आस्था और संस्कृति को सहेजता कुंभ

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अरविंद जयतिलक

कुंभ का आयोजन भारतीयों के लिए एक धार्मिक संस्कार और सांस्कृतिक उत्सव का आयोजन भर नहीं, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने और संसार को भारतीय मनीषियों के त्याग, तपस्या और बलिदान से परिचित कराने का अद्भुत अवसर भी है। दुनिया भर के करोड़ों लोगों का कुंभ की ओर खींचे चले आना इसी सत्य को प्रतिध्वनित करता है। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘माघे वृष गते जीवे मकरे चंद्र भाष्करौ, अमवस्याम तदा कुंभ प्रयागे तीर्थ नायके।’ यानी माघ का महीना और गुरु, वृष राशि पर होते हैं। सूर्य और चंद्रमा मकर राशि पर होते हैं और अमावस्या होती है तब प्रयागराज तीर्थ में कुंभ पर्व पड़ता है। उल्लेखनीय है कि प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व नासिक इन चारों स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष कुंभ महापर्व का आयोजन होता है। प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम, हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा और नासिक में गोदावरी के तट पर कुंभ महापर्व का आयोजन होता है। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छः वर्ष के अंतराल में अर्द्धकुंभ भी लगता है। शास्त्रीय और खगोलीय गणनाओं के अनुसार कुंभ महापर्व की शुरुआत मकर संक्रांति के दिन से होता है और कई दिनों तक चलता है। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को ‘कुंभ स्नान योग’ कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार यह दिन मांगलिक होता है और ऐसी मान्यता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार खुलते हैं और कुंभ में स्नान करने से आत्मा को जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति मिल जाती है। शास्त्रों में कुंभ स्नान की तुलना साक्षात स्वर्ग दर्शन से की गयी है। शास्त्रों में कहा गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है। इसलिए बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। शास्त्रों के अनुसार देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का आयोजन होता है। पौराणिक मान्यता है कि महाकुंभ के दरम्यान गंगा का जल औषधिपूर्ण और अमृतमय हो जाता है और उसमें स्नान करने वाले तमाम विकारों से मुक्त हो जाते हैं। गंगा और यमुना दोनों ही नदियां भारतीय जन की आराध्य हैं। भारतीय संस्कृति और सभ्यता की पर्याय हैं। पौराणिक मान्यता है कि राजा भगीरथ वर्षों की तपस्या के उपरांत ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफल हुए। स्कंद पुराण व वाल्मीकी रामायण में गंगा अवतरण का विशद व्याख्यान है। शास्त्र, पुराण और उपनिषद भी गंगा की महत्ता और महिमा का बखान करते हैं। इन्हीं नदी घाटियों में ही आर्य सभ्यता पल्लवित और पुष्पित हुई। प्राचीन काल में व्यापारिक एवं यातायात की सुविधा के कारण देश के अधिकांश नगर नदियों के किनारे ही विकसित हुए। आज भी देश के लगभग सभी धार्मिक स्थल किसी न किसी नदी से ही संबंद्ध हैं। गंगा और यमुना की महत्ता इस अर्थ में भी ज्यादा है कि देश की एक बड़ी आबादी इनके जल से प्राणवान और उर्जावान है। इन दोनों नदियों का धार्मिक महत्व के अलावा विशेष आर्थिक सरोकार भी है। गंगा के बेसिन में देश की 43 फीसद आबादी निवास करती है। प्रत्यक्ष-परोक्ष रुप से उनकी जीविका गंगा पर ही निर्भर है। लेकिन विडंबना है कि गंगा किस्म-किस्म के प्रदुषण की शिकार है और उसका पानी आचमन योग्य नहीं रह गया है। लेकिन अच्छी बात है कि गंगा सफाई को लेकर सरकार का अभियान जारी है वहीं जनमानस में संजीदगी बढ़ी है। यह भारत राष्ट्र के लिए गर्व की बात है कि कुंभ मेले को संयुक्त राष्ट्र संघ के शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन ‘यूनेस्को’ ने अपनी प्रतिष्ठित मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल कर लिया है। गौरतलब है कि यूनेस्को के अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों के दायरे में मौखिक परंपराओं और अभिव्यक्तियों, प्रदर्शन कलाओं, सामाजिक रीतियों-रिवाजों और ज्ञान इत्यादि को ही सम्मिलित किया जाता है। हाल ही में यूनेस्को ने भारत की सांस्कृतिक विरासत योग और नवरोज को भी अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। इस तरह कुंभ मेले और योग समेत भारत की कुल 14 धरोहरें मसलन छाऊ नृत्य, लद्दाख में बौद्ध भिक्षुओं का मंत्रोच्चारण, संकीर्तन-मणिपुर में गाने-नाचने की परंपरा, पंजाब में ठठेरों द्वारा तांब व पीतल के बर्तन बनाने का तरीका और रामलीला इत्यादि यूनेस्कों की सूची में शामिल हो चुकी हैं। यूनेस्को ने कुंभ मेले को अपनी सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल करने का जो तर्क दिया है उसके मुताबिक प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में लगने वाला कुंभ मेला धार्मिक उत्सव के तौर पर सहिष्णुता और समग्रता को रेखांकित करता है। यूनेस्को का कहना है कि यह कुंभ खासतौर पर समकालीन दुनिया के लिए अनमोल है। कुंभ मेले के इतिहास में जाएं तो इसका प्रारंभ कब हुआ कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। उसका मूल कारण यह है कि वैदिक और पौराणिक काल में इतिहास लिखने की परंपरा नहीं थी और कुंभ तथा अर्द्धकुंभ स्नान में आज जैसी कोई प्रशासनिक व्यवस्था भी नहीं थी जो लेखनबद्ध करे। यहीं कारण है कि कुंभ मेले का कोई लिखित ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। लेकिन गौर करें तो शास्त्रों में कुंभ का विशद वर्णन उपलब्ध है। स्मृतियां, धर्मशास्त्र, रामायण, महाभारत एवं अन्य समकालीन ग्रंथों में कुंभ का विशद वर्णन है। ऐतिहासिकता में जाएं तो गुप्त काल में भी कुंभ के सुव्यवस्थित होने के भरपूर साक्ष्य उपलब्ध हैं। जहां तक प्रमाणिक तथ्यों का सवाल है तो शिलादित्य हर्षवर्धन के समय प्रयाग की महत्ता के साक्ष्य उपलब्ध हैं। इतिहास में वर्णित है कि सम्राट हर्षवर्धन अपनी दानशीलता के लिए संसार में प्रसिद्ध है। प्रति पंाचवे वर्ष प्रयाग में उसका महादान उत्सव उसकी दानशीलता का ज्वलंत उदाहरण है। उल्लेखनीय है कि वह प्रति पांचवे वर्ष प्रयाग में महादान उत्सव का आयोजन करता था और उस अवसर पर साधुओं, अनाथों, रोगियों इत्यादि को करोड़ों की संपत्ति दान में दे देता था। अस्त्र-शस्त्रों के अतिरिक्त अपना सब कुछ दान देने के उपरांत वह परम शांति और संतोष का अनुभव करता था। 643-44 ई0 में प्रयाग की छठी सभा महोत्सव में चीनी विद्वान ह्नेनसांग भी मौजुद था। यह सभा 75 दिन तक चली थी और इस सभा में पांच लाख से अधिक लोग सम्मिलित हुए थे। इतिहासकारों का मानना है कि हर्षवर्धन कुंभ मेले के दौरान ही दान महोत्सव का आयोजन करता था। बाद में श्री आदि जगद्गुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की। कई इतिहासकारों का मानना है कि कुंभ मेला 525 ई0 पूर्व में प्रारंभ हुआ।  शास्त्रों में जाएं तो कुंभ से जुड़ी कई कथानकें भारतीय जनमानस में प्रचलित हैं। इनमें सर्वाधिक मान्य कथानक देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूंदे गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया, तब सभी देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें सारा वृतांत सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हें दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु की सलाह पर सभी देवता समुद्र मंथन कर अमृत निकालने में जुट गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र जयंत अमृत कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य के आदेश पर दैत्यों ने अमृत कलश ले जा रहे इंद्रपुत्र जयंत को पकड़ लिया। अमृत कलश पर कब्जा जमाने की होड़ में कलश से अमृत की बूंदे प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिर पड़ी। इसी वजह से इन चारों स्थानों पर कुंभ लगता है। ऐसी मान्यता है कि अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर 12 दिन तक निरंतर युद्ध हुआ। देवताओं के 12 दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी 12 होते हैं। उनमें से 4 कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष 8 कुंभ देवलोक में होते हैं। कुंभ के लिए जो नियम निर्धारित है उसके अनुसार प्रयाग में कुंभ तब लगता है जब माघ अमावस्या के लिए सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में और गुरु मेष राशि में होता है। गौर करें तो कुंभ महापर्व विश्व में किसी भी धार्मिक प्रयोजन हेतु श्रद्धालुओं का सबसे बड़ा जमावड़ा है और यह उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक व वैज्ञानिक महत्ता को ही निरुपित करता है।   

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