हिंदी के कोहिनूर- बाबा कामिल बुल्के

    

  • श्याम सुंदर भाटिया

बेल्जियम में जन्मे फादर कामिल बुल्के की जीवनभर कर्मभूमि हिंदुस्तान की माटी रही। हिंदी के पुजारी बुल्के मृत्युपर्यंत हिंदी, तुलसीदास और वाल्मीकि के अनन्य भक्त रहे। ‘कामिल’ शब्द के दो अर्थ हैं। एक- वेदी-सेवक जबकि दूसरा अर्थ है- एक पुष्प का नाम। फ़ादर कामिल बुल्के ने दोनों ही अर्थों को जीवन में चरितार्थ किया। वह जेसुइट संघ में दीक्षित संन्यासी के रूप में ‘वेदी-संन्यासी’ थे और एक व्यक्ति के रुप में महकते हुए पुष्प। फादर बुल्के का हिंदी प्रेम जगजाहिर रहा। वह गर्व से कहते थे, संस्कृत राजमाता है, हिंदी बहु रानी है और अंग्रेजी नौकरानी है, लेकिन नौकरानी के बिना भी काम नहीं चलता है। वह बहुभाषा विद थे। बाबा बुल्के अपनी मातृभाषा ‘फ्लेमिश’ के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिंदी पर भी संपूर्ण अधिकार रखते थे। हिंदुस्तान की माटी विशेषकर रांची उनके रोम-रोम में बसा था।1951 में भारत सरकार ने फ़ादर बुल्के को बड़े ही आदर के साथ भारत की नागरिकता प्रदान की। बाबा बुल्के भारत के नागरिक बनने के बाद स्वयं को ‘बिहारी’ कहलवाना पसंद करते। कामिल बुल्के की हिंदी सेवाओं के लिए 1974 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से नवाजा।

फ़ादर हिंदी के इतने सबल पक्षधर थे कि सामान्य बातचीत में भी अँग्रेज़ी शब्द का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं था। उन्हें इस बात का दु:ख था कि हिंदी  वाले अपनी हिंदी  का सम्मान नहीं करते हैं। बाबा का विचार था- दुनिया भर में शायद ही कोई ऐसी विकसित साहित्य भाषा हो जो हिंदी की सरलता की बराबरी कर सके। उन्हें इस बात का दर्द था कि हिंदी भाषी और हिंदी संस्थाएं हिंदी को खा गए। जब भी कोई उनसे अंग्रेज़ी में बोलता था, वे पूछ लेते थे- क्या तुम हिंदी नहीं जानते? फ़ादर कामिल बुल्के के छात्र रहे श्री गजेंद्र नारायण सिंह बताते हैं, मैं संत जेवियर्स कॉलेज में दाखिल हुआ तो एक दिन समय निकालकर फ़ादर बुल्के से मिलने गया। उनके कमरे के बंद दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए मैंने कहा- ‘मे आई कम इन फ़ादर।’ मेरे इतना कहते ही दरवाज़ा खुला और एक अत्यंत ही शांत, सौम्य, साधु पुरुष गर्दन पर भागलपुरी सिल्क की चादर लपेटे हुए खड़ा था। उन्होंने धीरे से गम्भीर स्वर में कहा- अभी दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए आपने किसी भाषा का व्यवहार किया? क्या आपकी अपनी कोई बोली या भाषा नहीं है? आप स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक हैं, फिर भी विदेशी आंग्ल भाषा का व्यवहार हिंदी  के एक प्राध्यापक के पास क्यों कर रहे हैं? आपकी मातृभाषा क्या है? प्रश्नों की झड़ी लगा दी उन्होंने। मैं अवाक खड़ा रहा। उन्होंने मुझसे पूछा कि- “आपकी मातृभाषा क्या है?” मैथली बताए जाने पर तो उन्होंने मुझसे निर्विकार भाव से कहा- “आइंदा जब आप मेरे पास आएं तो मैथली या हिंदी  में ही बात करेंगे, अंग्रेज़ी में कदापि नहीं। बुल्के आजीवन हिंदी की सेवा में लगे रहे। हिंदी-अँग्रेजी शब्दकोष के निर्माण के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे। वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो आज भी सबसे प्रामाणिक शब्दकोष माना जाता है। उन्होंने इसमें 40 हज़ार शब्द जोड़े और इसे आजीवन अद्यतन भी करते रहे। कामिल बुल्के का अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश और बाइबिल का हिंदी अनुवाद ‘नया विधान’, हिंदी के महत्व और उसकी सामर्थ्य को सिद्ध करने के ही उपक्रम हैं। उनके ‘अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश’ ने अंग्रेज़ी के स्थान पर हिंदी के प्रयोग की राह को सुगम बनाया है।बुल्के ने बाइबिल का हिंदी अनुवाद भी किया। मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘द ब्लू बर्ड’ का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया। छोटी-बड़ी कुल मिलाकर उन्होंने क़रीब 29 किताबें लिखीं। हिंदी के इस पंडित का देहावसान गैंग्रीन के कारण 17 अगस्त, 1982 को दिल्ली में हो गया। 

फ़ादर कामिल बुल्के का दूसरा जग-विख्यात पहलू है कि वे हिंदी  के विद्वान, रामकथा के मर्मज्ञ और विदेश में जन्मे भारतीय थे। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ पर 1950 में पी.एच.डी. की। इस शोध में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी , बंगला, तमिल आदि समस्त प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध राम विषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन् तिब्बती, बर्मी, सिंघल, इंडोनेशियाई, मलय, थाई आदि एशियाई भाषाओं के समस्त राम साहित्य की सामग्री का भी अत्यंत वैज्ञानिक रीति से उपयोग हुआ है। तुलसीदास उन्हें उतने ही प्रिय थे, जितने अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के महाकवि गजैले या अंग्रेज़ी के महाकवि शेक्यपियर। वे प्राय: कहा करते थे- “हिंदी में सब कुछ कहा जा सकता है।” इस बात की पुष्टि करने के लिए उन्होंने सबसे पहले दर्शन, धर्मशास्त्र आदि विषयों की परिभाषिक शब्दावली का एक लघुकोश ‘ए टैक्नीकल इंगलिश हिंदी  ग्लौसरी’ के नाम से प्रकाशित किया। इसके बाद ‘अंग्रेज़ी-हिंदी कोश’ 1967 में तैयार किया।

फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर, 1909 को बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले नामक गाँव में हुआ। उनके पास सिविल इंजीनियरिंग में बी.एस.सी डिग्री थी, जो उन्होंने लोवैन विश्वविद्यालय से प्राप्त की। 1934 में उन्होंने भारत का संक्षिप्त दौरा किया और कुछ समय दार्जीलिंग में रुके। उन्होंने गुमला अब झारखंड में पांच वर्षों तक गणित का अध्यापन किया। यहीं पर उनके मन में हिंदी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वह बाद में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने लिखा है- मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दु:खी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अंग्रेज़ी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। उन्होंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करुंगा। अंततः फादर कामिल बुल्के से बाबा कामिल बुल्के कहलाए जाने लगे।

फ़ादर कामिल बुल्के ने पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और 1940 में ‘विशारद’ की परीक्षा ‘हिंदी  साहित्य सम्मेलन’, प्रयाग से उत्तीर्ण की। उन्होंने 1942-1944 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की। कामिल बुल्के ने 1945-1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में शोध किया, उनका शोध विषय था- ‘रामकथा का विकास’। 1949 में ही वह ‘सेंट जेवियर्स कॉलेज’, राँची में हिंदी  और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष नियुक्त किए गए। कामिल बुल्के सन 1950 में ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए। वह सन 1972 से 1977 तक भारत सरकार की ‘केन्द्रीय हिंदी समिति’ के सदस्य रहे। कामिल बुल्के लंबे समय तक रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में संस्कृत तथा हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे, लेकिन बाद में बहरेपन के कारण कॉलेज में पढ़ाने से अधिक उनकी रुचि गहन अध्ययन और स्वाध्याय में होती चली गई। बुल्के का अपने समय के हिंदी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था। डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामस्वरूप, डॉ. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हुए वे अपनी आत्मकथा ‘एक ईसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2’ में लिखते हैं- “1945 में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डॉ. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया। इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे।

बुल्के के प्रस्तुत शोध की विशेषता थी कि यह मूलतः हिंदी में प्रस्तुत पहला शोध प्रबंध है। फ़ादर बुल्के जिस समय इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही प्रस्तुत किए जाते थे। फ़ादर बुल्के ने आग्रह किया कि उन्हें हिंदी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए अंततः शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया। पदमभूषण विजेता एवं मधुशाला के रचियता श्री हरिवंशराय बच्चन बाबा कामिल बुल्के का कितना सम्मान करते थे, उनकी इस कविता से साफ-साफ झकलता है –

 फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

जन्मे और पले योरुप में

पर तुमको प्रिय भारत धाम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

रही मातृभाषा योरुप की

बोली हिंदी  लगी ललाम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

ईसाई संस्कार लिए भी

पूज्य हुए तुमको श्रीराम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

तुलसी होते तुम्हें पगतरी

के हित देते अपना चाम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

सदा सहज श्रद्धा से लेगा

मेरा देश तुम्हारा नाम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

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