और बैचेनी के साथ
किसी पूर्णिमा में चाँद उतर आता था
साफ़ नर्म हथेली पर
अपनी बोल भर लेनें की क्षमता के साथ.
चाँद अभिव्यक्त भी न कर पाता था
अपनें आप को
कि उसकी मर्म स्पर्शी आँखों में
होनें लगती थी स्पर्श की
कसैली सुरसुराहट
दबे पाँव उसकी व्याकुलता भी
स्वरमय होनें लगती थी
एक नन्ही-छोटी सी
पीड़ा भरी गीतिका के साथ.
चांद को नहीं आता
अभिव्यक्त करना
न ही स्पर्श की भाषा को समझ पाता है वह.
समुद्र की हर लहर पर
भिन्न-विभक्त हो गई उसकी छवि को
न वह पहचान पाता है न कोई और
इस तरह
बीत जाती है रात पूर्णिमा की
अधूरी आशाओं और
टुकड़ा टुकड़ा हो गई
अव्यक्त, अबोली, अनकही
गन्धर्व कथाओं के साथ.