अक्सर हिन्दू संस्कृति की कर्मकाण्ड पद्धति को लेकर बिना जाने स्वयं अधिकांश हिन्दू ही समय-समय पर प्रश्न खड़े करते रहते हैं। हाल ही में शारदीय नवरात्र के समापन पर जगह-जगह हुए यज्ञ के दौरान कुष्माण्ड बलिदान और बलिवैश्व देव का प्रथानुसार प्रयोग किया गया। इसे लेकर सोशल मीडिया में यत्र-तत्र यह बहस छिड़ती हुई देखी गई कि यह एक टोटका है, जिसका कि उपयोग अपनी बलाएं दूसरों पर डालने के लिए किया जाता है। यहां कुल मिलाकर चर्चा का जो सार था वह यही था कि यह हिन्दू कर्मकाण्ड की सबसे घटिया परंपरा है। किंतु यहां निंदा के अलावा यह बताने की जहमत किसी ने विस्तार से नहीं उठाई कि आखिर इसका धार्मिकता के साथ सामाजिक और वैज्ञानिक औचित्य क्या है।
वस्तुत: देखा जाए तो कालान्तर से यह परंपरा उसी रूप में चली आ रही है जिस रूप में इसका आरंभ समयानुसार पुरोहितों ने किया था। हां, इतना अवश्य हुआ है कि वक्त गुजरने के साथ ब्राह्मण, पुरोहित और आचार्य अधिकांशत: यह भूल गए हैं कि आखिर इसका आरंभ क्यों किया गया था एवं आज भी इसकी प्रासंगिकता चलन में बने रहने के लिए क्या हो सकती है। प्राय: हिन्दू पूजा पद्धति में विशेष अवसर पर हवन के बाद एवं नित्य हवन के समय कुष्माण्ड बलिदान तथा बलि वैश्व देव का विधान है। भारतीय सनातन धर्म के हर कर्मकाण्ड के पीछे उच्चस्तरीय तत्त्वज्ञान का समावेश रहता है। बलि वैश्व देव दैनिक यज्ञ है इसके पीछे का दर्शन यह है कि परमार्थ प्रयोजन को जीवन चर्चा में घुलाकर रखा जाए। मात्र पेट के लिए ही न जिया जाए। अपने श्रम, समय, ज्ञान, मनोयोग जैसे साधन उतने ही निजी उपयोग में लिये जाएं, जितना कि औसत भारतीय के निर्वाह में प्रयुक्त होता है। शेष को पिछड़ों को उठाने और सत्प्रयत्नों को आगे बढ़ाने में लगा दिया जाए। बलि वैश्व देव के दो पक्ष हैं, एक पक्ष में सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन और दूसरा है पिछड़ों की सहायता।
बलिवैश्व का तत्त्वदर्शन कहता है कि दूसरों के साथ वैसी उदारता रखो जैसी प्रकृति ने आपके साथ रखी है। आपको यह हमेशा याद रहे कि आप दूसरों की सेवा के लिए जिएँ। इस हेतु नित्य बलिवैश्व करना चाहिए। त्यागपूर्वक भोग किया हुआ अन्न हमारे अंदर बल और प्राण शक्ति को धारण कराता है। हमारे ऋषियों ने इसमें तीन शब्दों को समाविष्ट किया है। बलि-वैश्व-देव, इनका अर्थ इस प्रकार होता है। बलि अर्थात् बलिदान, त्याग, उपहार, भेंट, अनुदान। वैश्व समस्त विश्व के जड़- चेतन के लिए। देव अर्थात् देवताओं के लिए, दिव्य प्रयोजनों के लिए। बलिवैश्व देव अर्थात् समस्त विश्व के लिए उदारता से दिया गया अनुदान।
वास्तव में यह पूजा की नित्य की जाने वाली वह पद्धति है जो हमें निरंतर यह ध्यान दिलाती रहती है कि इस समष्टि में मैं का अस्तित्व हम में निहित है। जीव, जंतु, पशु, पक्षी सभी का ध्यान रखना उनके लिए अन्न जल की व्यवस्था करना प्रत्येक मनुष्य का प्रकृति धर्म है। बलि वैश्व देव के माध्यम से सभी जीवों के लिए अन्न, जल की व्यवस्था करने का यत्न किया जाता है। अब हम बात करेंगे कुष्माण्ड बलिदान की। यह प्रत्येक विशेष प्रयोजन से किए जाने वाले हवन के पश्चात की जाने वाली कर्मकाण्डिय क्रिया है। इसमें यज्ञ में बैठा मुख्य यजमान भूरे कद्दू को बलि मानकर काटता है। बलि के पहले दो भाग करता है एक छोटा भाग मां भगवति या अन्य मुख्य देवता के सामने रखता है और दूसरे भाग के पांच टुकड़े करके क्षेत्र की रक्षा करने वाले क्षेत्रपालकों (क्षेत्रपाल) के लिए चौराहे या सड़क के किनारे अपने किसी सेवक से रखवाता है। पहले जब बलि दी जाती थी, तो उसके पीछे भी मंतव्य यह था कि जो हमारे क्षेत्र की रक्षा करते हैं, अप्रत्यक्ष चेतानाएं और प्रत्यक्ष जैसे कुत्ते एवं अन्य जानवर उन्हें यज्ञ के बाद आहुति स्वरूप सबसे पहले बलि के माध्यम से भोजन कराया जाए।
यहां क्षेत्रपाल का आशय ही यही है कि क्षेत्र की रक्षा करने वाले , यानि जो हवन के बाद सबसे स्वादिष्ट उनके लिए हो सकता है, वह उन्हें देना । यहां बता दें कि पहले किसी जानवर की प्रत्यक्ष बलि होती थी लेकिन आगे पुरोहितों व आचार्यों को लगा कि जानवर की बलि नहीं दी जानी चाहिए, किंतु परंपरा भी बनी रहे तो उन्होंने जानवर के स्थान पर किसी फल को बलि मानते हुए सांकेतिक क्षेत्रपाल बलिदान को बनाए रखा। इसमें बलि के साथ चौराहों पर अन्य भोज्य सामग्री रखी जाती है, जैसे पापड़, दालें, इमरती या अन्य मिठाई तेल का आटे से बना बड़़ा दीपक, बड़ी, इत्यादि स्थान परंपरा के अनुसार अन्य भोज्य सामग्री, जिसे कि घर के आस पास रहने वाले जीव-जंतु बड़े स्वाद के साथ ग्रहण करते हैं। इसे चौराहे पर रखने के पीछे भाव यह है कि सभी जानवर जो वहां आस-पास हों, उनकी आसानी से नजर उस भोज्य सामग्री पर पड़ सके और वह उसका अपने भोजन के रूप में भरपूर आनंद ले सकें। इस प्रक्रिया में जो यजमान का सेवक उसे चौराहे पर रखने जाता है, उसे यजमान यथा-योग्य उसकी प्रसन्नता अनुसार इतनी दक्षिणा या कहें राशि देता है जितने से वह प्रसन्न हो सके, इसके पीछे का मंतव्य है कि जो व्यक्ति हमारी सेवा में दिन-रात लगा हुआ है, वस्तुत: हमारे किए हुए यज्ञ की सफलता तभी है जब वह हवन की समाप्ति के बाद सबसे पहले प्रसन्न हो सके। यहां यज्ञ कराने वाले पंडितजी की प्रसन्नता या यज्ञ में सम्मलित हुए रिश्ते-नातेदारों की प्रसन्नता की बात सेवक के प्रसन्न हो जाने के बाद आती है। अत: कहा जा सकता है कि यज्ञ की सफलता सेवक की प्रसन्नता से जुड़ी है।
इस क्रिया में सेवक यजमान द्वारा जलाए गए दीपक को उसके ऊपर घूमाता है, यजमान कपड़े, मिठाई और पर्याप्त धन देकर हाथ जोड़कर पूछता है, आप प्रसन्न हैं, सेवक कहता है हां, तभी यजमान अपने सेवक से चौराहे पर जाने के लिए कहता है, यदि सेवक प्रसन्न नहीं होता तो उससे पूछा जाता है, बताओ महाराज आपकी कामना क्या है ? सेवक कहता है, इतनी राशि से काम नहीं चलने वाला आप और कृपा करें, तब यजमान अपने दिए जाने वाले रूपयों की राशि तथा उपहारों में वृद्धि करता है। कहने का तात्पर्य है कि सेवक की प्रसन्नता किसी भी यज्ञ की पूर्णता के लिए यहां महत्व रखती है।
दुर्गा हवन के लिए हिन्दू धर्म में उपर्युक्त पुस्तक दुर्गार्चन पद्धति मानी जाती है। इस पुस्तक में बलि के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले सफेद कद्दू के लिए साफतौर पर लिखा है कि रोली का उपयोग करें न कि सिंदूर का, कालांतर में ज्ञान के अभाव में सिंदूर का उपयोग होने लगा, किंतु यहां यह भी जानना होगा कि रोली, हल्दी के माध्यम से बनाई जाती है और हल्दी को एन्टी बायोटिक माना जाता है। आयुर्वेद में इसके प्रयोग का विधान है, यह शरीर को स्वस्थ रखती है। जानवरों को तो कोई हल्दी खिलाएगा नहीं लेकिन इस बहाने ही सही उनके शरीर में यह पहुंचे इसीलिए भी बलिभाग पर इसका लेपन किया जाता है। दूसरा भाव इसका यह है कि इसका रंग लाल होता है, खून का रंग भी लाल है। शक्ति आराधना और बलि यह हिन्दू परंपरा में शूरवीरों के लिए आवश्यक कर्मकाण्ड बताए गए हैं, जिससे कि भय का नाश हो सके तथा रक्त के प्रति उनके मन से जो भय का संचारी भाव है और एक अलग प्रकार की घबराहट होती है जो कि खून देखकर प्राय: उत्पन्न हो ही जाती है, उससे छुटकारा दिलाया जाना भी इसका एक हेतु है।
वस्तुत: कूष्माण्ड बलि और वैश्व बलि देव का विधान कर्मकाण्ड में सेवक और जीवों से जुड़ा है । यहां तक काले कपड़े को उसके ऊपर लपेटने की बात है तो इसके पीछे का कारण मुख्यतौर पर यही है कि काला रंग दृढ़ता का प्रतीक है। हवन के बाद सेवक जब प्रसन्न होकर मंगल कामना के साथ जाता है तो उसे जो अच्छे वस्त्र, मिठाई, भोज्य सामग्री दी जाती है उसी के साथ काले कपड़े का एक छोटा प्रतीक रूप में झंडा, अंगोछा या अन्य कोई वस्त्र देने का विधान है, इस विधान के पीछे भाव यह है कि हम आपके सेवा कर्म के प्रति दृढ़ और समर्पित हैं, वहीं दृढ़ता से उसका समर्थन करते हैं और अपना शीष झुकाते हैं।
हिन्दू धर्म से जुड़े या अन्य जो लोग इसे जादू-टोने से जोड़कर देखते हैं, उन्हें यह समझना होगा कि दूसरे दिन जब प्रात:काल सड़कों और चौराहों की सफाई की जाती है, तब स्थान-स्थान पर सैंकड़ों सफेद कद्दू बिखरे मिलते हैं, जिन्हें सफाईकर्मी स्वयं हटाता है। यदि इसमें कुछ जादू-टोना होता तो सबसे पहले उसे छूनेवाले या हटाने वाले सफाई कर्मी पर उसका बुरा असर होता, जबकि आज तक ऐसा कोई मामला उजागर नहीं हुआ है कि इसको छूने से किसी का अहित हुआ हो। अत: कहना होगा कि यहां काला रंग दृढ़ता के अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है और कुछ नहीं। यह क्रिया किसी को भयभीत करने के लिए नहीं की जाती है। यदि इन चीजों को देखकर किसी के मन में भय या आशंका पैदा होती है, तो उसके कारण अंतर्निहित अंधविश्वास और मनोवृत्ति ही हैं। भय, शोक, राग, उमंग, उत्साह, क्रोध यह सभी रस हमारे अंदर विद्यमान हैं। कोई किसी को तब तक भयभीत नहीं कर सकता जब तक कि वह स्वयं ही अपने से भयभीत होना नहीं चाहता है । शमशान में जो लोग रोज चिताओं की राख साफ करने में लगे रहते हैं वे कभी भयभीत नहीं होते, इसी प्रकार कब्रिस्तान के पास रहने वालों को भी किसी प्रकार का भय नहीं लगता । भय किसी भी मनुष्य का स्थायी भाव नहीं। यदि ऐसा होता तो उसकी अनुभूति सभी को समान होती न कि किसी को होती और किसी को नहीं । इसीलिए कहा जा सकता है कि यह व्यक्ति -व्यक्ति पर निर्भर है। भय का संचार कोई बाहर से नहीं करता वह हमारे अंदर ही होता है। इसके लिए किसी ओर को दोष देना बिल्कुल उचित नहीं है।
इसी के साथ यह भी कहा जा सकता है कि कर्मकाण्ड में किसी क्रिया के पीछे एक ही उद्देश्य छिपा हो, यह जरूरी नहीं। वस्तुत: यह भाव पर आधारित है और मानने वाले के ऊपर है कि वह किसी क्रिया को किस रूप में लेता एवं देखता है। वस्तुत: हिन्दू एक सनातन जीवन पद्धति है जिसका प्रत्येक कर्म विज्ञान आधारित है, फिर वह शिखा रखने या जनैऊ पहनने से लेकर सिर पर तिलक लगाने से आगे तांबे और पीतल के बर्तनों में पानी पीने तक, घर के आंगन में तुलसी तथा पीपल, वट और आंवला जैसे पौधों को लगाने तक तमाम कार्य क्यों न हों।