चुनावी हिसाब में पारदर्शिता से परहेज

0
208

प्रमोद भार्गव

donation

आखिरकार राजनीतिक दलों ने चंदे के हिसाब किताब में पारदर्शिता लाने वाले निर्वाचन आयोग के प्रस्ताव को ठोकर मार दी। राष्ट्रीय दलों में केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने प्रस्ताव का सर्मथन किया। भाजपा, सपा,बसपा,राकांपा और माकपा जैसे अन्य बड़े दलों ने तो आयोग के सुझावों का उत्तर भी नहीं दिया। जबकि कांग्रेस ने यथास्थिति बनाये रखने की पैरवी की। 49 क्षेत्रीय दलों में से सिर्फ चार दलों अन्नाद्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, जोराम नेशनल पार्टी और सिकिकम डेमोक्रेटिक फ्रंट्र ने आयोग के ज्यादातर सुझावों का समर्थन किया। जाहिर है,चुनाव सुधार की दिशा दल अपने स्तर पर कोर्इ सुधार नहीं चाहते। यदि न्यायलय का डंडा नहीं चलता तो सजायाफ़्ता दागी भी चुनाव लड़ते रहते और मतदाता को नकारात्माक मतदान का अधिकार भी नहीं मिलता। दलों की यही संकीर्ण मानसिकता तब सामने आर्इ थी,जब केंद्रीय सूचना आयोग ने फैसला लिया था कि मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल सूचना के अधिकार कानून के तहत आएंगे,तब सभी दलों ने बहुमत जताते हुए दलील दी थी कि उनकी जबावदेही और पारदर्शिता तय करने का हक चुनाव आयोग के पास है,लेकिन आयोग की इस ताजा कवायद को दलों ने बहुमत से ठोकर मार दी। तय है, दल निजी स्वार्थपूर्तियों के चलते पारदर्शिता के हक में कतर्इ नहीं हैं।

भारत निर्वाचन आयोग ने एक सुझाव पत्र जारी करके मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों से सुझावों पर राय व समर्थन की मंशा चाही थी। पत्र में प्रमुख प्रस्ताव थे कि दलों को व्यकियों या कंपनीयों से जो भी चंदा मिलता है,वे उसकी रसींदें दे। 20 हजार से ज्यादा की रकम का लेनदेन रेखाकिंत चैंकों से हो। यह राशि तय सीमा में खाते में जमा कर दी जाए। आयोग का यह भी सुझाव था कि दलो के कोषाघ्यक्ष इंस्टीटयूट आफ चार्टर्ड एकाउंटेंस आफ इंडिया द्वारा तय मानकों के मुताबिक बही-खातों का संधारण करें। आयोग ने यह भी निर्देश दिया था कि दल निर्धारित समयावधि में आयकर रिर्टन दाखिल करें और खातों का लेखा-जोखा आयोग के सुपुर्द कर दें। लेकिन सभी प्रमुख राष्ट्रीय दलों ने पारदर्शिता की वकालत करने वाले इन सुझावों को रददी के टोकरी के हवाले कर दिया। भारतीय राजनीति की यह विडंबना चुनाव सुधार की दिशा में बाधाएं उत्पन्न करने जैसी है।

दरअसल हकीकत यह है कि राजनीतिक दल हर प्रकार की पारदर्शिता से दूर रहना चाहते हैं। कुछ समय पहले ही मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्रा और सूचना आयुक्त एम एल शर्मा व अन्नपूर्णा दीक्षित की पूर्ण पीठ ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए राजनैतिक दलों को आरटीआर्इ के दायरे में लाने की पहल की थी। इस फैसले के सिलसिले में पीठ ने 6 दलों को सार्वजनिक संस्था माना था। इन दलों में कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा शामिल थे। आगे इस फेहरिष्त में अन्य दलों का भी आना तय था। समाजवादी पार्टी, अकाली दल, जनता दल और तृणमूल कांग्रेस जैसे बड़े दल आरटीआर्इ के दायरे से बचे रह गए थे।

आयोग ने राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाकर उल्लेखनीय पहल की थी। इससे प्रमुख दल मांगे गए सवाल का जवाब देने के लिए बाध्यकारी हो गये थे। किंतु मौजूदा स्थिति में कोर्इ भी राजनीतिक दल आरटीआर्इ के दायरे में आना नहीं चाहते हैं। क्योंकि वे औधोगिक घरानों से बेहिसाब चंदा लेते हैं और फिर उनके हित साधक की भूमिका में आ जाते हैं। पीठ ने यह फैसला आरटीआर्इ कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल और एसेसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स के प्रमुख अनिल बैरवाल के आवेदनों पर सुनाया था। दरअसल इन कार्यकर्ताओं ने इन छह दलों से उन्हें दान में मिले धन और दानदाताओं के नामों की जानकारी मांगी थी। लेकिन पारदर्शिता पर पर्दा डाले रखने की दृष्टि से सभी दलों ने जानकारी देने से इनकार कर दिया था। बाद में कैबिनेट ने आयोग के फैसले को उलट कर बहुदलीय सहमति भी हासिल कर ली और ऐतिहासिक फैसले को शून्य घोषित कर दिया।

असल में राजनैतिक दलों को तीन सैद्धांतिक बिंदुओं की मर्यादा में बांधकर आरटीआर्इ के दायरे में लाना जरुरी है। एक, निर्वाचन आयोग में पंजीकृत सभी दलों को केंद्र सरकार की ओर से परोक्ष-अपरोक्ष मदद मिलती है। इनमें आयकर जैसी छूटें और आकाशवाणी व दूरदर्शन पर मुफत प्रचार की सुविधाएं शामिल हैं। दलों के कार्यालयों के लिए केंद्र और राज्य सरकारें भूमि और भवन बेहद सस्ती दरों पर उपलब्ध कराती हैं। ये अप्रत्यक्ष लाभ सरकारी सहायता की श्रेणी में आते हैं। दूसरा सैद्धांतिक बिंदु है कि दल सार्वजनिक कामकाज के निष्पादन से जुड़े हैं। साथ ही उन्हें, अधिकार और जवाबदेही से जुड़े संवैधानिक दायित्व प्राप्त हैं, जो आम नागरिक के जीवन को प्रभावित करते हैं। चूंकि दल निंरतर सार्वजनिक कर्तव्य से जुड़े होते हंै, इसलिए पारदर्शिता की दृष्टि से जनता के प्रति उनकी जवाबदेही बनती है। लिहाजा पारदर्शिता के साथ राजनीतिक जीवन में कर्तव्य की पवित्रता भी दिखार्इ देनी चाहिए।

तीसरा बिंदु है कि दल सीधे संवैधानिक प्रावधान व कानूनी प्रक्रियाओं से जुड़े हैं, इसलिए भी उनके अधिकार उनके पालन में जवाबदेही की शर्त अंतनिर्हित है। राजनीतिक दल और गैर सरकारी संगठन होने के बावजूद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से सरकार के अधिकारों व कर्तव्यों को प्रभावित करते हैं, इसलिए उनका हस्तक्षेप कहीं अनावश्यक व दलगत स्वार्थपूर्ति के लिए तो नहीं है, इसकी जवाबदेही सुनिश्चित होना जरुरी है ? आजकल सभी दलों की राज्य सरकारें सरकारी योजनाओं को स्थानीय स्तर पर अमल में लाने के बहाने जो मेले लगाती हैं, उनकी पृष्ठभूमि में अंतत: दल को शकित संपन्न बनाना होता है। इस बहाने सरकारें दलगत राजनीति को  हवा देती हैं। सरकार, सरकारी अमले पर भीड़ जुटाने का दबाव डालती हैं और संसाधनों का भी दुरपयोग करती हैं। लिहाजा जरुरी था कि राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग के सुझावों को मानते।

राजनीतिक दल भले ही चुनाव आयोग के सुझावों को नजरअंदाज करने की मानसिकता से चल रहे हैं, लेकिन इसके विपरीत देश के कुछ व्यापारिक घरानों ने दलों को वैधानिक तरीके से चंदा देने का सिलसिला शुरू कर दिया है। डेढ़ साल पहले अनिल बैरवाल के संगठन ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी जुटार्इ थी। इस जानकारी से खुलासा हुआ था कि उधोग जगत अपने जन कल्याणकारी न्यासों के खातों से चैक द्वारा चंदा देने लग गए हैं। इस प्रक्रिया से तय हुआ कि उधोगपतियों ने एक सुरक्षित और भरोसे का खेल खेलना शुरू कर दिया है। सबसे ज्यादा चंदा कांग्रेस को मिला है। 2004 से 2011 के बीच कांग्रेस को 2008 करोड़ रुपए मिले, जबकि दूसरे नंबर पर रहने वाली भाजपा को इस अवधि में 995 करोड़ रुपए मिले। इसके बाद बसपा, सपा और राकांपा आती हैं। अब तक केवल 50 दानदाताओं से जानकारी हासिल हुर्इ है। जिस अनुपात में दलों को चंदा दिया गया है, उससे स्पष्ट होता है कि उधोगपति चंदा देने में चतुरार्इ बरतते हैं। उनका दलीय विचारधारा में विश्वास होने की बजाय दल की ताकत पर दृष्टि होती है। यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा की सरकारें रहने के दौरान देश के दिग्गज अरब-खरबपति चंदा देने की होड़ में लगे रहे।

यहां सवाल उठता है कि यदि लोकतंत्र में संसद और विधानसभाओं को गतिशील व लोक-कल्याणकारी बनाए रखने की जो जवाबदेही दलों की होती है, यदि वहीं औधोगिक घरानों, माफिया सरगनाओं और काले व जाली धन के जरिये खुद के हित साधन में लग जाएंगे तो उनकी प्राथमिकताओं में जन-आकांक्षाओं की पूर्ति की बजाय, उधोगपतियों के हित संरक्षण रहेगा। आर्थिक उदारवाद के पिछले दो दशकों के भीतर कुछ ऐसा ही देखने में आया है। राजनैतिक दल यदि चुनाव आयोग के सुझावों का सम्मान करते हुए चंदे का लेखा-जोखा नियमों के मुताबिक रखते और उसकी जानकारी आयोग को भी देते तो इससे दलों की पारदर्शिता के प्रति जबावदेही तो सामने आती ही चुनावों में फिजूलखर्ची पर भी अंकुश लगता।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here