आखिरकार ७७ दिन जेल में बिताने के बाद राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाला मामले में सर्वोच्च न्यायालय से जमानत मिल गई| रांची के बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार में कैदी की पोशाक पहने लालू का जलवा तब भी कम नहीं था औरअब जबकि वे अपनी पारम्परिक पोशाक में आ चुके हैं तो बिहार से लेकर केंद्र की राजनीति में सुगबुआहट होना स्वाभाविक है| जयप्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन की उपज लालू प्रसाद यादव ने तमाम राजनेताओं की तरह राजनीति के उतार-चढ़ाव को देखा है और कई बार ऐसे-ऐसे निर्णय लिए हैं जो राजनीतिज्ञों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों तक ने नकार दिए किन्तु लालू की दूरदर्शिता ने उन्हें आईना दिखा दिया। फिर चाहे वह १९९७ में अपनी पत्नी राबड़ी देवी को रातोंरात बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हो या रेलवे को घाटे से उबारने सम्बन्धी उनकी आंकड़ों की बाजीगरी, उनके इन्हीं विवादास्पद निर्णयों ने उन्हें राजनेताओं की कतार से हमेशा अलग दिखाया है। राजनीतिक विरोधियों का कहना था कि लालू और उनकी पत्नी राबड़ी की लालटेन जब तक जली, बिहार की हर गली में अंधेरा रहा। उनके शासन को ‘अपराध के व्यवस्थित कल्चर’ और ‘जंगल राज’ के लिए भी याद किया जाता है। उपरी तौर पर विरोधियों का यह आरोप सही भी जान पड़ता है किन्तु फिर भी आप लालू को तमाम विरोधों के बावजूद ख़ारिज करने का साहस नहीं जुटा सकते। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली सरकार जब १३ दिन में लुढ़क गई थी, तो उनके विरोधियों को भी यह अहसास हो गया था कि बिहार का यह नेता किंगमेकर के रूप में कितना अहम है? युनाइटेड फ्रंट सरकार के एच डी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने में भी देवेगौड़ा का जलवा कम और लालू का ज्यादा था। लालू ने ही प्रधानमंत्री के रूप में उनका नाम आगे बढ़ाया था और ऐसा कहा जाता है कि खुद देवेगौड़ा भी इस बात पर हैरान रह गए थे। यही किंगमेकर जब जेल की सलाखों के पीछे खुद के और पार्टी के भविष्य की चिंता कर रहा था, तब भी राजद को बिहार की राजनीति में अंडरडॉग कहा जा रहा था और उनका जेल से बाहर आने का अंदाज फिर साबित कर रहा है कि लालू बुझती लालटेन को दोबारा जलाने के लिए कितने बैचैन हैं| सीबीआई की विशेष अदालत ने चारा घोटाला मामले की जिन धाराओं में लालू को सजा सुनाई है उसके अनुसार लालू ११ वर्षों तक सक्रिय राजनीति से दूर रहेंगे। वहीं उनकी संसद सदस्यता भी रद्द होगी। किन्तु राजद के जनाधार को बढ़ाने के लिए उनके कदमों की आहट राजनीति में व्यापक परिवर्तन की साक्षी बनेगी| लालू को इससे पूर्व चारा घोटाले से ही जुड़े नियमित मामले ४७ ए ९६ में २६ नवम्बर २००१ को जेल जाना पड़ा था। उस समय उन्हें ५९ दिन जेल में रहना पड़ा। आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के नियमित मामले ५ ए ९८ में जमानत की अवधि समाप्त होने के बाद पटना में ब्यूरो की विशेष अदालत ने एक दिन के लिए २८ नवम्बर २००० को न्यायिक हिरासत में केन्द्रीय आदर्श कारागार बेऊर भेज दिया था। इससे पहले इसी मामले में लालू ५ अप्रैल २००० को तब जेल गए थे, जब सीबीआई की विशेष अदालत में आत्मसमर्पण के बाद न्यायाधीश ने उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी थी। लालू की यह तीसरी जेल यात्रा थी। इस मामले में उन्हें ११ मई को ३ माह के औपबंधिक जमानत पर केन्द्रीय आदर्श कारागार बेउर से रिहा किया गया था। वहीं चारा घोटाले के दो अन्य मामलों में लालू जेल जा चुके हैं। पहली बार उन्हें ३० जुलाई १९९७ में चारा घोटाले के नियमित मामले २० ए ९६ में १३४ दिनों के लिए जेल भेजा गया था और उसके बाद उन्हें २८ अक्टूबर १९९८ को चारा घोटाले के ही नियमित मामले ६४ ए ९६ में ७३ दिनों के लिए दोबारा जेल जाना पड़ा था। इतनी जेल यात्राओं के बाद भी लालू की राजनीति में प्रासंगिकता यह साबित करती है कि वे चूके नहीं हैं|
लालू को जमानत से राजनीति में बदलाव
दरअसल हाल ही में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों ने कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को झकझोर दिया है| पार्टी का पूरा ध्यान अब लोकसभा चुनाव पर केंद्रित हो गया है| बिहार; जहां लोकसभा की ४० सीटें हैं, इस समय नीतीश कुमार की जातिगत राजनीति में जकड़ा हुआ है| नीतीश जब तक भारतीय जनता पार्टी के साथ थे, उनकी ताकत दोगुनी थी किन्तु नरेंद्र मोदी को भाजपा की ऒर से प्रधानमन्त्री पद का दावेदार घोषित होने के बाद उन्होंने भाजपा से अपना डेढ़ दशक पुराना नाता तोड़ कांग्रेस से हाथ मिलाने का मन बना लिया| केंद्र ने भी रघुरामराजन समिति की रिपोर्ट के आधार पर बिहार को स्पेशल पैकेज़ देने का एलान कर दिया| तब ऐसा लगा कि कांग्रेस बिहार ने नीतीश से समझौता कर केंद्र में समर्थन की आस लगा सकती है| ऐसा होना असम्भव भी नहीं था| लालू जेल में थे और नीतीश-मोदी की रार बढ़ती जा रही थी| बिहार से केंद्र में आने वाले समय के संकेत मिलने शुरू हो गए थे पर लालू के जेल से रिहा होने के बाद इनमें बदलाव होगा; ऐसा अनुमान है| कांग्रेस पहले भी लालू के साथ गठबंधन कर चुकी है और लालू भी कांग्रेस सरकार में मंत्री पद पा चुके हैं| जातिगत आधार पर भी देखें तो बिहार में लालू जिस ‘माय’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण के जरिये सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे थे, नीतीश आज तक उसमें सेंध नहीं लगा पाए हैं| जब तक नीतीश के साथ भाजपा का पुख्ता वोट बैंक था; नीतीश बिहार में एकछत्र राज कर रहे थे| अगड़ी जातियां भी भाजपा-नीतीश गठजोड़ को पसंद कर रही थीं| किन्तु संबंध विच्छेद के बाद नीतीश को जातिगत आधार पर जो नुकसान होना है उसका असर बिहार में दिखने लगा है| फिर कांग्रेस के ही कई वरिष्ठ नेता नीतीश की महत्वाकांक्षाओं की अपेक्षा लालू की मसखरी पसंद करते हैं| उनके राजनीतिक भविष्य को जो नुकसान नीतीश पहुंचा सकते हैं, लालू से उसकी उम्मीद काफी कम है| लालू ने यूपीए की पहली पारी को जिस जतन से संजोया था, कांग्रेस चाहकर भी उसके भुला नहीं सकती। हालांकि आगामी चुनाव में बिहार में निश्चित रूप से राजनीतिक समीकरणों में बदलाव होगा और लालू का वोट बैंक भाजपा और नीतीश के बीच बंट जाएगा। अगड़ी जाति भगवा रंग में रंग सकती है तो मुस्लिमों को नीतीश के साथ टोपी पहनने में गुरेज नहीं होगा। अतिदलितों का जो थोडा बहुत कुनबा भी लालू के साथ था वह रामविलास पासवान के पक्ष में जा सकता है। किन्तु राजनीति में सब अनपेक्षित होता है और लालू का भाग्य कब चमक जाए कोई नहीं कह सकता? लालू की राजनीतिक पहचान ही यही है कि उन्होंने हमेशा राजनीतिक विश्लेषकों के दावों को धूल चटाई है| यानि यदि बिहार में लालू राजनीतिक तौर पर मजबूत होते हैं तो कांग्रेस के लिए वे एक पक्के साथी के रूप में उभर सकते हैं| और क्या पता; जिस तरह १९९० में उन्होंने आडवाणी के रथ को रोक सनसनी मचाई थी, इस बार मोदी की राजनीति पर लगाम लगाकर वे पुनः सूरमा बन जाएं| कुल मिलाकर लालू के जमानत पर रिहा होने से बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है जिसका असर निश्चित रूप से राष्ट्रीय राजनीति पर भी होगा।