भूमि अधिग्रहण विवाद, भाग १ – स्वतन्त्र चिन्तन की आवश्यकता

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-मानव गर्ग-

hailstormकेन्द्रीय प्रशासन के द्रारा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक बहुकाल से देश में व्यापक विवाद का विषय बना हुआ है । जहाँ प्रशासन सतत इसे किसानों के हित में बताती आयी है, वहीं सम्पूर्ण विपक्ष एड़ी-चोटी का बल लगाकर इसे किसान विरोधी सिद्ध करने का प्रयास कर रही है । दोनों ही पक्षों के अभिवक्ता आए दिन अपना अपना मत विभिन्न प्रसार माध्यमों से देश की जनता तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं । विपक्षी दलों के नेताओं ने विशाल जनसभाएँ आयोजित कर अपने मत की सम्मति बनाने का प्रयास भी किया है । वहीं कुछ सप्ताह पूर्व प्रधान मन्त्री ने आकाशवाणी के माध्यम से “मन की बात” कार्यक्रम में अपना मत किसानों के मध्य रखा है ।

किसका दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण है ?

सामान्यतया आम लोग प्रशासन और विपक्ष के तर्कों में उलझ कर विषय पर स्वतन्त्र चर्चा नहीं कर पाते, और दोनों में से एक पक्ष के मत से जुड़ने पर विवश हो जाते हैं । यदि राजनेताओं के मतों को एक कोने में रख दें, तो सबसे पहले २ प्रश्न ये उठते हैं, कि प्रस्तावित विधेयक से समाज के कौन कौन से वर्ग प्रभावित होते हैं, और उनके दृष्टिकोण से क्या क्या लाभ और हानि होती हैं, इति। सामान्य बुद्धि (common sense) से यह स्पष्ट होता है कि उक्त विधेयक से २ वर्ग प्रभावित होते हैं –

१) भारतीय किसान, जिसकी भूमि का अधिग्रहण ही विवाद का विषय बना हुआ है।

२) भारत राष्ट्र, जिसके हित का कारण बता कर कोई भी प्रशासन भूमि अधिग्रहण करता है।

अतः इन दोनों वर्गों पर उक्त विधेयक के क्या क्या प्रभाव होंगे, क्या लाभ क्या हानि होगी, यह समझना आवश्यक है । इन सभी तथ्यों पर एक साथ प्रकाश डाल कर ही श्रेष्ठतम निर्णय लिया जा सकता है । इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास इस लेख में किया जा रहा है। लेख का उद्देश्य राजनेताओं और मीडिया के बुद्धिजीवियों के तर्कों से बचते हुए, उक्त विषय पर एक स्वतन्त्र चिन्तन को आरम्भ करना ही है । लेखक इस लेख में उक्त विषय पर अन्तिम शब्द कहने का दावा कदापि नहीं करता है ।

आंशिक सत्य

एक व्यक्ति को उदरवेदना (पेट का दर्द) की समस्या रहती थी । १-२ दिन में वेदना दूर हुई, तो १-२ दिन पश्चात् पुनः हो जाती थी । एक दिन रोगी ने अपनी यह समस्या एक मित्र को बताई। मित्र ने उसे एक नारङ्गी रस से युक्त मीठी गोली खाने को दी। पीड़ित व्यक्ति ने कहा कि उदर में इतनी पीड़ा है कि पानी भी पीना सम्भव नहीं है । तो मित्र ने कहा कि गोली खाने से वेदना दूर हो जाएगी । तब उसने गोली खाकर अपनी वेदना दूर कर ली।

इसके बाद कई दिनों तक वह रोगी उदरवेदना के समय उस गोली का उपयोग करने लगा । कुछ दिनों बाद वह पुनः उसी मित्र से मिला और उसे बड़ी प्रसन्नता से बताया कि उसकी दी हुई गोली तो बड़ी लाभकारी निकली। तब मित्र ने बताया, कि उस गोली में जो कृत्रिम रङ्ग डाला हुआ है, उसका वृक्का (गुर्दा) पर दुष्प्रभाव पड़ता है । यह सुनकर रोगी आकुल हो गया और उसने कहा कि अब वह गोली कभी नहीं खाएगा । तब मित्र ने उसे एक अन्य दवाई की गोली देते हुए कहा कि यदि दोनों गोलियाँ साथ में ली जाएँ, तो उदरवेदना भी दूर होगी और वृक्का पर दुष्प्रभाव भी नहीं होगा । यह सुन कर रोगी पुनः प्रसन्न हो गया और वह नित्य दोनों गोलियाँ खाने लगा ।

कुछ दिनों बाद दोनों पुनः मिले तो मित्र ने रोगी को बताया कि नूतन शोध के अनुसार, उसके द्वारा दी गई दवाई की गोली के अत्यधिक उपयोग से, व्यक्ति को आने वाले २० वर्षों में अर्बुदरोग (cancer) की सम्भावना सामान्य व्यक्ति की तुलना में दोगुणी हो जाती है । रोगी पुनः घबरा गया और उसने पुनः कभी वे गोलियाँ न खाने का निर्णय लिया।

तो आप देखिए, कैसे एक एक सत्य सामने आने से, रोगी का गोली खाने का निर्णय बार बार बदलता गया । यही होता है, आंशिक सत्य पर तर्क को आधारित करने का परिणाम । इस लेख के सन्दर्भ में भी, यह ध्यान देने योग्य है कि भूमि अधिग्रहण का विषय राजनेताओं और पूर्वाग्रहों से युक्त मीडिया के बुद्धिजीवियों के द्वारा आंशिक सत्य पर आधारित दिए गए तर्कों की तुलना में बहुत अधिक गभीर है । अतः इस विषय में स्वतन्त्र चिन्तन और चर्चा की अत्यन्त आवश्यकता है ।

भारतीय किसान का मानना क्या है ?

भूमि अधिग्रहण के विषय पर हम आए दिन विभिन्न राजनेताओं की टिप्पणियाँ पढ़ते हैं । इन टिप्पणियों के साथ अपना मत जोड़ कर प्रस्तुत करते हुए मीडिया वाले अपनी विचारधारा से लोगों को प्रभावित करने का प्रयास करते रहते हैं, ऐसा भी सदा देखने में आता रहा है । पर क्या दूरदर्शन, आकाशवाणी, मुदण और अन्तर्जाल, किसी भी प्रसारमाध्यम से परिणाम सहित कोई ऐसा सर्वेक्षण प्रस्तुत किया गया है, जिससे कि हमें यह पता चल सके, कि आखिर किसान वर्ग प्रस्तावित विधेयक के विषय में क्या मत रखता है ? क्या मीडिया के बुद्धिजीवियों के लिए किसान सम्बन्धित विषय पर भी किसान के मत का कोई महत्त्व नहीं है ? आखिर क्यों किसी स्वतन्त्र आयोजित किसान सभा ने उक्त विधेयक के लिए अपना समर्थन या विरोध प्रकट नहीं किया ? क्यों विरोध के स्वर राहुल गान्धी और केजरीवाल की विशाल जनसभाओं तक ही सीमित रहे ? क्यों ये राजनैतिक दल शेष सर्वस्व त्याग कर उक्त विधेयक के विरोध निर्माण कार्य में लगे हुए हैं ? क्या ये अपनी वोटबैंक बनाने के लिए जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हुए केवल लोगों को मूर्ख बना रहे हैं ?

 

भारतीय किसान के २ विशेष गुण

भारतीय किसान – यह वर्ग जितना किसान है, उतना ही भारतीय भी है । इस भारतीय किसान की २ विशेषताएँ ध्यान देने योग्य हैं, जो इस प्रकार हैं –

१) प्रबल निध्यान (strong intuition) – प्रायः भारतीय किसान को निर्धन, निराश्रय, निर्बल, निर्बुद्धि और निरुपाय माना जाता है । परन्तु आई-फोन, आई-पैड आदि बनाने वाले विश्वविख्यात बहुराष्ट्रीय उद्योग “ऐपल” (Apple) के विश्वविख्यात संस्थापक स्टीव जॉब्स (Steve Jobs) की सोच इससे विपरीत है । ऐपल उद्योग लगाने से २ वर्ष पूर्व, १९ वर्ष की आयु में उन्होंने भारत में कुछ समय प्रवास किया था । अपने भारत प्रवास के अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय ग्रामीण लोग अपनी बुद्धि का उपयोग उतना नहीं करते जितना कि अमेरिका के लोग करते हैं, परन्तु उनकी निध्यान शक्ति (intuition) विश्व के सभी लोगों की तुलना में सर्वाधिक विकसित है । स्टीव निध्यान शक्ति को बुद्धि शक्ति की तुलना में अधिक शक्तिशाली मानते थे । साथ वे ये भी कहते थे, कि निधान शक्ति की इस पहचान का उनके कार्य पर महान् प्रभाव पड़ा है । स्वयं उन्हीं के शब्दों में –

 

“Coming back to America was, for me, much more of a cultural shock than going to India. The people in the Indian countryside don’t use their intellect like we do, they use their intuition instead, and their intuition is far more developed than in the rest of the world. Intuition is a very powerful thing, more powerful than intellect, in my opinion. That’s had a big impact on my work.”

भारतीयों की यह परिपक्व निधान शक्ति रातों रात विकसित नहीं हो गई है, अपितु यह विश्व की प्राचीनतम सभ्यता के शतकों शतकों के महान् अनुभव का स्वाभाविक परिणाम है । यहाँ मनुष्य को पढ़ा लिखा न होने पर भी अपने, अपने परिवार के और अपने राष्ट्र के हित और अहित का अन्तर सरलता से ही ज्ञात हो जाता है । अतः यहाँ परिश्रम लोगों को कुछ समझाने के लिए नहीं, उन्हें उलझाने के लिए किया जाता है, जिसका दायित्व यहाँ के राजनेताओं और मीडिया के बुद्धिजीवियों ने लिया हुआ है । लेखक का मानना है, कि भारतीय किसान स्वयं पर और अपने राष्ट्र पर प्रभाव डालने वाले भूमि अधिग्रहण आदि किसी भी विषय पर निर्णय लेने में सक्षम है । अतः इस भूमि अधिग्रहण के विषय में उसका मत जानना अत्यन्त आवश्यक है, परन्तु दुर्भाग्य से आज तक इसकी उपेक्षा ही हुई है ।

२) राष्ट्र हित के लिए त्याग करने की क्षमता – भारत भूमि की गाथा यहाँ जन्मे व्यक्तियों के द्वारा किए गए त्याग से भरी हुई है । अतिथि का मान रखने के लिए पुत्र का त्याग, गुरु वसिष्ठ की गाय नन्दिनी की रक्षा के लिए राजा दिलीप द्वारा अपने प्राणों के त्याग के लिए उद्यत होना, मर्यादापुरुषोत्तम राजा राम द्वारा पितृवचन की रक्षा के लिए राज्य का त्याग, मुघलों से हिन्दुसमाज की रक्षा के लिए सिक्ख सन्तों के द्वारा अपने प्राणों का त्याग आदि अनगिनत त्याग के उदाहरण यहाँ पाए जाते हैं । आधुनिक काल में भी, जहाँ महात्मा गान्धी के आह्वान पर राष्ट्र के लिए निर्धन निहत्थे किसान अपने प्राण हथेली पर लेकर साथ आ लिए, वहीं बोस के आह्वान पर अपने घर परिवार का त्याग कर शत्रु से युद्ध करने के लिए वे उद्यत हो उठे । त्याग भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है, और यहाँ के लोगों ने उसे अपने आध्यात्मिक विकास के लिए अनिवार्य माना है।

वर्तमान सन्दर्भ में भी यह लगता है कि भारतीय किसान राष्ट्रहित के लिए त्याग की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अपनी भूसम्पत्ति का त्याग करने के लिए उद्यत हो सकता है, यदि उसे यह समझ आए कि कैसे उससे राष्ट्रहित होगा । साथ ही, इस के लिए यह आवश्यक है कि भूसम्पत्ति के त्याग के पश्चात् उस किसान का सम्मान समाज में बना रहे या और बढ़े, जो कि तब सम्भव है जब कि सम्पूर्ण समाज उस त्याग के महत्त्व को समझता हो । यदि वास्तव में प्रशासन राष्ट्रहित के लिए ही भूमि अधिग्रहण करना चाहता है, तो यह उसका दायित्व बनता है कि वह अपनी पूरी योजना से समाज को अवगत कराए । मात्र यह कह देना पर्याप्त नहीं है कि इससे किसान का या राष्ट्र का हित होगा। प्रशासन की नीति में पारदर्शिता की आवश्यकता है, विशेषतः एक जनतन्त्र में । परन्तु प्रायः कभी कभी अधिक पारदर्शिता भी राष्ट्रहित में नहीं होती, क्योंकि इससे प्रशासन की राष्ट्रोन्नति की योजना विदेशियों तक भी पहुँच जाती है । अतः यह एक जटिल समस्या भी हो सकती है, परन्तु प्रशासन को इसके प्रति सचेत रहना चाहिए।

विशेष – भाग २ में उक्त विधेयक के भारत राष्ट्र और भारतीय किसान पर होने वाले प्रभाव का विश्लेषण किया जाएगा। दोनों ही वर्गों के दृष्टिकोण से होने वाले लाभ और हानि पर विचार किया जाएगा। सन्दर्भ – स्टीव जॉब्स की उक्ति वॉल्टर ईसाकसन के द्वारा लिखी हुई उनकी जीवनी से ली गयी है ।

 

4 COMMENTS

  1. अनुमान ही कहीं पढा हुआ स्मरण है, कि
    (१) ५० प्रतिशत भारतीय, कृषि पर ही अपना जीवन चलाते हैं।
    (२) और ऐसे उससे जुडे, कृषक, श्रमिक, एवं अन्य बिचौलिए उत्यादि सभी मिलकर, हमारी G D P का मात्र १५% ही प्रदान करते हैं।
    (३) इसपर भी सहना पडता है, अनियमित वर्षा वाला मान्सून।
    प्रश्न:
    अब ऐसी अवस्था में आप उसी उर्वरता की भूमि पर निर्भर रहकर, और सदाके लिए, कृषकॊं को दान (मुआवजा) दे देकर, कैसे निर्वहन करते रहेंगे? और कब तक करते रहेंगे?
    इसका उत्तर:
    (क) उपज को ३ गुना की जा सकती है। (ख) यदि बाँध और चेक बाँध, भूगर्भ जल स्तर भी उपर उठाया जाएगा। यदि पानी के तालाब, छोटी छोटी दिवालों के रचने से। (ग)गुजरात में ये सारा हुआ है।
    इसका मूल्य:
    (घ) बाँध के लिए कुछ भूमि ग्रहण करने देनी पडेगी, निःशुल्क नहीं। फिर बाकी भूमि तीन से चार, गुना उपज देगी।
    साथ साथ पेय जल का प्रबंध बिलकुल संतोषकारक होगा। अप्रत्यक्ष रीति से हमारी भूमि तीन से चार गुना होगी। मान्सून पर निर्भर न होंगे। पेय जल समस्या समाप्त होगी।
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    जब कच्छ की मरूभूमि हरी होने जा रही है। (पढे, सबका साथ, सबका विनाश? भा.(दो)}
    जो कृषि-श्रमिक आज बेकार है, उन्हें कर्माणियों (फॅक्टरी)में काम मिलेगा।
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    सारी ५० से ६०% की जन संख्या, १५ % कृषि की G D P पर कब तक जिएगी?
    समग्रता में, किसी हल या समाधान से बँधकर न सोचा जाए।
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    भारत यदि ऋषि ऋषि करता रहा। तो कच्चा माल निर्यात कर, उसीका पक्का माल आयात कर्ते हुए निर्धनता की ओर क्रमशः बढता रहेगा।
    बहुत लम्बा होगा—-अतः छोड देता हूँ। मैं आलेख डालूंगा।
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    फिर भी अलग तर्क सम्मत मत पढने को सिद्ध हूँ।

    अच्छा विषय उठाया है। देर के लिए क्षमा करें।
    मानव को विषय उठाने के लिए धन्यवाद।
    मधुसूदन

  2. मानव, आपके द्वारा प्रस्तुत दिल को छू लेने जैसी गद्य में कविता पढ़ी जो स्वभावतः समय और विषय-वस्तु पर आधारित विभिन्न व्याख्याओं को आमंत्रित करती है| भले ही आज देखने सुनने में राजनीतिज्ञ, पत्रकार, बुद्धिजीवी, किसान व सड़क पर खड़े सामान्य नागरिक का समाज में रहते अपना अपना अस्तित्व है लेकिन भारतीय भूखंड में लुटेरों और आक्रमणकारियों के अनादिकाल से अब तक के इतिहास में सभी नियंत्रण की राजनीति के महत्वपूर्ण पात्र रहे हैं| डच, पुर्तगाली, ब्रिटिश, फ्रेंच अथवा १८८५ में जन्मी नागरिक प्रशासन के लिए अंग्रेजों द्वारा प्रयोग में लाई गई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस हो, सभी ने अपने स्वार्थ के लिए मूल निवासियों पर नियंत्रण की राजनीति की है|

    तनिक द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात वैश्विक परिस्थितियों की और ध्यान दें| जबकि पूर्णतया विध्वंस हुए पश्चिम के कई राज्य फिर से बन-संवर कर इक्कीसवीं सदी की आधुनिकता को चूमते हैं वहां विश्वयुद्ध से दूर का नाता रहते स्वयं भारत में चारों ओर विनाश का सा दृश्य क्योंकर बना हुआ है? राष्ट्रवादी कुशल नेतृत्व के अंतर्गत सुशासन और सुव्यवस्था के वातावरण में वहां के नेताओं ने प्रगतिशील कार्यक्रमों द्वारा अपने देशवासियों के जीवन को तुरंत सुखमयी बनाया है तो हमारे यहां जीवन की साधारण उपलब्धियां और आवश्यकताएं भी दुर्लभ हैं|

    अब मैं आपका ध्यान पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों मैं व्यक्तिगत आचरण की ओर बंटाना चाहूँगा| मेरे विचार में भारतीय समाज पारंपरिक और धार्मिक भावनाओं पर आधारित होने के कारण भारतीयों में व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन मिलता रहा है| पाश्चात्य समाज में परस्पर सहयोग देखने में मिलता है और इस कारण संगठन उनके समाज का मूलाधार है| निस्संदेह हम सशक्त एक अरब इक्कीस करोड़ अकेले हैं और पश्चिम में मुट्ठी भर बहुतेरे हैं| परंपरागत, अपने व्यक्तिवाद में वशिष्ठ के ब्रह्मदंड—उदाहरणार्थ, कबीरा तेरी झोंपड़ी गल कटियन के पास, जो करणगे सो भरणगे तू क्यों भयो उदास—के आचरण को निभाते कांग्रेस राजा और हम प्रजा का संबंध बनाए हुए हैं| पिछले छः दशकों से इसी संबंध की सोच में राजा के सुखों दुखों में विलीन हम अपने सुख दुख भूले बैठे हैं| पाश्चात्य सामूहिक लोकतान्त्रिक सोच में राजा कोई अधीश्वर नहीं बल्कि प्रबंधक है| उसकी अयोग्यता पर कोई नहीं पूछता हो क्या गया है इस प्रबंधक को? उसे तुरंत बाहर निकाल, योग्य प्रबंधक को नियुक्त करते हैं| भारतीय लोकतंत्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस केवल अयोग्य प्रबंधक नहीं बल्कि धूर्त अधीश्वर बना बैठा रहा है| मोदी शासन की ओर से भूमि अधिनियम अथवा राष्ट्र विकास (पुनर्निर्माण) हित कोई अन्य मुद्दा क्यों न हो नियंत्रण की राजनीति खेलते विपक्ष दल इन्हें पहेली बनाए अभिषंगी मीडिया के माध्यम द्वारा दुर्भावनापूर्ण प्रचार कर सरलमति नागरिकों के मन में व्यर्थ ही भय, संशय, व क्रोध उत्पन्न कर रहे हैं| तिस पर विडंबना यह है कि सदैव की तरह बुद्धिजीवी “धर्मयुग की बेताल की कहानियों” में विक्रम बने विवाद में उलझते पहेली का समाधान नहीं ढूँढ पा रहें है| आज बुद्धिजीवियों, विशेषकर मीडिया को चाहिए कि वे अयोग्य व भ्रष्ट कांग्रेस की अवहेलना करते हुए जनता में राष्ट्र हित नई सोच पैदा करे और पत्रकारिता की मर्यादा में हर पग पर सच्चे दिल उनका मार्गदर्शन करे|

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