बैठ कुऐं की मुंडेर पे

सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ
सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ

सुबह से सोच रही थी
कब , भरने पानी मैं जाऊं
बैठ मुंडेर पे कुऐं की
सहेली को मनं का हाल सुनाऊं
सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ

सास मेरी बहु को बेटी ना माने
बना बना के मुहं टेढ़ा
देती है मुझ को ताने
माइके वाले मेरे उसे एक आंख ना भाये
कहती है तुझे देने वाले जन्म
सीधे नरक में जायें
मनं करता है सास से एक बार जी भर के लड़ लूँ
सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ

बालम मेरा माँ का लाडला
बातों को मेरी वोह है टालता
सास मेरी की हर बात वोह माने
में कुछ कहती हूँ तो मुहँ फुला लेता है
कीसी न कीसी बहाने
सिसकियाँ भर लूँ
मनं हल्का में कर लूँ
सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ

{संजय कुमार फरवाहा}

3 COMMENTS

  1. बैठ कुऐं की मुंडेर पे – by – संजय कुमार फरवाहा

    कवि संजय कुमार फरवाहा जी,

    समय बदल गया है.

    आजकल सास-बहू बहुत चतुर हैं. अब आपस में लडती नहीं हैं, बल्कि वह मिलकर union बना लेती हैं.

    और मिलकर अपने-अपने अधिकारों के लिए agitation करती हैं. Womenfolk -vs- Men
    क्या समझे जी ?

    मेरा अनुभव कुछ ऐसा है. आप किस ज़माने की बात कर रहें हैं. Much water has flown down the river since

    – अनिल सहगल –

    तुझे देने वाले जन्म
    सीधे नरक में जायें

    *बालम मेरा माँ का लाडला
    बातों को मेरी वोह है टालता
    सास मेरी की हर बात वोह माने

  2. अविचारणीय(?) टिप्पणी।
    आदरणीया महिलाओंसे—–
    आप जब सास बनेंगी, तब ध्यान रखना। तो ज्यादा से ज्यादा एक पीढीमें सासवाद समाप्त होगा।
    किंतु, फिर कवि कैसे कविता लिखेगा?
    ====
    संजय कुमार जी– कविता का लोक गीत जैसा उठाव, रंजकता पैदा करता है।कुछ ब्रिज भाषा का, या भोजपुरी का प्रयोग कविता को और उठा देता,(ऐसा मुझे लगता है।)

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