वुलरझील से होता हुआ जेहलम में चला जायेगा । मोटे तौर पर इससे पाकिस्तान के नीलम जेहलम परियोजना को भी नुक़सान नहीं होगा और न ही जेहलम नदी के पाकिस्तान में जाने वाले पानी की मात्रा प्रभावित होगी ।

लेकिन पाकिस्तान ने इस मसले को सिन्धु जल आयोग में सुलझाने की बजाय इसे हेग स्थित अन्तर्राष्ट्रीय मध्यस्थता आयोग में ले जाना बेहतर समझा । प्रथम दृष्ट्या तो पाकिस्तान का यह आरोप था कि सिन्धु जल संधि के अन्तर्गत भारत को यह परियोजना बनाने का अधिकार ही नहीं है । दूसरे उसका यह कहना था कि भारत इस परियोजना से बनने वाले जलाशय में जल स्तर को डैड स्टोरेज के स्तर से नीचे लाये । मध्यस्थता आयोग ने जून २०११ में विशेषज्ञों को मौक़े का मुआयना करने के लिये भेजा और अक्तूबर २०११ को परियोजना निर्माण का मुख्य काम रुकवा दिया । अब फ़रवरी में आयोग ने इस विवाद पर अपना निर्णय देकर पाकिस्तान के आरोपों को ख़ारिज कर दिया है । कुछ मामूली फेरबदल के साथ भारत इस परियोजना को पूरा कर सकता है । बसी बड़ी बात यह कि आयोग ने परियोजना निष्पादित करने के भारत के अधिकार को स्वीकार कर लिया है ।

लेकिन एक बड़ा प्रश्न जो इस सारे विवाद से उत्पन्न होता है , वह और है । पाकिस्तान जिस क्षेत्र में नीलम जेहलम बाँध बना रहा है , वह बलपूर्वक क़ब्ज़ाये गये भारतीय हिस्से में ही है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को कभी अस्वीकार नहीं किया । भारतीय संसद ने भी १९९४ में इस हिस्से को पाकिस्तान के क़ब्ज़े से मुक्त करवाने का संकल्प पारित किया है । उस क्षेत्र में पाकिस्तान द्वारा किये जाने वाले इस प्रकार के अवैध निर्माणों को भारत द्वारा चुनौती दी जानी चाहिये । दुर्भाग्य से भारत को पाकिस्तान उसके अपने ही क्षेत्र में परियोजना निष्पादित करने को चुनौती दे रहा है और वह भी बिना किसी तकनीकी व वैधानिक आधार के । भारत सरकार को इस पूरे विषय पर इसी परिप्रेक्ष्य में विचार करना चाहिये ।

 

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