बिमलदा ने तब तक स्वतंत्ररूप से अपनी कोई निर्माण संस्था नहीं स्थापित की थी और बम्बई टॉकीज़ के लिये मां का निर्देशन करने में व्यस्त थे. बम्बई टाकीज़ का कार्यालय उन दिनों चर्चगेट के क्षेत्र में अवस्थित था. जब उनसे मेरी भेंट हुई तो अपने चिरपरिचित धोतीकुरते में सुसज्जित होने के बजाए वह पैंट और कमीज़ में आवृत्त मिले. उनकी मितभाड्ढिता में तब भी कोई कमी नहीं आयी थी और किसी सवाल का जवाब पाने के लिये तब भी उन्हें बहुत कुरेदना पड़ता था. लेकिन उस याम चूंकि वह कुछ उत्फुल्लप्रफुल्ल नज़र आ रहे थे इससे दफ़तर में छुट्टी की घंटी बजने के बाद जब मैंने उनको राय दी कि क्यों नहीं घन्टओध घन्टे हम लोग मैरीन ड्राइव पर चहलकदमी कर डालें तो वह फ़ौरन ही उसके लिये तैयार हो गये.
घन्टओध घन्टे की वह प्रस्तावित सैर घन्टेड़े घन्टे में कब और कैसे तबदील हो गयी यह हम दोनों में से किसी को नहीं मालूम हो पाया. बिमलदा उन दिनों प्रबोधकुमार सान्याल से बहुत प्रभावित थे. मैरीन ड्राइव के फुटपाथ पर टहलते हुए उन्होंने कहा था – प्रबोध जैसा साहित्यकार दुनियां के किसी भी कोने में मिलना क्या संभव है? फिर कुछ याद करते हुए बोले थे – उनकी औपन्यासिक कृति, आंकाबांका को ही लो. किसी पाश्चात्य भाड्ढा में उसकी रचना की गयी होती तो अब तक बीसियों नोबेल प्राइज़ उस पर न्योछावर हो चुके होते. लेकिन अपना देश? यहां किसी भी कृतिकार को समुचित समादर दिया गया क्या? यरत हैं, मुंशी हैं, प्रेमचंद हैं. पिश्चम का बड़ा से बड़ा कथाकार भी उनसे मुकाबला करने में पीछे रह जायेगा. लेकिन यहां उनका जो मूल्यांकन अपेक्षित था उसका दशांश भी अब तक नहीं हो पाया…. है न यह दुःख और आश्चर्य की बात?
कितने सरल, कितने सहज और कितने सामान्य थे वह अपने दैनन्दिन कार्यव्यवहार में, इसका पता चला मुझे एक अप्रत्याशित अनुभव से. इलाहाबाद रेलस्टेशन पर बनारस जाने के लिये मैं किसी गाड़ी का इन्तज़ार कर ही रहा था कि बम्बई से कलकत्ता जाने वाली हावड़ा मेल धड़धड़ाती हुई प्लैटफ़ॉर्म पर आ खड़ी हुई. सोचा कि उसी को मैं भी पकड़ लूं, मुगलसराय पहुंच कर बनारस के लिये कोई दूसरी ट्रेन ले लूंगा. इधरउधर कहीं जगह की खोज मैं कर ही रहा था कि एक डिब्बे में अचानक मुझे कुछ परिचित चेहरे दिखायी दिये. पास जाने पर आश्चर्य में पड़ गया. दूसरे दर्जे के उस सामान्य आरक्षित डिब्बे में मुझे दिखायी पड़े किशोरकुमार, यीला रमानी, हृड्ढिकेश मुखर्जी और सलिल चौधरी जैसे यीड्ढर व्यक्तित्व. पता चला कि वह सब नौकरी की यूटिंग के सिलसिले में कलकत्ता जा रहे हैं. फ़िल्मों के इतने महती कलाकार, और वह भी दूसरे दर्जे की सामान्य बोगी में – मैं तो आंख फाड़ता रह गया था. कुछ और निकट जाकर नज़र डाली तो बिमलदा भी मुझे दिख गये. डिब्बे के एक कोने में बैठे हुए मुझे देख कर वह मन्दमन्द मुस्करा रहे थे. फ़ौरन ही मेरा बोरियाबिस्तर भी वहीं पहुंच गया.
इलाहाबाद से मुगलसराय तक की वह यात्रा अब तक मेरे मनमानस में ज्यों की त्यों स्थिर है. एक अजीब सी ऊर्जा मुझे प्रदान करने में सफल रही थी वह. लगा था कि जो कुछ देख रहा हूं है वह सत्य नहीं है, और जो सत्य है उसे देखना संभव नहीं. नवनीत को ही लीजिए. सफ़ेदपीले रंग का सामान्य सा लगने वाला वह पदार्थ शरीर में पहुंचते ही किस तरह खून के रूप में परिवित्तर्त होकर रक्तिम आवरण धारण कर लेता है, इस तथ्य पर कभी गौर किया है आपने? मुझे लगा था, बिमल रॉय भी हमारी पी़ढ़ी की रगरग में वही खून भरने की दिशा में सकि्रय और सचेष्ट हैं.
उन्हीं दिनों मैंने बिमलदा से प्रश्न किया था – फ़िल्मों को सुखान्त होना चाहिए, या दुखान्त? इस सवाल के पीछे मेरा एक उद्देश्य भी था. उनकी दो बीघा ज़मीन की समीक्षा करते हुए अनेक समालोचकों ने राय प्रकट की थी कि फ़िल्म का अन्त आंसुओं के प्रवाह में न होकर खुशी की बौछारों के बीच हुआ होता तो वह अधिक प्रभावोत्पादक हो सकती थी. बिमलदा इस पर बोले थे – अपनी फ़िल्मों के लिये कोई पूर्वनिर्द्धारित फ़ारमूला नहीं है मेरे पास. हर कहानी का रूपविन्यास अलग तरीके से किया जाता है और इसीलिये उसके निर्माणतत्वों में भी विभिन्नता होती है. यह एक सहजस्वाभाविक प्रकि्रया है, उसमें कोई व्यवधान नहीं डाला जा सकता. कोई अगर यह चाहे कि कथा के अन्त को दृष्टि में रख कर हम अपनी फ़िल्मों का तानाबाना बुनें तो वह एक अत्यंत अस्वाभाविक बात होगी. प्रकृति से न मैं आशावादी हूं और न निराशावादी. अगर कोई वाद मुझे प्रिय है तो वह मात्र यथार्थवाद है. उसी यथार्थवाद को हमेशा मैंने अपनी फ़िल्मों में चित्रित करने का प्रयास किया है. और उस यथार्थवाद को भी जब तक मैं अपनी कसौटी पर कस नहीं लेता तब तक उसे अपने कार्यव्यवहार की सीमा से सर्वथा अलग रखता हूं.
उन्होंने आगे कहा था – आदशर्वाद की अपनी सीमाएं होती हैं. मैं समझता हूं, उसके माध्यम से हम पल भर के लिये जाग्रत भले ही हो जायें लेकिन वह जागरण असीम नहीं होता. जल्दी ही हमारा मन मस्तिष्क एक बार फिर सुसुप्तावस्था को प्राप्त हो जाता है. ऐसे समय उस निद्रा पर अंकुश लगाना यदि किसी के द्वारा संभव है तो वह है यथार्थ की प्रस्तुति. इस स्थल पर मैं यह बताता चलूं कि मात्र किसी के दुखदैन्य का चित्रण ही यथार्थवाद नहीं है. अरबोंखरबों से खेलने वाले धनपतियों की ज़िन्दगी के चित्रण को भी उतनी ही गंभीरता के साथ फ़िल्माया जा सकता है जितना बेगार करने वाले किसी किसानमजदूर के जीवन को. ज़रूरत सिर्फ दोनों के बीच का अन्तर समझने की है. इसी तरह मात्र सामाजिक परिवेश से जनित कथाओं को ही हम यथार्थ का दरज़ा दें, यह भी आवश्यक नहीं. पौराणिक और ऐतिहासिक गाथाओं को भी हम उतने ही गांभीर्य के साथ प्रस्तुत कर सकते हैं जितनी गंभीरता के साथ सामाजिक कही जाने वाली कहानियों को.
– लेकिन यह सब करने के लिये दिमाग़ को आतशाी याीश्ो की तरह स्पष्ट और पारदशीर होना चाहिए. किसी समस्या का जब तक हम अन्तर्मन से अध्ययनअवलोकन नहीं करते, तब तक उसके मूल तक पहुंचना हमारे लिये किंचित संभव नहीं. मात्र सतही तौर पर उसका मूल्यांकन अगर हमने किया तो हम न घर के रहेंगे और न घाट के. – बिमलदा ने अपनी बात समाप्त की थी, और फिर अपनी आदत के अनुसार हलके से मुस्करा दिये थे.