इतिहास से सीख (लघुकथा)

डा. राधेश्याम द्विवेदी
महाभारत के कौरव तथा पाण्डवों के बीच हुए युद्ध तथा विवाद के बारे में एक पिता पुत्र के मध्य वार्तालाप हो रही थी। पिता बार बार श्रीकृष्ण की दूरदर्शिता की सराहना कर रहे थे और पुत्र बार बार तर्क देकर श्रीकृष्ण के नाटकीय चरित्र पर उंगली उठाकर आशंका व्यक्त कर रहा था।
पिता ने कहा – अपने आसपास के लागों से लड़ाई या मतभिन्न्ता यदि बने तो जहाँ तक हो सके, उसे नजरन्दाज कर टालने का प्रयास करना चाहिए। यही समय की मांग एवं आवश्यकता होती है। जल्दवाजी में युद्ध कत्तई शुरु नहीं करना चाहिए। युद्ध से ना केवल हमारी संस्कृतियां नष्ट होती हैं अपितु इसके दूरगामी कुप्रभाव भी पड़ते हैं। फिर उसे उस देश को सामान्य होने में शताव्दियां तक बीत जाती हैं। आज भी हमारे देश में काश्मीर व कैराना के हालात सामान्य नहीं हैं। हिन्दुओं का पलायन तथा मुस्लिमों की मनमानी अभी भी जारी है। कई राज्य सरकारें बदल गई। केन्द्र सरकार भी बदल गया, पर समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। यह महाभारत की स्थिति से तनिक भी कम नहीं है। देश के तथाकथित अपने को सेकुलर कहलाने वाले राजनीतिक और साम्यवादी दल इसे हवा दे रहे हैं। वे अपने को सत्ता में पुनः आने के लिए अंग्रेजों की तरह बैर फैलाकर देश के कई टुकड़े करवाने को तुले हुए हैं। वे अपने इतिहास से सीख नहीं लेना चाहते हैं। उनका दुष्चक्र अभी भी बन्द नहीं हुआ है।
इतिहास से सीख क्या होता है पिता जी ? जिज्ञासावस पुत्र ने पूछा।
राम रावण तथा महाभारत के युद्ध हमारे इतिहास के साक्षात उदाहरण हैं। हमें इससे सीख लेकर ही अपने निर्णय लेने चाहिए। पिता जी ने कहा था।
कैसे पिताजी ? कुतुहल वस पुत्र ने पूछा।
महाभारत से पहले श्रीकृष्ण भी दुर्योधन के दरबार में युद्ध ना करने का यह प्रस्ताव लेकर गये थे कि हम युद्ध नहीं चाहते। तुम पूरा राज्य रखो। पाँडवों को सिर्फ पाँच गाँव दे दो। वे चैन से रह लेंगे, तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे। सब जगह शान्ति ही शान्ति रहेगी।
बेटे ने पूछा – पर इतना एसा प्रस्ताव लेकर कृष्ण गए क्यों थे ? यदि दुर्योधन प्रस्ताव स्वीकार कर लेता तो क्या होता ?
पिता – वह प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता । श्रीकृष्ण को पता था कि वह प्रस्ताव स्वीकार नहीं करेगा। प्रस्ताव स्वीकार करना उसके मूल चरित्र के विरुद्ध था।
बेटा- फिर कृष्ण प्रस्ताव लेकर गए ही क्यों थे ?
पिता – वे तो सिर्फ यह सिद्ध करने गए थे कि दुर्योधन कितना स्वार्थी तथा मनबढ़ है? वह कितना अन्यायी है? वे पाँडवों को सिर्फ यह दिखाने गए थे, कि देख लो , युद्ध तो तुमको लड़ना ही होगा हर हाल में। अब भी कोई शंका है तो मन से निकाल दो। तुम कितना भी संतोषी बन जाओ, कितना भी चाहो कि घर में चैन से बैठू, दुर्योधन तुमसे हर हाल में लड़ेगा ही। लड़ना या ना लड़ना तुम्हारा विकल्प ही नहीं है। तुम्हंे हर हाल में लड़ना ही होगा। इसके बावजूद अर्जुन को आखिर तक शंका बनी रही। सब अपने ही तो बंधु बांधव हैं। श्रीकृष्ण ने सत्रह अध्याय तक गीता का अनमोल उपदेश दिया। फिर भी अर्जुन की शंका बनी रही। ज्यादा अक्ल वालों को ही ज्यादा शंका होती है । उन्हें समझाना इतना आसान नहीं होता है। यही हाल अर्जुन का रहा। इसलिए हे अर्जुन,और सन्देह मत पालो। श्रीकृष्ण कई घंटों की क्लास बार-बार नहीं लगाते। इसके ठीक विपरीत दुर्योधन को कभी शंका आई ही नही थी। उसे हमेशा पता था कि उसे युद्ध करना ही है। वह हर हाल में पाण्डवों को खत्म करना ही है। वह निष्कंटक राज्य करना चाहता था। उसने तो गणित का यह फारमूला अपना रखा था।

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