कुमार ना तुम राजनीति के लिए और ना राजनीति तुम्हारे लिए

0
108

मनोज कुमार

दिल्ली की राजनीति में एक किनारे में खड़ा एक शख्स नाराज है. दुखी है. यह शख्स है डॉ. कुमार विश्वास. उसका नाराज होना जायज है तो विषाद में जाना हमारे लिए पीड़ाजनक है. इन सबसे दुख का उपजना अतिरेक नहीं है. देखा जाए तो इस शख्स का नाराज होना तो ठीक है. वह तो राजनीति के लिए बना ही नहीं है. उसकी दुनिया साहित्य के लिए है. वह सरस्वती का सेवक है. इस सेवक का नाम है डॉ. कुमार विश्वास. 2014 के पहले डॉ. कुमार विश्वास को जानने वाले लाखों में थे तो साल 2020 में उनके चाहने वाले मिलयन में हैं. अन्ना हजारे के साथ देश की तस्वीर और तकदीर बदलने के लिए कुमार विश्वास आगे आए थे. उम्मीद और विश्वास से लबरेज लेकिन 2014 के चुनाव गुजरते गुजरते उनकी उम्मीद और विश्वास वैसे ही टूटता चला गया, जैसे नौजवानों का. कुमार को इस बात की पीड़ा हमेशा से रही कि जिस उम्मीद से पूरे देश भर से युवा उमड़ पड़े थे, उन्हें निराश होना पड़ा. जिनके साथ वे बदलाव के लिए चले थे, वही बदलते गए. किरण बेदी ने भाजपा का दामन थाम लिया और दिल्ली राज्य का चुनाव जीतकर केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए. बहुत कुछ तब खराब नहीं हुआ था लेकिन रोज बदलती हवाएं कुमार को आहत करने लगीं. शायद उनकी तल्ख बातें सत्ताधीशों के गले नहीं उतर रही थी. आखिरकार एक दिन कुमार को किनारे लगा दिया गया. ऐसा करते समय वे भूल गए कि कुमार से कह सकते हैं कि हम आपके हैं कौन लेकिन मिलियन श्रोता कहते हैं कुमार हमारे हैं, अपने हंै. इस मोहब्बत से कैसे किनारे करोगे विश्वास को? एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए इस तरह सबकुछ झेल पाना सहज नहीं होता है. कुमार कवि हैं. कवि का मन कोमल होता है. और सच्चा भी. कुमार पूरी शिद्दत और ईमानदारी के साथ सिस्टम से लडऩे के लिए तैयार हैं. तब भी और आज भी. उनके भीतर एक देशभक्त है जो सत्ता को चुनौती देता है लेकिन सेना के साथ उसकी आवाज उसके सच्चे होने का प्रमाण देती है. कुमार को किसी से सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है. लेकिन इस दौर में कागज की कीमत खूब है. इस मामले में जो लोग कुमार की कविता सुनते हैं, उन्हें इस बात का बखूबी अंदाजा है कि वे अपने देश के लिए संकल्पित हैं. यहां आकर वे दलगत राजनीति को भूल जाते हैं. जब कुमार गाते हैं कि गूंगे सिखला रहे हैं कि कितना मुंह खोलो.. तब उनकी पीड़ा सार्वजनिक हो जाती है. इस पीड़ा के साथ जो सत्ता को कसौटी पर कसते हैं तो उसे कुमार का तंज कहा जाता है. भीतर से थोड़े कमजोर राजनेता बौखला जाते हैं. उन पर यह तोहमत आसानी से लगा दिया जाता है कि वे दल बदल लेंगे. वे भाजपा में चले जाएंगे. कोई पांच साल से उनके बारे में यही बात चल रही है. लेकिन वे दिल्ली के जनपथ के कवि के रूप में कायम हैं. उनके अपनों ने भले ही भुला दिया हो लेकिन कुमार अपनों को नहीं भुला पाए हैं. तभी तो हर मंच से कहते हैं कि हमारे वाले तो सुनते ही नहीं हैं..एक दृष्टि सम्पन्न,  शिक्षित और अपने देश के प्रति उदार भाव रखने वाले कवि कुमार के साथ जब ऐसा बर्ताव होता है तो किसी का मन दुखी हो जाना स्वाभाविक है. वे भारत के ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए कवि के साथ मोटीवेशल स्पीकर के तौर पर उपस्थित हैं. उनके अनुगामी युवाओं की फौज है. हिन्दी के बड़े नाम के रूप में आज कुमार की पहचान है. वे मठाधीश भी नहीं हैं और यही कारण है कि वे अपने पीछे युवा कवि और कवियत्री की लम्बी सूची मंच को सौंप दी है. कुमार तुम राजनीति के लिए नहीं बने हो. तुममे वो शातिराना समझ नहीं है. तुम शतरंज की बिसात नहीं पहचानते हो. कवि हो, साहित्य की सेवा करो. मां सरस्वती पुत्र हो, वही तुम्हारी पूंजी है. भगतसिंह ने कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके  की जरूरत होती है. आज बहरों को वह भी सुनाई नहीं देता है. इस बात से बेखबर और बेफ्रिक होकर एक और चार लाईन की कविता ठोंक दो. शब्द हथियार नहीं होते हैं लेकिन हथियार से कम घाव भी नहीं करते हैं. कुमार भूल जाओ कि कभी तुमने राजनीति में शुचिता की कामना के साथ कुछ कदम चले थे. भूल जाओ जिन्हें आज भी तुम अपना कहते थकते नहीं हो. भूल जाओ कि राजनीति के खाने में तुम्हारे लिए कोई जगह है. आओ, एक और कविता की महफिल जमाओ. बेकारी, बेरोजगारी से जूझते उन युवाओं को मोटीवेट करो. राम के प्रसंग सुनाओ, जो कथा का सिलसिला तुमने शुरू किया है. तुम शब्दों के जादूगर हो. मखमली आवाज है. गीत है, बंद है और उसके भीतर जीवन का राग है. अपनी बिटिया की तरफ देखो, मेरी बिटिया की तरफ देखो इन्हें कुमार के गीत चाहिए. ऐसी हजारों बिटिया कुमार की तरफ इस आस से देख रही हैं कि दो लाईन उनके लिए कुमार भइया बोलेंगे. राजनीति को बॉय-बॉय बोलो लेकिन राजनीति के काले अनुभवों को उसी तरह शेयर करो जिस तरह किसी मंच से हजारों की भीड़ को बताया था कि चाणक्य का क्या शपथ था? किस तरह राजाओं के दरवाजे चौबीसों घंटे खुले रहते थे. कुमार तुम्हारा हर विषयों पर अध्ययन गहरा है. संदर्भ के लिए साथ तुम समृद्ध हो. बस, अब एक बार और शायद बार बार हम डॉ. कुमार विश्वास से कहेंगे कि गीत गाए और मां भारती की आराधना में जुट जाएं.   

Previous articleघरेलू महिलाओं के श्रम का आर्थिक मूल्यांकन
Next articleभारतीय संविधान: कुछ रोचक तथ्य
मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here