नारी – आत्‍मा और छाया के मध्‍य

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ladyयुगों युगों की भारतीय संस्‍कृति जिसमें हर पीढी को ‘’ जहां नारी का वास होता है वहां देवता विराजते है ’’ पढाये जाने के बावजूद भी समाज ने नारी को सदैव माता, पुञी, बहन, पत्नि आदि रूपों में ही देखने का प्रयास किया है भारतीय समाज विशेषकर पुरूष वर्ग नारी को केवल नारी देखने के प्रयास में असफल ही रहा है ! नारी को सदैव पुरूष की परछाई या छाया के रूप में ही भारतीय संस्‍कृति व समाज में अभिव्‍यक्‍त किया है ! शायद यही कारण है कि हजारों वर्षो की धार्मिकता तथा शिक्षा के बावजूद भी भारतीय समाज नारी को केवल माञ नारी मानने को तैयार दिखाई नही देता है, इसी कारण भारतीय नारी केवल माञ पुरूष की छाया बनकर रह गई है और उसकी आत्‍मा कहीं खो गई है और अधिक शायद उसकी आत्‍मा को हमने मार ही दिया है अथवा उसे मरणासन्‍न स्थिति में ला दिया है !

अब प्रश्‍न यह उठता है जब नारी की आत्‍मा ही नही रही है तो उसकी छवि का इतना बखान क्‍यों करते है उसके हितो, अधिकारों की इतनी चर्चाएं क्‍यों करते है ! इन व्‍यापक महिलावादी चर्चाओं, संगोष्ठियों के पीछे कहीं पुरूष समाज को अपनी छाया खो जाने का भय तो नही है क्‍यों कि हमारे देश में बिना छाया के इंसान को इस लोक का नहीं समझा जाता है !

सम्‍पूर्ण विश्‍व में आज नारी अपनी पुरानी छवी को त्‍याग कर आगे बढने का प्रयास कर रही है वो पुरूषों के साम्राज्‍य को चुनौती दे रही है, परन्‍तु भारतीय समाज में पित्रसतात्‍मक विचार मन की उन गहराईयों तक पेठ किये हुए है जिनमें नारी को सदैव दूसरे दर्जे का ही समझा जाता रहेगा उदारणार्थ अगर आज नारी फौज में जाने लगी परन्‍तु फिर भी उसे पुरूषों के बाद ही गिना जायेगा !

सुभद्रा कुमारी चौहान कि ये पक्तियां ‘’खुब लडी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी’’ कहीं ना कहीं ये ही सिद्व करती है कि अगर नारी पुरूषों के क्षेञ में जाकर पुरूषों जैसा कार्य करती है तो उसको सम्‍मान की द़ष्टि से देखा जाता है उसे महिलाओं के लिए सम्‍मान की बात कहीं जाती है परन्‍तु अगर कोई पुरूष महिलाओं के क्षेञ में जाकर कोई कार्य करता है तो उसे पुरूष समाज हीन दृष्टि से देखता है, उसका उपहांस बनाता है और व्‍यंग्‍य करता है ‘कार्य औरते जैसे काम करता है’ जिसका उदा‍हरण कुछ समय पूर्व उतरप्रदेश में एक पुलिस अधिकारी द्वारा स्‍वयं को राधा धोषित किये जाने पर सामने आया था ! यह बात साबित करती है कि भारतीय समाज ने नारी को सदैव विरोधाभासी आत्‍मा व छाया प्रदान करने का कार्य किया है, क्‍योकि अगर वह माता, पुञी, बहन, पत्नि आदि रूपों में है तो उसे सम्‍मान दिया जाना चाहिए परन्‍तु अगर वह केवल नारी बने रहना चाहती है तो हम उसका विरोध करेगें उसके चरिञ, सम्‍मान पर प्रश्‍न करना प्रारम्‍भ कर देगें !

महिलाओं की स्थिति में सुधार नही होने का प्रमुख कारक भारतीय समाज में पित्रसता व विचारों को स्‍वयं नारी द्वारा विचारात्‍मक सहमति प्रदान करना है तथा जहां तक अवधारणा क‍ि बात है अधिक चिन्‍तनीय समस्‍या तो भारतीय नारी द्वारा पित्रसतात्‍मक मनोवृति को चुनौती देने के बजाय उसके बहाव में स्‍वयं के अस्तित्‍व को बहाये ले जाना है, क्‍यों कि अत्‍याचार करने वाले से अधिक अत्‍याचार सहने वाला दोषी होता है, यही वजह है कि नारी भारतीय समाज में सदैव उस चन्‍द्रमा की भांति रही है जिसकी स्‍वयं की कोई चमक या कांति नही है अपितु वह तो पुरूष रूपी सूर्य के प्रकाश में ही अपने अस्तित्‍व को चमकाने का प्रयास कर रही है इसलिए शायद कविताओं, कथाओं में नायक ने नायिका को हमेशा चन्‍द्रमा की जैसी छवी वाला बताया है और नायिका ने इसे सम्‍मान मानते हुए सहर्ष स्‍वीकार भी किया है !

सिमॉन द बुआ का कथन ‘ औरत पैदा नहीं होती है, बना दी जाती है’ भी नारी की स्थिति व दोहरी जैविकीय परिभाषा को समझने में अत्‍यन्‍त सहयोगी सिद्व होता है यह उस समाज की ओर सं‍केत करता है जिस समाज में केवल शिशु जन्‍म लेता है परन्‍तु हमारी स्‍वयं की सोच व सीमाओं के कारण वह स्‍वयं ही आहिस्‍ता आहिस्‍ता स्‍ञी या पुरूष के गुण अपना लेता है, यह विचारणीय बिन्‍दु है कि जब ईश्‍वर ने इस संसार में भेजते समय कोई भेदभाव नही किया तो फिर हम केवल खोखली सामाजिक व्‍यवस्‍थाओं, जैविक सरंचना, नैतिकता, धार्मिकता के नाम पर भेद उत्‍पन्‍न करने वाले कौन होते है, और केवल भेद ही नही अपितु इस हद तक शोषण कि उस बीज को कली व फूल बनने से पहले ही समाप्‍त भी कर देते है जो कि इस सम्‍पूर्ण सामाजिक व्‍यवस्‍थाओं की सूञधार है जो इस संसार की जननी है !

नारी की आत्‍मा व छाया को बांटने का प्रयास कोई नवीन पहलू नही है यह तो सदियों से चलता आ रहा है, शास्‍ञों में यजमान शब्‍द का स्‍ञीलिंग ना होना तथा मनु स्‍मृति में स्ञियों के लिए उपनयन संस्‍कार पर रोक होना इस बात का घोतक है कि यह प्रयास भारतीय समाज सदैव से ही करता आ रहा है जिसमें केवल पुरूष को ही अधिकार है कि वे ईश्‍वर की स्‍तुति कर उनके सम्‍पर्क में रह सके तथा शिक्षाग्रहण कर सके क्‍योंकि स्ञियों के लिए उपनयन संस्‍कार के स्‍थान पर विवाह की व्‍यवस्‍था की गई तथा विवाह के पश्‍चात परिवार की जिम्‍मेदारियों को उठाना ही शिक्षाग्रहण करना माना गया !

राजस्‍थान पुलिस की बेवसाईट पर दर्ज आंकडों के अनुसार राजस्‍थान में वर्ष 2008 में भारतीय दण्‍ड संहिता के अन्‍तर्गत कुल 151174 मामले दर्ज किये गये जिनमें 15174 मामले महिला अत्‍याचार से सम्‍बन्धित है जो कि कुल मामलों को 10.03 प्रतिशत है, इसी प्रकार वर्ष 2009 व 2010 में क्रमशः 166565 तथा 162957 मामले दर्ज किये गये जिनमें महिला अत्‍याचार के मामले 18012 तथा 18906 पाएं गये जो कि वर्ष 2009 में 10.81 प्रतिशत व वर्ष 2010 में 11.60 प्रतिशत है ! उक्‍त आंकडे वर्तमान शिक्षित व तकनीकी उन्‍नति करते समाज के भयावह चेहरे को प्रकट करते हुए यह दर्शाते है कि जैसे जैसे हमारा समाज सभ्‍य व शिक्षित हुआ है वैसे वैसे समाज में महिला अत्‍याचार को बढावा मिला है पिछले दिनों एक टीवी कार्यक्रम में जब महिला अत्‍याचार सम्‍बन्धित मामला उठाया गया तो सम्‍पूर्ण राजस्‍थान व भारत में विरोध के स्‍वर मुखर हुए परन्‍तु इस ओर कोई ध्‍यान नही दिया गया क‍ि हमारा समाज छुट्टी के दिन टीवी के सामने बैठकर केवल कार्यक्रम देखकर तथा उस पर चर्चा करके कब तक अपनी जिम्‍मेवारियों को पूर्ण मानता रहेगा ! कब तक हम महिला को पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाने की बात को चर्चा का विषय बनाते रहेगे, वह कौनसा समाज व समय होगा जब हम वास्‍तविकता में तथा हमारी सोच में महिलाओं को पुरूषों के समान दर्जा दे पायेगे तथा जहां हमें बार-बार महिलाओं को पुरूषों के समान दर्जा व अधिकार देने पर चर्चा नही करनी पडेगी !

भारतीय समाज में महिलाओं के प्रजजन सम्‍बन्धि अधिकार के प्रति भी दोहरी नीति का अनुसरण किया है एक तरफ तो समाज नारी को प्रजजन पर नियन्‍ञण का अधिकार ना देकर उसे केवल उपकरण मानता है वही दूसरी ओर बच्‍चें के लिंग के लिए उसे जिम्‍मेवार ठहराकर उसके प्रति हिंसा को बढावा देता है, भारतीय समाज में जहां पितृसतात्‍मक सोच पूर्ण रूप से हावी रही है उसमें य‍ह तथ्‍य भी दृष्टिगत होता है कि इतिहास मे एक से अधिक विवाह करने वाले देवताओ व राजाओं की तो लम्‍बी लाईन लगी है परन्‍तु अपवाद स्‍परूप ही इतिहास में कहीं देखने को मिलता है कि फलां फलां देवी या रानी के हजार पति या सैकडो गोपी थे, कृष्‍ण को हजारों गोपियां रखने का हक (भला सांकेतिक रूप से ही हो), राजाओं को युद्व में रानीयों को जीतने का हक है परन्‍तु इतिहास गवाह है कि नारी को कभी भी एक से अधिक पुरूष से विवाह करने का अधिकार देने की बात तो दूर यहां तक कि पर पुरूष की कल्‍पना करना भी नरक का भागी बनाता है ! यहां स्ञियों को एक से अधिक विवाह का अधिकार देने का समर्थन नही किया गया है तथा ना ही उन्‍हे मर्यादा से बाहर निकालने की पैरवी है अपितु केवल महिलाओं के लिए मर्यादा शब्‍द के दुरूपयोग से उत्‍पन्‍न हिंसा का विरोध करने से है !

वर्तमान परिवेश में नारी को उसके अधिकार दिलाने के लिए आवश्‍यक है कि नारी शिक्षा को बढावा दिया जावे परन्‍तु नारी को ऐसी शिक्षा प्रदान की जावे जो उसे पुरूषों के समान ना बनायें, उसे पुरूषों के जैसी मनोवृति का ना बनायें बल्‍िक स्‍ञी को स्‍ञी बनने में सहायक हो, क्‍योंकि स्‍ञीयों को पुरूषों जैसा सोचने व जीवन जीने का ढग देने भर से स्‍ञी-पुरूष के मध्‍य समानता नही हो सकती है पश्चिमी संस्‍कृति जिसमें महिलाएं पुरूषों के जैसा दिखने का प्रयास कर रही है, स्‍ञीयों की बनावट, भाव तथा काया पुरूषों जैसी हो गयी है तथा नारी का नारीत्‍व, स्‍ञीत्‍व व मातृत्‍व कहीं खो गया है ! आज आवश्‍यकता स्‍ञी को पुरूषों के समान बनाने की नही है अपितु स्‍ञी को स्‍ञी बनाने पर बल देने की है, स्‍ञी को स्‍ञी जैसा व्‍यवहार सिखाने की है, उसे अपने अस्तित्‍व को पुनः जागृत करने तथा उसे पृथक अस्तित्‍व प्रदान करने की है !

आज नारी के जीवन में ऐसी क्रांति लाने की आवश्‍यकता है कि वह स्‍वयं कहे कि मुझे पुरूषों जैसा नही बनना है मुझे पुरूषों की बराबरी नही करनी है मुझे केवल नारी रहने का हक प्रदान किया जावे, मै क्‍यों किसी पुरूष की छाया बनूं, मुझे मेरी स्‍वयं की आत्‍मा व छवी की आवश्‍यकता है तथा मुझे समाज मां, बेटी, बहन, पत्नि की छाया से उपर उठकर केवल नारी बने रहने क्‍यों नही देता !

आज सबसे अधिक व पहली आवश्‍यकता है कि नारी स्‍वयं के मन को नारी होने के अपराध भाव से मुक्‍त करें, साथ ही वह एक पुरूष के शोषण व अत्‍याचार से मुक्‍त होने के लिए दूसरे पुरूष- पिता, भाई, पति की सहायता मांगना बंद करे, नारी नारी की सहयोगिनी बनें, क्‍यों कि नारी के विरूद्व अपराध में सर्वाधिक सहायक स्‍वयं नारी ही रही है ! नारी की आत्‍मा व छाया तथा उसके सम्‍मान को बचाने के लिए संविधान, कानून, योजनाएं, नियम सबके सब तब तक निरर्थक है जब तक कि स्‍वयं नारी अपने विचारों, भावनाओं तथा मन में नारी होने के प्रति स्‍वाभिमान तथा गर्व के भाव उत्‍पन्‍न नही करती ! जब तक कि नारी अपनी आत्‍मा व छाया के अस्तित्‍व को स्‍वीकार नही करती, जब तक कि वह स्‍वयं एक दूसरे की सहायक होकर केवल नारी बनने रहने की जिद्द नही करती, जब तक कि स्‍वयं नारी नारीत्‍व पर वर्ग अनुभव नही करती !

 

अनिल सैनी ‘अनि’

 

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अनिल सैनी ‘अनि’
व्‍याख्‍याता समाजशास्‍ञ शिक्षा – एम.ए समाजशास्‍ञ, राजनीति विज्ञान , एम.कॉम (बीएडीएम), बी,एड., नेट व एम.फिल. समाजशास्‍ञ, पीजीडीसीए, पीजीडीआरडी, जन्‍म स्‍थान – सीकर राजस्‍थान गत दो तीन वर्षो से शिक्षा के क्षेञ में अध्‍यापन कार्य तथा प्रतियोगी परीक्षाओं की कक्षाओं में अध्‍यापन कार्य

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