श्रीकृष्ण-जन्मभूमि

 

krishna mandirपुण्य नगरी मथुरा में  चार दिवसीय प्रवास के बाद मैं कल ही बनारस लौटा. प्रवास अत्यन्त आनन्दायक था. मेरी प्रबल इच्छा थी कि अपने नवीनतम पौराणिक उपन्यास ‘यशोदानन्दन’ की पाण्डुलिपि श्रीकृष्ण-जन्मभूमि में जाकर उनके श्रीचरणों में अर्पित करने के बाद ही प्रकाशक को भेजूं। मैं अपने अभियान में सफल रहा। मैं वहां अपने परम मित्र प्रो. दुर्ग सिंह चौहान जी, कुलपति जीएलए विश्वविद्यालय, मथुरा का अतिथि था। आदरणीया भाभीजी श्रीमती ज्योत्सना चौहान और अग्रज दुर्ग सिंह जी ने मेरे अभियान को सफल बनाने में अपना अमूल्य योगदान दिया। मैंने जो भी पुण्य अर्जित किया, उसके ५०% के वे स्वाभाविक अधिकारी हैं।

जन्मभूमि और श्रीकृष्ण-राधा के विग्रह के दर्शन से मन आनन्द से ओतप्रोत हो उठा, लेकिन उससे सटे मस्ज़िद को देखकर मन में एक टीस-सी उठी। मस्ज़िद या चर्च के प्रति मेरे मन में कभी भी असम्मान की भावना नहीं रही है, परन्तु श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर निर्मित मस्ज़िद का इतिहास याद कर मन वितृष्णा से अनायास ही भर उठता है। करोड़ों दर्शनार्थी काशी, मथुरा और अयोध्या में अपने आराध्यों के दर्शनार्थ आते हैं और मेरे समान ही अनुभव लेकर वापस जाते हैं तथा अपने मित्रों, करीबियों तथा ग्रामवासियों को अपने हृदय की पीड़ा बताते हैं। निश्चय ही मुसलमानों ने इस देश के एक बड़े भूभाग पर लगभग ६०० वर्षों तक राज किया लेकिन वे हिन्दुओं के हृदय पर एक पल भी राज नहीं कर सके। जबतक काशी और मथुरा के पवित्र मन्दिरों के समीप पुराने मन्दिरों को तोड़कर बनाई गई मस्ज़िदें वे देखते रहेंगे, तबतक हर हिन्दू के हृदय में एक स्वाभाविक टीस बनी ही रहेगी। मुसलमानों को हिन्दुओं की इस भावना को समझना चाहिए और स्वेच्छा से सुधारात्मक प्रयास करना चाहिए। तभी वे हिन्दुओं का विश्वास जीत पायेंगे और देश में नए सिरे से स्थायी सांप्रदायिक सौहार्द्र की स्थापना हो पाएगी।

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