कुमार रविंद्र के नवगीत छंदों से विशेष

-भारतेन्दु मिश्र- poem

गत तीन चार दशकों से लगातार जो कवि अपने गीतों नवगीतों से हिन्दी  कविता में अपनी उपस्थिति दर्ज करता आ रहा है ।जिसने अपने गीतों के पाठ्य  से अपनी अलग पहचान बनाई उनके गीतों को लेकर विचार करते हुए यह कहा जा सकता है उन्होने लगातार प्रगतिशील गीत / नवगीत को नए आयाम दिए।ऐसे कवि कुमार रवीन्द्र उन तमाम नवगीतकारों से इस लिए भी अलग हैं क्योकि वे कविसम्मेलनों से कभी जुडे नहीं। उन्होंने आलाप और सुर की साधना न करके गीत के पाठ्य को लेकर सजगता से काम किया। उनकी मौलिकता का प्रमाण उनके गीतों की प्रगतिशील चेतना और युगधर्मिता से आंका जा सकता है। पिछले दशक में मैने अपने आवास पर प्रयोग के तौर पर कुछ कवियों के एकल गीतपाठ के कार्यक्रम आयोजित किए जिसमें श्रोताओं को कवि से उसकी रचना धर्मिता पर प्रश्न पूछने का भी अधिकार था। ऐसे कार्यक्रम में जाहिर है कि अधिक कवि/श्रोता नहीं शामिल हो सके लेकिन गीत के पाठ्य को लेकर कुछ सजग कवियों ने उसमें भागीदारी की कुमार रवीन्द्र उनमे से एक महत्वपूर्ण नाम हैं।उस प्रकार के आयोजन का भी यही उद्देश्य था कि गीत के पाठ्य और सामयिक रचनाविधान तथा कवि  की रचनाधर्मिता  पर बातचीत हो।कुछ लोग आलोचना से डरकर ऐसे आयोजनों में शामिल नहीं होते। बहरहाल कुमार रवीन्द्र जी ने उस दिन अपनी रचनाधर्मिता और वैचारिक प्रगतिशीलता से सबका मन मोह लिया था।  वे वरिष्ठ हैं, विद्वान हैं-उनके लिखे गीतों और विमर्श परक आलेखों का अपना महत्व है।कई काव्यनाटक भी उन्होंने लिखे हैं। आहत हैं वन, चेहरों के अंतरीप, पंख बिखरे रेत पर, सुनो तथागत और हमने सन्धियां की, उनके गीत नवगीत संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त-एक और कौंतेय, गाथा आहत संकल्पों की, अंगुलिमाल उनके काव्य नाटक हैं। इसके अतिरिक्त गीत नवगीत की समीक्षा से भी वे पिछले दशकों से लगातार जुडे रहे हैं। लखनऊ से पढ़-लिखकर जीवनभर हिसार में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। उनका एक अंग्रेजी कविताओं का संकलन भी प्रकाशित हुआ है। तो उनके कवि कर्म पर बात होनी चाहिए। लोग पीछे पड़कर भी समीक्षा लिखवाने के लिए तमाम जतन करते हैं कुमार रवीन्द्र जी ने कभी मुझे इस प्रकार तंग नही किया। गत दिनों लखनऊ के नवगीत परिसंवाद -2011 पर केन्द्रित एक किताब मुझे निर्मल शुक्ल जी ने भेजी थी उसके आवरण पर कुमार रवीन्द्र जी का नवगीत प्रकाशित हुआ था। वह गीत है- इसी गली के आखिर में-

इसी गली के आखिर में है /एक लखौरी ईंटों का घर/किस पुरखे ने था बनवाया/दादी को भी पता नहीं है/बसा रहा अब उजड़ रहा है/इसमें इसकी खता नहीं है/एक-एक कर लड़के सारे /निकल गए हैं इससे बाहर।  

तो ऐसे लखौरी ईंटो की चिता के बहाने पुराने लखनवी तेवर याद दिलाने वाले और गृहरति की व्यापकता वाले कवि के नवगीतों पर बात करना मेरे लिए अत्यंत सुख की बात है। लखौरी ईंटों के रूप में न जाने कितने सामाजिक सरोकार संवेदन के स्तर पर मिट गये और काव्य संवेदना के रूप में यहां सिमट गए हैं। कवि की अपनी जातीयता को चीन्हने के लिए एक और गीत का मुखड़ा देखिए-

नदी गोमती / शहर लखनऊ / हम बाशिन्दे उसी शहर के

कुमार रवीन्द्र बिम्बों का घना शाल नहीं बुनते, बल्कि सीधी सरल भाषा में संवेदना की अनुगूंज पैदा करते हैं। संयोगवश मैंने कुमार रवीन्द्र जी का लखनऊ वाला पुराना मकान देखा है। मुझे एकबार उनकी माता जी के दर्शन करने और आशीर्वाद लेने का अवसर मिला है।पिछले दिनों- रखो खुला यह द्वार – शीर्षक से नया नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ है। यह कवि की लगतार सक्रियता का नया दस्तावेज है।

हालांकि सीधे साफ सुथरे गीत रचना कुमार रवीन्द्र की सीमा भी है और शक्ति भी कि वे गृहरति यानी घर आंगन के काव्य संसार से बेहतर संवेदनाएं चुराकर वे नवगीत मे ढालने का सफल प्रयोग करते हैं। उनके यहां नचिकेता जैसा जनवाद नहीं है और जनवाद की नारेबाजी भी नहीं है। कभी-कभी उनके गीतों में अतीत चिंता नास्टेलिजिक स्तर पर भी दिखाई दे सकती है।लेकिन यह छन्दोबद्ध कवियों में नवगीत/गजल /दोहा कहते समय आ ही जाती है।

इस संकलन की भूमिका में कवि ने जो गीत की समकालीनता के प्रश्न पर टिप्पणी की है वह भी पठनीय है। यहां यदि अप्रासंगिक न हो तो कहना चाहता हूं कि कुमार रवीन्द्र जी ने अपने पांच पृष्ठ के वक्तव्य में पांच शब्द भी अपने गीतों पर नहीं कहा है। तात्पर्य यह कि उन्हे विचार और निजी संवेदना को अलग करने का सलीका आता है। अन्यथा अधिकांश गीतकारों की भूमिका पढकर मन कचकचा जाता(उल्टी करने का हो आता है) है। ऐसे वास्तविक रचनाकार और आत्मप्रशस्ति की मदिरा मे धुत्त रचनाकार का फर्क कुछ लोग मिटा देना चाहते हैं। मुझे लपटों की इस  नव बाजारवादी विकृति पर ऐतराज है। कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के कबीर की तरह अपना ताना-बाना लेकर  केवल अपनी सृजन धर्मिता से अपने सक्रिय होने का सबूत दे रहे हैं। इस समय में यह बड़ी बात है कबीर इसलिए क्योंकि कबीर का मुहाबरा उनके गीतों में उनके सिर चढ़कर बोलता है। साधो को संबोधित उनके गीत समावेशी समाजिक परिवेश की ओर संकेत तो करते ही हैं,कवि की निर्लिप्तता के भी परिचायक हैं। यह कवि के मन का साधो सूर और मिल्टन के पास से तथागत तक भी जाता है। लेकिन अपनी जमीन नहीं छोडता। वे कहते हैं-

सुनो बन्धु/यह गीत नहीं/अचरज की बोली है।

अर्थात कविता कवि के लिए संवाद की भाषा है।वो सुर ताल से श्रोताओं को रिझाने के लिए मंच के प्रपंच की भाषा कदापि नहीं है। जहां वे –

सुनो /बावरे नचिकेता की उल्टी बातें।  

कहकर पौराणिक मिथकों को नवगीत की परिभाषा देने की कोशिश करते हैं तो वहीं –

बांचो साधो/चार पदों का /सांसों का यह गीत हमारा।

कहकर एक ही  गीत में  जीवन के चार आयाम –बचपन, जवानी, वृद्धावस्था और देहांतर तक की संवेदना को समा लेने का प्रयत्न किया है।प्रत्येक सजग कवि के पास उसकी अपनी जमीन और  जातीयता को आसानी से लक्षित किया जाता है। नगर बोध के स्वर नवगीत में खूब देखने को मिलते हैं कुमार रवीन्द्र के यहां भी ऐसे तमाम गीत हैं। देखें-

हवा बेदम/रौशनी कम/महानगरी की सुबह है

एक और चित्र देखें लेकिन लगता है यहां शायद प्रूफ की कोई कमी रह गई है-

अपनी आंखों पर/पट्टी सब बांधे रहते/कोई भी घर के बंटने का /हाल न कहते/आम कट चुके/खूब फले हैं आक धतूरा/महानगर में।

यहां कोई भी घर के बंटने का हाल न कहते के स्थान पर कहता होना चाहिए क्योकि कोई शब्द एक वचन है और उसकी क्रिया भी एक वचन की ही होनी चाहिए। बहरहाल, रोमानियत और नास्टेल्जिया दोनों ही गीत की संवेदना के साथ हमेशा जुड़े रहते हैं, उनसे काटकर गीत को नहीं देखा जा सकता। अंतत: कुमार रवीन्द्र के नवगीत और उनका पाठ्य हमें नए आस्वाद के प्रति आश्वस्त तो करता ही है।

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