क्या सचमुच विकास के लिए छोटे राज्य जरुरी हैं?

0
632

सुमंत विद्वांस

हाल ही में उप्र में बहुजन समाज पार्टी की सरकार द्वारा पारित राज्य के चार भागों में बाँटने का एकतरफा प्रस्ताव विधानसभा में पारित किए जाने के बाद राज्यों के पुनर्गठन और छोटे राज्यों के लाभ-हानि को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है. इसके पक्ष और विपक्ष में बोलने वाले लोगों के पास अपने-अपने तर्क हैं. कुछ लोगों का विचार है कि राज्यों छोटा आकार उनके विकास में सहायक होता है क्योंकि बहुत बड़े राज्यों का प्रशासन सुचारू रूप से चला पाना बहुत कठिन है.

वैसे तो यह तर्क कुछ हद तक सही लगता है, लेकिन प्रश्न यह भी है कि राज्यों का आकार यदि छोटा होना चाहिए, तो ये कैसे तय होगा कि आकार कितना हो? साथ ही, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि छोटे राज्यों का गठन होते ही विकास भी हो जाएगा और सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएंगी. छोटे राज्यों की भी अपनी समस्याएँ होती हैं. संसाधनों की कमी तो बहुत छोटे राज्यों में भी हो सकती है. ऐसे में उस राज्य को अपनी छोटी-छोटी आबश्यकताओं के लिए भी दूसरे राज्यों पर निर्भर रहना पड सकता है, जिससे कई बार समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं. हमारे देश में मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम जैसे कई छोटे-छोटे राज्य हैं, लेकिन वहाँ की जनता विकास से कितनी दूर है, ये बात किसी से छिपी नहीं है. दूसरी ओर गुजरात जैसा बड़ा राज्य लगातार हर क्षेत्र में प्रगति के नए आयाम छू रहा है. बिहार का विभाजन करके झारखंड का गठन किया गया, लेकिन बिहार तो अब प्रगति के पथ पर बढ़ रहा है और झारखंड में हर समय राजनैतिक अस्थिरता का भय बना रहता है. हालांकि मप्र को विभाजित कर बनाए गए छत्तीसगढ़ राज्य में पिछले कुछ वर्षों में लक्षणीय प्रगति हुई है, लेकिन उसका भी अधिकांश श्रेय वहाँ की सरकार के काम-काज और मुख्यमंत्री की कार्यशैली को ही दिया जाता है. इन उदाहरणों को देखकर ऐसा लगता है कि राज्यों के आकार के बजाए राजनेताओं और सरकार की प्रशासन-क्षमता और कार्यकुशलता का स्तर ही विकास होने या न होने का आधार है.

कुछ मामलों में ये सही है कि राज्य का आकार बड़ा होने पर विकास में बाधा आती है. जम्मू-कश्मीर इसका एक अच्छा उदाहरण है. इस राज्य का केवल एक-तिहाई भाग (कश्मीर घाटी) ही आतंकवाद से पीड़ित है, लेकिन फिर भी पूरे राज्य के लोगों को इसका परिणाम भुगतना पड़ रहा है. इसलिए पिछले कुछ वर्षों से यह मांग भी उठी है कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख इन तीन भागों में विभाजित कर दिया जाए, ताकि जो भाग आतंकवाद से मुक्त हैं, वहाँ के नागरिक तेज़ी से विकास-पथ पर आगे बढ़ सकें. लेकिन अफसोस की बात है कि राज्य में अमरनाथ यात्रा में व्यवधान उत्पन्न करने और सेना के विशेषाधिकार खत्म करने जैसे मुद्दों पर सक्रियता दिखानेवाली राज्य सरकार इस मामले पर मौन है.

एक बड़ी समस्या यह भी है कि राज्यों का विभाजन और पुनर्गठन अनेक विवादों और आपसी संघर्ष को भी जन्म देता है. महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर आज तक खींचतान चल रही है. न जाने इसको लेकर कितने आंदोलन हो चुके हैं और कितने लोगों ने अपनी जान गंवाई है. आन्ध्र को विभाजित कर तेलंगाना के गठन की मांग कर रहे लोग और आन्ध्र प्रदेश राज्य के विभाजन का विरोध कर रहे लोग भी आपस में लगातार संघर्षरत हैं. एक ही देश के नागरिक यदि इस तरह आपस में लड़ते रहें, तो इसका नुकसान पूरे देश को उठाना पडता है.

कई बार ऐसा भी लगता है कि इस तरह के पुनर्गठन और विभाजन की माँग तार्किक न होकर केवल राजनैतिक अवसरवादिता का परिणाम है. अधिकाँश क्षेत्रीय दल इस सच्चाई को समझते हैं कि बड़े राज्यों में सत्ता-सुख हासिल कर पाना उनके लिए एक टेढ़ी खीर है. ऐसे में एक उपाय यह है कि राज्य को छोटे टुकड़ों में बाँट कर इस समस्या को सुलझाया जाए. लेकिन डर इस बात का भी है कि इस अदूरदर्शिता और अवसरवादिता का परिणाम कहीं ये न हो कि 600 रियासतों में बंटे जिस भारत को लौह-पुरुष सरदार पटेल ने एक सूत्र में पिरोया था, स्वतंत्रता के 60 वर्षों बाद अब वह भारत फिर 600 टुकड़ों में बंट जाए.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here