लालबहादुर शास्त्री का राष्ट्रप्रेम अनूठा था

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लाल बहादुर शास्त्री स्मृति दिवस- 11 जनवरी, 2021
– ललित गर्ग-

भारतीय राजनैतिक जीवन में शुद्धता की, मूल्यों की, आदर्श की एवं सिद्धांतों पर अडिग रहकर न झुकने, न समझौता करने के आदर्श को जीने वाले महानायक एवं दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादूर शास़्त्री का निर्वाण दिवस 11 जनवरी 2021 को है। भारतीय राजनीति के महानायक, अजातशत्रु, स्वतंत्रता सेनानी श्री शास्त्री ने अपनी ईमानदारी, राष्ट्रप्रेम, कर्तव्यनिष्ठा, सादगी, सरलता एवं निस्वार्थ देशसेवा से न केवल देश के लोगों का दिल जीता है, बल्कि विरोधियों के दिल में भी जगह बनाकर, अमिट यादों को जन-जन के हृदय में स्थापित कर हमसे जुदा हुए थे। उनका राष्ट्रप्रेम और देश के लिए कुछ अनूठा करने की इच्छा ही थी, जो उन्हे देश के स्वाधीनता संग्राम की ओर खींच लाई। उन्होंने कई स्वतंत्रता संग्रामों में हिस्सा लिया और निस्वार्थ भाव से देश की सेवा की। अपनी कर्तव्यनिष्ठा और देशप्रेम के बदौलत वह उस समय के महत्वपूर्ण नेताओं में से अग्रणी बन गये थे। ना सिर्फ आम जनता बल्कि कांग्रेस के दूसरे नेता भी उनका काफी आदर करते थे, उनके विचारों एवं सुझावों को अपनाते थे। यही कारण था कि सर्वमत द्वारा उन्हें देश का दूसरा प्रधानमंत्री चुना गया।
भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान शास्त्रीजी 9 साल तक जेल में रहे थे। असहयोग आंदोलन के लिए पहली बार वह 17 साल की उम्र में जेल गए, लेकिन बालिग ना होने की वजह से उन्हें छोड़ दिया गया था। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहकों की नियुक्ति की थी। उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ कराया। 1951 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये।
लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को मुगलसराय (वाराणसी) मंे एक कायस्थ परिवार में मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के यहाँ हुआ था। उनकी माँ का नाम रामदुलारी था। परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार में नन्हें कहकर ही बुलाया करते थे। जब नन्हें अठारह महीने का हुआ दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया। इस तरह उनका बचपन संघर्षपूर्ण एवं चुनौतीभरा रहा। 1928 में उनका विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता से हुआ। ललिता शास्त्री से उनके छः सन्तानें हुईं, दो पुत्रियाँ-कुसुम व सुमन और चार पुत्र-हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक। संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् वे भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी सच्चे गांधीवादी थे जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही।
जवाहरलाल नेहरू के देहावसान के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधानमन्त्री का पद भार ग्रहण किया तब से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे। इस प्रमुख पद पर उनका कार्यकाल अद्वितीय एवं अनूठा रहा। शास्त्रीजी ने काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। उनके शासनकाल में 1965 का भारत पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था। शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए पाकिस्तान युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी। उनकी सादगी, कर्मठता, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी सुभाषचन्द बोस ने आजाद हिन्द फौज को ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया, गांधीजी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को ‘भारत छोड़ो’ व भारतीयों को ‘करो या मरो’ का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा पुणे स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। 9 अगस्त 1942 के दिन शास्त्रीजी ने इलाहाबाद पहुँचकर इस आन्दोलन के गांधीवादी नारे को चतुराई पूर्वक ‘मरो नहीं, मारो!’ में बदल दिया और अप्रत्याशित रूप से क्रान्ति की दावानल को पूरे देश में प्रचण्ड रूप दे दिया। पूरे ग्यारह दिन तक भूमिगत रहते हुए यह आन्दोलन चलाने के बाद 19 अगस्त 1942 को शास्त्रीजी गिरफ्तार हो गये।
शास्त्रीजी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। सबसे पहले 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टण्डनजी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया। इलाहाबाद में रहते हुए ही नेहरूजी के साथ उनकी निकटता बढ़ी। इसके बाद तो शास्त्रीजी का कद निरन्तर बढ़ता ही चला गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियाँ चढ़ते हुए वे नेहरूजी के मंत्रिमण्डल में गृहमन्त्री के प्रमुख पद तक जा पहुँचे। और इतना ही नहीं, नेहरू के निधन के पश्चात भारतवर्ष के प्रधानमन्त्री भी बने। निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाये तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन एवं उलझनोभरा रहा। पूँजीपति देश पर हावी होना चाहते थे और दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की फिराक में थे। शास्त्रीजी ने पाकिस्तान से युद्ध के जटिल हालातों में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और जय जवान-जय किसान का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और सारा देश एकजुट हो गया।
शास्त्रीजी के जीवन पर गांधीजी के कार्यक्रमों एवं अहिंसक विचारों का सर्वाधिक प्रभाव बचपन से ही था। जब लाल बहादुर शास्त्री विद्यालय में थे, तो एक बार उन्होंने महात्मा गाँधी के एक व्याख्यान को सुना, जिससे वह बहुत ही प्रभावित हुए। वह इस बात से काफी प्रभावित थे कि आखिर कैसे गाँधीजी ने बिना हथियार उठाये और हिंसा किये अंग्रेजी हुकूमत को हिला कर रख दिया था। यही विचार उनके लिए प्रेरणास्त्रोत बना और उन्होंने गाँधीजी के आंदोलनो में हिस्सा लेना शुरु कर दिया। उनके गाँधीवादी मार्ग पर चलने की कहानी तब शुरु हुई, जब वह दसवें कक्षा के छात्र थे। यह वह समय था जब गाँधीजी ने छात्रों से असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी विद्यालयों से दाखिला वापस लेने और पढ़ाई छोड़ने के लिए कहा, गाँधीजी के इसी आवाहन पर शास्त्रीजी ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और स्वतंत्रता संघर्षों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे, जिसके कारणवश उन्हें जेल भी जाना पड़ा, लेकिन ये सभी बाधाएं कभी भी स्वतंत्रता संघर्ष के लिए उनके मनोबल और विश्वास को तोड़ने में सफल नहीं हो सकी। इसलिए हम कह सकते कि भारत के यह दो महापुरुष महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री ना सिर्फ एक दिन पैदा हुए थे, बल्कि उनके विचार भी एक से ही थे, दोनों ने ही भारत को आजादी दिलाने में अपूर्व योगदान दिया।
  शास्त्रीजी का सम्पूर्ण जीवन प्रेरणा का समवाय है। यही कारण है कि उनकी हर बात को देश की जनता बहुत मान देती थी। 1965 की लड़ाई के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन ने शास्त्रीजी को धमकी दी थी कि अगर आपने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की तो हम आपको पीएल 480 के तहत जो लाल गेहूँ भेजते हैं, उसे बंद कर देंगे। उस समय भारत गेहूँ के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था। शास्त्रीजी को ये बात बहुत चुभी क्योंकि वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उन्होंने देशवासियों से कहा कि हम हफ्ते में एक वक्त भोजन नहीं करेंगे। उसकी वजह से अमरीका से आने वाले गेहूँ की आपूर्ति हो जाएगी। लेकिन इस अपील से पहले उन्होंने अपनी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री से कहा कि क्या आप ऐसा कर सकती हैं कि आज शाम हमारे यहाँ खाना न बने। मैं कल देशवासियों से एक वक्त का खाना न खाने की अपील करने जा रहा हूँ। देश की जनता से जिस त्याग की अपील कर रहा हूं क्या मेरा परिवार उसके लिये तैयार है? मेरी अपील का असर तभी होगा जब मेरा परिवार और मैं उस त्याग के लिये तैयार है।  
अमेरिका एवं रूस ने शास्त्रीजी को षडयंत्रपूर्वक रूस बुलाया और उनसे ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करवाये गये, उसी रात उनकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया। शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं, मानते हैं कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई। शास्त्रीजी एक ईमानदार राजनैतिक नेता थे और पूर्ण रूप से गाँधीवादी विचारधारा को मानने वाले व्यक्तियों में से एक थे। यह गाँधीजी का उन पर प्रभाव ही था, जो वह इतनी छोटी उम्र में ही स्वाधीनता आंदोलन में शामिल हो गये। शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है।

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